हैदराबाद मुठभेड़ मामला

कठघरे में पुलिस, चलेगा मुक़दमा?

हैदराबाद मुठभेड़ मामले में पुलिस की छवि पर एक बार फिर सवाल उठे हैं। इन सवालों को नज़रअंदाज़ इसलिए नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये सवाल देश की शीर्ष अदालत की ओर से गठित पैनल ने उठाये हैं और हैदराबाद में सन् 2019 में हुई मुठभेड़ में शामिल 10 पुलिस अधिकारियों के ख़िलाफ़ हत्या का मुक़दमा चलाये जाने की भी सिफ़ारिश की है। याद दिला दें कि 27 नवंबर, 2019 में तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद से सटे शादनगर में रात के वक़्त 27 वर्षीय एक महिला पशु चिकित्सक का अपहरण करने के बाद उसके साथ बलात्कार किया गया और फिर उसकी जलाकर हत्या करने के बाद उसके अधजले शव को दंरिदों ने एक पुल के नीचे फेंक दिया था।

इस घटना के ख़िलाफ़ जन-आक्रोष फूटा और वहाँ की पुलिस ने आनन-फानन में इस मामले में शामिल चारों अभियुक्तों को 6 दिसंबर, 2019 को गिर$फ्तारी के बाद कथित मुठभेड़ में मार गिराया। तेलंगाना पुलिस के अनुसार, वह इन चारों अभियुक्तों को अपराध वाली जगह पर लेकर गयी थी, जहाँ उन्होंने भागने की कोशिश की और फिर पुलिस पर हमला करने की भी कोशिश की। इस दौरान जवाबी कार्रवाई में चारों अभियुक्त पुलिस की गोली के शिकार हो गये। पुलिस का कहना था कि उसने आत्मरक्षा के लिए गोलियाँ चलायीं। देश में आम लोगों ने इस घटना में पुलिस की तारीफ़ की; लेकिन कई सामाजिक संगठनों ने इस मुठभेड़ को फ़र्ज़ी क़रार दिया। मामला न्यायालय पहुँचा, और अब शीर्ष अदालत की ओर से गठित पैनल ने इस मुठभेड़ को फ़र्ज़ी क़रार दिया है। 20 मई को पैनल ने सर्वोच्च अदालत को अपनी रिपोर्ट सौंपी है और हैदराबाद की इस मुठभेड़ को फ़र्ज़ी क़रार देने के साथ-ही-साथ इस मुठभेड़ में शामिल 10 पुलिस अधिकारियों के ख़िलाफ़ हत्या का मामला चलाये जाने की भी सिफ़ारिश की है। पैनल ने कहा कि पुलिस की ओर से दावा किया गया था कि दुष्कर्म और हत्या के आरोपियों ने उनसे उनकी पिस्तौल छीन ली थी और भागने की कोशिश भी की थी। हालाँकि पुलिस अपने इस दावे को अदालत में साबित नहीं कर पायी।

सवाल यह भी उठता रहा है कि क्या पुलिस ने उन चारों आरोपियों को वारदात वाली जगह पर ले जाकर खुला छोड़ दिया था? क्या उन चारों को पहले भागने का मौक़ा दिया गया? क्या पैरों में गोली मारने की बजाय चारों को जान से मारना ही इकलौता विकल्प पुलिस को नज़र आया? पैनल ने कहा कि पुलिस की ओर से किये गये दावों पर भरोसा नहीं किया जा सकता और मौक़े पर मिले सुबूत भी इसकी पुष्टि नहीं करते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि पुलिसकर्मियों ने जानबूझकर गोलियाँ चलायी थीं और उन्हें पता था कि ऐसा करने पर उन लोगों की मौत भी हो सकती है। इसलिए यह मुठभेड़ फ़र्ज़ी है और पुलिस के दावे ग़लत प्रतीत होते हैं। पैनल की रिपोर्ट व यह मामला तेलंगाना उच्च अदालत को भेज दिया गया है। ग़ौरतलब है कि देश में पुलिस मुठभेड़ पर हमेशा से ही सवाल उठते रहे हैं, इसके औचित्य को लेकर पक्ष व विरोध में दलीलों की कोई कमी नहीं है। एक लॉबी का मानना है कि पुलिस के हाथ बाँधने की ज़रूरत नहीं है, जबकि दूसरी लॉबी का कहना है कि पुलिस आत्मरक्षा के नाम पर लोगों से उनके क़ानूनी अधिकार नहीं छीन सकती।

