हिन्दू राष्ट्र, भाजपा और नागरिकता कानून

नागरिकता संशोधन कानून के बाद देश में बबाल मचा है। सरकार इसे सही ठहरा रही है, तो विपक्ष का कहना है कि यह कानून संविधान के िखलाफ है। इसे न्यायालय में चुनौती भी दी गयी है। पक्ष-विपक्ष के बीच देश में जो माहौल बन रहा है, उस पर संवाददाता राकेश रॉकी की यह रिपोर्ट

सुदूर असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों और बंगाल में विरोध की ज्वाला धधक रही है। इसके विपरीत दिल्ली में मजनूँ का टीला के शरणार्थी शिविर में एक नयी सुबह-सा उत्साह है। दोनों में कारक एक ही है- नागरिकता संशोधन कानून। आपातकाल के विरोध में जेलों से उपजे जो छात्र नेता आज सत्ता में हैं, वे असम के छात्रों का विरोध सुनने के लिए तैयार नहीं। देश के नक्शे में अजीब जटिलता भरी रेखाएँ उभर आयी हैं। महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती के वर्ष में अचानक देश एक दोराहे पर आ खड़ा हुआ है।

मजनूँ का टीला की पाकिस्तानी शरणार्थी बस्ती में भी तिरंगा लहरा रहा है- उनको ‘न्याय’ मिलने की खुशी में। और असम में भी लोगों के हाथ में तिरंगा ही लहरा रहा है – उनके साथ ‘अन्याय’ के विरोध में। विरोध-समर्थन के नारों के बीच नागरिकता संशोधन बिल राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की मंजूरी के बाद कानून बन चुका है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में इसे चुनौती देने वाली दो दर्जन याचिकाएँ भी दायर हो गयी हैं। सरकार नागरिकता संशोधन कानून के बाद एनआरसी लाएगी, यह तय है। दिलचस्प यह है कि भाजपा की सहयोगी जेडीयू भी एनआरसी का विरोध करने का ऐलान कर चुकी है।

भारत के प्रमुख विपक्षी दलों का कहना है कि मोदी सरकार सीएए से मुसलमानों को टार्गेट करना चाहती है। इसकी वजह ये है कि सीएए 2019 के प्रावधान के मुताबिक पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से से आने वाले मुसलमानों को भारत की नागरिकता नहीं दी जाएगी। कांग्रेस समेत कई पार्टियाँ इसी आधार पर नागरिकता संशोधन बिल का विरोध कर रही हैं। सरकार का तर्क यह है कि धार्मिक उत्पीडऩ की वजह से इन देशों से आने वाले अल्पसंख्यकों को सीएए के माध्यम से सुरक्षा दी जा रही है।

मोदी सरकार का तर्क है कि 1947 में भारत-पाक का बँटवारा धार्मिक आधार पर हुआ था। इसके बाद भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में कई धर्म के लोग रह रहे हैं।  पाक, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यक काफी प्रताडि़त किये जाते हैं। अगर वे भारत में शरण लेना चाहते हैं, तो हमें उनकी मदद करने की ज़रूरत है।

बहुत लोग यह भी मानते हैं कि भाजपा का कांग्रेस पर देश का धर्म पर आधारित विभाजन का आरोप गलत है। कांग्रेस ने विभाजन को तो स्वीकृति दी थी; लेकिन धर्म के आधार पर नहीं। उनका कहना है कि मोहम्मद अली जिन्ना ने धर्म पर देश के बँटबारे की बात की थी। उनका यह भी मानना है कि उस समय हिन्दूवादी संगठनों, जिनमें आरएसएस भी है, का मुस्लिमों के प्रति आक्रामक रुख भी किसी हद तक इसका •िाम्मेदार था।

