हिमाचल के आत्मीय कवि का न रहना

सुरेश सेन निशांत के आकस्मिक निधन की दुख सूचना ने बेहद आहत किया। उनका मेरा बहुत ही आत्मीय रिश्ता है। पत्रिका ‘कृति ओर’ में उनकी सार्थक उपस्थित हमेशा रही। यह कहना गलत नहीं होगा कि वे कृतिओर के ही माध्यम से पहचाने गए।

उनके दो कविता संग्रह मैंने देखे हैं – 1. वे जो लकड़हारे नहीं थे ( 2010)और कुछ थे जो कवि थे (2015)। ये दोनों संग्रह इस बात का साक्ष्य है कि निशांत एक भविष्णु कवि थे।

दूरदराज के इलाकों में अनेक सार्थक कवि आंख की ओट में होते हैं जबकि खराब कविता बेवजह जगह हड़पती रहती है।

 

हम

हम शहद बांटते हैं

अपनी मेहनत का

मधुमक्खियों की तरह

हजारों मील लंबी और कठिन है

हमारे जीवन की भी यात्राएं

उन्हीं की तरह

रहते हैं हम अपने काम में मगन

उन्हीें की तरह धरती के

एक एक फूल की

गंध और रस का

है पता हमें

वाकिफ हैं इस धरती की नस नस से

आपके मन और देह का रिझाता हुआ

आपकी जिहवा पे

हमारी मेहनत का

है यह स्वाद

ध्यान रहे हम

डंक भी मारते हैं

जहर बुझा डंक

कोई यंू ही हमारे छत्ते से

मारे पत्थर अगर कोई

वैसे हम मधुमक्खियां भर नहीं

(वे जो लकड़हारे नहीं थे : साभार)

बूढ़ी स्त्री

वह बूढ़ी स्त्री उदास है

उस कमरे में

जहां उसकी ही तरह के

 कई और बूढ़े भी हैं उदास

बूढ़ी स्त्री सोचती है

वह एक चिडिय़ा थी

कहां हैं वे दरख्त

और उन पर बसेरा करने वाले परिंदे

क्या मेरी ही तरह हो चुके हैं वे बूढ़े

शायद इसलिए उदास हूं इस कमरे में

कि पंख नहीं हैं, अब उड़ान के लिए।

 

(कुछ थे जो कवि थे : साभार)

प्रस्तुति – विजेंद्र

प्रधान संपादक – कृतिओर