दरअसल मूल मुद्दा यह है कि भारत का क़ानून आत्मरक्षा के अधिकार के अंतर्गत आम आदमी को जितने अधिकार देता है, उतने ही अधिकार पुलिस को भी हासिल हैं। लेकिन अन्तर इतना है कि आम आदमी अगर आत्मरक्षा के नाम पर किसी को मारता है, तो उसमें आवश्यक रूप से एफआईआर दर्ज होती है; लेकिन पुलिस आत्मरक्षा के नाम पर किसी को मारती है, तो उसे मुठभेड़ का नाम दे दिया जाता है। देश की सर्वोच्च अदालत ने माना है कि किसी भी आदमी की जान जाती है या वह गम्भीर रूप से घायल हो जाता है, तो उसकी निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए।
ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च अदालत ने 2014 में पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र सरकार के मामले में पुलिस मुठभेड़ में हुई मौतों व गम्भीर रूप से घायल होने की घटनाओं की जाँच के लिए 16 दिशा-निर्देश जारी किये थे। ग़ौरतलब है कि भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आर.एम. लोढा और न्यायाधीश आर.एफ. नरीमन की बैंच ने इस फ़ैसले में लिखा था कि पुलिस मुठभेड़ के दौरान हुई मौत की निष्पक्ष, प्रभावी और स्वतंत्र जाँच के लिए इन 16 नियमों का पालन किया जाना चाहिए। इन 16 नियमों में प्रमुख हैं- जब कभी भी पुलिस को किसी तरह की आपराधिक गतिविधि की सूचना मिलती है, तो वह या तो लिखित में हो जो ख़ासतौर पर केस डायरी की शक्ल में हो या फिर किसी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के ज़रिये हो। धारा-176 के तहत पुलिस फायरिंग में हुई हर एक मौत की मजिस्ट्रियल जाँच होनी चाहिए। इसकी एक रिपोर्ट न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास भेजना भी ज़रूरी है। अगर किसी भी आपराधिक गतिविधि की सूचना मिलती है या फिर पुलिस की तरफ़ से किसी तरह की गोलीबारी की जानकारी मिलती है और उसमें किसी के मर जाने की सूचना आये, तो इस पर फ़ौरन धारा-157 के तहत अदालत में एफआईआर दर्ज करनी चाहिए। इस पूरे घटनाक्रम की एक स्वतंत्र जाँच सीआईडी या दूसरे पुलिस स्टेशन की टीम से करवाना ज़रूरी है। जब तक स्वतंत्र जाँच में किसी तरह का सन्देह सामने नहीं आता है, तब तक राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को जाँच में शामिल करना ज़रूरी नहीं है। हाँ, घटनाक्रम की पूरी जानकारी बिना देरी किये राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या राज्य मानवाधिकार आयोग के पास भेजना ज़रूरी है।

तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आर.एम. लोढा और न्यायाधीश आर.एफ. नरीमन ने व्यवस्था दी थी कि संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत सम्मान से जीने का अधिकार निहित है। इसने यह भी व्यवस्था दी थी कि पुलिस मुठभेड़ में किसी के मारे जाने से क़ानून के शासन तथा आपराधिक न्यायप्रणाली की विश्वसनीयता आहत होती है। न्यायमूर्ति लोढा ने अपने उस फ़ैसले में कहा था अनुच्छेद-21 में निहित गारंटी प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध है और यहाँ तक कि सरकार भी इस अधिकार का हनन नहीं कर सकती। अनुच्छेद-21 के तहत मिले अधिकार एवं संविधान के अन्य प्रावधानों के समान ही कई और संवैधानिक प्रावधान भी निजी स्वतंत्रता, सम्मान और मौलिक मानवाधिकारों की रक्षा करते हैं। पर सवाल यह है कि नागरिकों के जीवन एवं निजी स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद पुलिस मुठभेड़ में मौत की घटनाएँ जारी हैं। ग़ौरतलब है कि गत फरवरी में ही सरकार ने लोकसभा में बताया था कि पिछले पाँच वर्षों में देश में कुल 655 पुलिस मुठभेड़ हत्याएँ हुई हैं। छत्तीसगढ़ में सबसे अधिक 191 हतयाएँ हुई हैं, उसके बाद उत्तर प्रदेश में 117, असम में 50, झारखण्ड में 49, ओडिशा में 36 व बिहार में 22 ऐसी घटनाएँ हुई हैं।
दरअसल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी मार्च, 1997 में इस सन्दर्भ में कुछ दिशा-निर्देश जारी किये थे। जैसे कि जब किसी पुलिस स्टेशन के इंचार्ज को किसी पुलिस मुठभेड़ की जानकारी मिले, तो वह फ़ौरन इसे रजिस्ट्रर में दर्ज करे। जैसे ही ऐसी कोई जानकारी मिले व जाँच में किसी तरह का सन्देह पैदा हो, तो उसकी जाँच करना ज़रूरी है। अगर जाँच में पुलिस अधिकारी दोषी पाये जाते हैं, तो मारे गये लोगों के परिजनों को उचित मुआवज़ा मिलना चाहिए।

यही नहीं, सन् 2010 में भी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपने बनाये गये नियमों की सूची में कुछ और नियम भी जोड़ दिये थे। 12 मई, 2010 को इस आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायाधीश जी.पी. माथुर ने कहा था कि पुलिस को किसी की जान लेने का अधिकार नहीं है। उन्होंने यह भी कहा था कि बहुत से राज्यों में इस सन्दर्भ में आयोग के नियमों का पालन नहीं होता है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है; लेकिन क्या यह हक़ीक़त है। त्वरित न्याय के नाम पर आरोपियों को अदालत में अपनी बात रखने का मौक़ा भी नहीं दिया जाता। आत्मरक्षा के नाम पर फ़र्ज़ी मुठभेड़ का सिलसिला कब तक जारी रहेगा। समाज को भी गहन आत्म-चिन्तन करना चहिए कि आख़िर वह क्यों कई मर्तबा पुलिस के ऐसे काले कारनामों के साथ खड़ा नज़र आता है। जैसे कि हैदराबाद के ही इस कथित मुठभेड़ के मामले में वहीं की जनता ने पुलिस वालों की शान में फूल बरसाये थे और साफ़तौर पर सन्देश दिया था कि न्याय ऐसे ही होना चाहिए।