नागरिकता बिल ने देश की राजनीति के बीच के ध्रुवों की दूरी बढ़ा दी है। भाजपा और उसके समर्थक कानून के िखलाफ कुछ सुनने को तैयार नहीं। कांग्रेस और उसके साथ के विरोधी दल, जैसे टीएमसी आदि इसे किसी भी रूप में सहने को तैयार नहीं। भाजपा कहती है इससे देश मज़बूत होगा, कांग्रेस कहती है इससे संविधान की आत्मा तार-तार हो गयी है। अब राजनीतिक विरोधी न्याय की देहरी पर खड़े हैं, तो छात्र और स्वयंसेवी सडक़ों पर विरोध के नारे गूँज रहे हैं। दिल्ली और दूसरी जगह भी छात्र-प्रदर्शन हुए हैं।

बहुत से लोगों को लगता है कि भाजपा धीरे-धीरे हिन्दू राष्ट्र के अपने एजेंडे पर आगे बढ़ रही है। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) भाजपा के एजेंडे में नागरिकता संशोधन कानून के बाद अगली कड़ी है। बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि नागरिकता बिल और एनआरसी के ज़रिये भाजपा पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव को भी साधना चाहती है। भाजपा इस कानून को इस आधार पर सही ठहरा रही है कि यह सब मुद्दे उसके घोषणा-पत्र में थे। भाजपा इस कानून को इस आधार पर सही ठहरा रही है कि यह सब मुद्दे उसके घोषणा-पत्र में थे। भाजपा के कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा कहते हैं कि मई 2019 के लोकसभा चुनाव में हमें जनता ने इतना बड़ा बहुमत हमारे इन्हीं मुद्दों के लिए दिया था। सब बातें हमारे घोषणा-पत्र में थीं। जो लोग हमारा विरोध कर रहे हैं, वे वास्तव में जनमत का विरोध कर रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून पाकिस्तान-बांग्लादेश-अफगानिस्तान से धार्मिक प्रताडऩा के कारण आये हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई, पारसी शरणार्थियों के लिए भारत की नागरिकता हासिल करने का रास्ता खोल देगा। मुस्लिम इसमें शामिल नहीं हैं। लेकिन कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और अन्य, जिनमें छात्र और स्वयंसेवी संगठन शामिल हैं, इसे धर्म पर आधारित कानून बताकर इसका विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह कानून संविधान के िखलाफ है। असम के जिन इलाकों में इसका विरोध सबसे प्रचंड है, दिलचस्प रूप से वे हिन्दू बहुल इलाके हैं।

मोदी सरकार के इस कानून का पूर्वोत्तर में ज़बरदस्त विरोध हो रहा है। राजनीतिक स्तर पर पश्चिम बंगाल में भी। असम, मेघालय समेत कई राज्यों में लोग सडक़ों पर हैं और नागरिकता कानून को वापस लेने की माँग कर रहे हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों के विरोध के पीछे कारण है, उनका यह मानना कि यदि शरणार्थियों को वहाँ नागरिकता दी जाएगी, तो उनके राज्यों की अस्मिता और संस्कृति पर ही असर नहीं पड़ेगा, उनके रोज़गार की सम्भावनाएँ भी इससे प्रभावित होंगी।

वैसे सरकार ने कानून बनाते समय ऐलान किया है कि मेघालय, असम, अरुणाचल, मणिपुर के कुछ क्षेत्रों में कानून लागू नहीं होगा। स्थानीय लोगों की माँग के कारण केन्द्र सरकार ने यहाँ इनर लाइन परमिट जारी किया है, जिसकी वजह से ये नियम वहाँ लागू नहीं होंगे। दरअसल इनर लाइन परमिट एक यात्रा दस्तावेज़ है, जिसे भारत सरकार अपने नागरिकों के लिए जारी करती है; ताकि वे किसी संरक्षित क्षेत्र में निर्धारित अवधि के लिए यात्रा कर सकें। इस कानून को लेकर भारत में ही उबाल नहीं है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने भी नागरिकता संशोधन कानून को मुस्लिमों के प्रति भेदभावपूर्ण ठहरा दिया है। आयोग के प्रवक्ता ने कहा कि इस बिल के उद्देश्य का हम स्वागत करते हैं, जिसमें ज़ुल्म से पीडि़त समूहों को सुरक्षा देने की बात है। लेकिन यह प्रक्रिया राष्ट्रीय शरणार्थी व्यवस्था के तहत होनी चाहिए, जो भेदभाव और असमानता के सिद्धांत पर आधारित न हो। प्रवक्ता ने इस बात पर ज़ोर दिया कि संयुक्त राष्ट्र के अपने मूलभूत सिद्धांत हैं, जिनमें मानवाधिकारों के सार्वभौम घोषणा-पत्र में शामिल अधिकार निहित हैं। उम्मीद है कि उन्हें कायम रखा जाएगा। यही नहीं हमारे मित्र पड़ोसी देश बांग्लादेश में भी गृह मंत्री अमित शाह के इस बयान से नाराज़गी है कि बंगलादेश में हिन्दुओं की धार्मिक आधार पर प्रताडऩा हुई है। भारत में मोदी सरकार के इस कानून का विरोध इसलिए हो रहा है, क्योंकि इसे देश के धर्म-निरपेक्ष ताने-बाने को बदलने की तरफ भाजपा के एक कदम के रूप में देखा जा रहा है। अर्थात् देश को हिन्दू राष्ट्र की तरफ ले जाना।

वैसे भारत में अभी तक किसी को उनके धर्म के आधार पर भारतीय नागरिकता देने से मना नहीं किया गया है। इसका कानून पहले से था, जिसमें भारत की नागरिकता की इच्छा वाले व्यक्ति को 11 साल निवास करने के बाद ही नागरिकता का रास्ता साफ हो पाता था। अब नये कानून में अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में धार्मिक प्रताडऩा के कारण 31 दिसंबर, 2014 तक भारत आये हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदायों के शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता दी जाएगी। और इन छ: समुदायों के शरणार्थियों सिर्फ पाँच साल ही भारत में निवास की शर्त रहेगी, जो पहले 11 साल थी। चूँकि, इसमें मुस्लिमों को जगह नहीं दी गयी है, इसलिए मोदी सरकार के कानून को भेदभावपूर्ण कहा जा रहा है और इसकी कटु आलोचना की जा रही है।

इस कानून के विरोध के पीछे एक बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि यह धर्म आधारित है और देश की धर्म-निरपेक्ष सोच ही नहीं संविधान का भी उल्लंघन करता है। दरअसल, भारतीय समाज की रूह में धर्म-निरपेक्षता गहरे तक बसी है। एक समाज के रूप में भारत कभी धर्म आधारित नहीं रहा है। यही कारण है कि देश में ऐसे असंख्य जन हैं, जो मोदी सरकार के इस कानून को धर्म-निरपेक्षता पर गहरी चोट मानते हैं।

देश में धर्म-निरपेक्षता की जड़ें कितनी गहरी रही हैं, यह इस तथ्य से समझा जा सकता है कि जब 1950 में भारत का मूल संविधान बना तो इसमें धर्म-निरपेक्ष शब्द इस विचार के साथ नहीं डाला गया कि भारत की तो मूल सोच ही धर्म-निरपेक्ष है। तब भारत सम्प्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य के ही नाम से बना। धर्म-निरपेक्ष शब्द इसमें करीब ढाई दशक के बाद 1976 में संविधान में 42वाँ संशोधन करके जोड़ा गया, जब इंदिरा गाँधी आपातकाल का ज़बरदस्त विरोध झेल रही थीं। इसके बाद भारत संवैधानिक रूप से सम्प्रभु, समाजवादी, धर्म-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य कहलाया। विरोध रहे लोगों का कहना है कि जिस स्वरूप में यह बिल लाया गया है, उससे यह देश के धर्म-निरपेक्ष ढाँचे को तहस नहस कर देगा।

नागरिकता संशोधन विधेयक को संसद ने 2016 में जेपीसी के पास भेजा था। इस संसदीय समिति में लोकसभा से 19 और राज्यसभा से 9 सदस्य शामिल थे। साथ ही आईबी और ‘रॉ’ के प्रतिनिधियों को भी इसमें शामिल किया गया था। समिति के अध्यक्ष भाजपा के राजेंद्र अग्रवाल थे, जिन्होंने जेपीसी की रिपोर्ट को 7 जनवरी, 2019 को संसद में पेश किया था।

संसद में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि 1950 में नेहरू-लियाकत समझौता हुआ था, जिसके अंतर्गत भारत और पाकिस्तान को अपने-अपने अल्पसंख्यकों का ध्यान रखना था; किंतु ऐसा नहीं हुआ। शाह ने कहा कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश ने अपने संविधान में लिखा है कि वहाँ का राजधर्म इस्लाम है। पाकिस्तान में 1947 में अल्पसंख्यकों की आबादी 23 फीसदी थी, जो 2011 में घटकर 3 फीसदी रह गयी।  बांग्लादेश में भी यह संख्या कम हुई। उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि उनका अस्तित्व बना रहे और सम्मान के साथ बना रहे। शाह ने बताया कि भारत में मुस्लिम 1951 में 9.8 फीसदी थास जो आज 14.2 3 फीसदी हैं; जो इस बात का सबूत है कि भारत में धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता है। शाह ने कहा कि यदि पड़ोस के देशों में अल्पसंख्यकों के साथ प्रताडऩा हो रही है, उन्हें सताया जा रहा है, तो भारत मूकदर्शक बनकर नहीं रह सकता। भारत में किसी तरह की रिफ्यूजी पॉलिसी की ज़रूरत नहीं है।

बंगाल और अन्य राज्यों का विरोध

पश्चिम बंगाल सहित कांग्रेस शासित राज्य इस कानून का ज़बरदस्त विरोध कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पहले ही ऐलान कर चुकी हैं कि राज्य में न तो नागरिकता संशोधन कानून और न ही एनआरसी को लागू किया जाएगा। पश्चिम बंगाल, केरल और पंजाब के मुख्यमंत्रियों ने कहा है कि वो अपने यहाँ नागरिकता संशोधन कानून को लागू नहीं होने देंगे। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने भी अपने यहाँ नया नागरिकता कानून नहीं लागू करने की बात कही है। महाराष्ट्र में शिवसेना नेता संजय राउत ने कहा है नया एक्ट संविधान का उल्लंघन करता है।  उनका कहना है कि राज्य में इसे लागू करने या न करने का फैसला मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे लेंगे, जबकि महाराष्ट्र में सरकार में साझीदार कांग्रेस पार्टी के नेताओं का कहना है कि वो राज्य में नया नागरिकता कानून लागू नहीं होने देंगे। केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने कहा कि नया कानून असंवैधानिक है। ये धर्म के आधार पर भेदभाव फैलाने वाला है, जिसकी इजाज़त संविधान कतई नहीं देता। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने कहा है कि पंजाब विधानसभा नये कानून को राज्य में लागू करने से रोक देगी। ये संविधान के िखलाफ है। यहाँ यह देखना भी दिलचस्प है कि क्या राज्य इस कानून को लागू करने से रोक सकते हैं। सरकार का कहना है कि राज्यों को ऐसा अधिकार नहीं है। ज़ाहिर है राज्य जब इसका विरोध करेंगे, तो टकराव की स्थिति बनेगी। इससे केंद्र-राज्य सम्बन्धों पर भी आँच आ सकती है।

पूर्वोत्तर में विरोध

गृह मंत्री अमित शाह का कहना है कि नरेंद्र मोदी सरकार पूर्वोत्तर राज्यों की भाषाई, सांस्कृतिक और सामाजिक हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। शाह ने कहा है कि अधिनियम के संशोधनों के प्रावधान असम, मेघालय, मिजोरम या त्रिपुरा के आदिवासी क्षेत्र पर लागू नहीं होंगे; क्योंकि संविधान की छठी अनुसूची में शामिल हैं और पूर्वी बंगाल के तहत अधिसूचित ‘इनर लाइन’ के तहत आने वाले क्षेत्र को कवर किया गया है। मणिपुर को इनर लाइन परमिट (आईएलपी) शासन के तहत लाया जाएगा और इसके साथ ही सिक्किम सहित सभी उत्तर पूर्वी राज्यों की समस्याओं का ध्यान रखा जाएगा।

सरकार के तमाम भरोसों के बावजूद पूर्वोत्तर राज्यों में नागरिकता कानून के िखलाफ उपजे आन्दोलन में अब तक तकरीबन चार-पाँच लोगों की जान जा चुकी है और दर्जनों घायल हुए हैं।   कानून को लेकर देश कई हिस्सों में प्रदर्शन जारी है। सबसे •यादा तनाव की स्थिति असम में रही है। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक असम में चार लोगों की जान जा चुकी है, जो पुलिस की गोलीबारी के कारण गुवाहाटी में मारे गये।

राज्य में 200 से •यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया है, जबकि करीब 1600 हिरासत में हैं। सरकारी सम्पत्ति का बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ है। असम में कई जगह इंटरनेट सेवाओं को बन्द कर दिया गया है। स्कूल और कॉलेज भी बन्द हैं। कई जगह कफ्र्यू लगाया गया है और सेना को मदद के लिए बुलाना पड़ा है।

असम गण परिषद् (एजेपी) भी कानून के िखलाफ ताल ठोक चुकी है, जिससे सोनोवाल सरकार की चिन्ता बढ़ी है। असम में बढ़ते तनाव के बीच मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल 15 दिसंबर को दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात कर चुके हैं।

प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि नागरिकता संशोधन विधेयक साल 1985 में हुए असम समझौते (असम अकॉर्ड) का उल्लंघन है और इसे कतई स्वीकार नहीं किया जाएगा।

पुराना इतिहास है असम में संघर्ष का

असम में बाहरी बनाम असमिया के मसले पर आन्दोलनों का दौर बहुत पुराना है। 50 के दशक में बाहरी लोगों का असम आना राजनीतिक मुद्दा बनने लग गया था। ब्रिटिश-काल में बिहार और बंगाल से चायबगानों में काम करने के लिए बड़ी तादाद में मज़दूर असम पहुँचे। अंग्रेजों ने उन्हें यहाँ खाली पड़ी ज़मीनों पर खेती के लिए प्रोत्साहित किया। विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से बड़ी संख्या में बंगाली पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और असम में आये। लिहाज़ा बाहरियों को लेकर चिंगारियाँ भी फूटती रहीं।

वर्ष 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना ने दमनकारी कार्रवाई शुरू की, तो बड़े पैमाने पर बांग्लादेश सीमा पारकर यहाँ पहुँचे। करीब 10 लाख लोगों ने असम में शरण ली। बांग्लादेश बनने के बाद •यादातर वापस लौट गये लेकिन एक लाख लोग असम में ही रह गये। उसके बाद भी बांग्लादेशी यहाँ आते रहे जिससे असम के किसानों और मूलवासियों को यह डर सताने लगा कि उनकी ज़मीन-ज़ायदाद पर बांग्लादेश से आये लोगों का कब्ज़ा हो जाएगा। जनसंख्या में होने वाले इस बदलाव ने मूलवासियों में भाषाई, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना पैदा कर दी।

असम के मूल निवासियों और बाहरी शरणार्थियों के बीच संघर्ष की खुली शुरुआत साल 1979 में हुई जब राज्य की मंगलदोई लोक सभा सीट पर उपचुनाव में मतदाताओं की संख्या अचानक कई गुना •यादा बढ़ी पायी गयी। छानबीन में सामने आया कि बांग्लादेशी शरणार्थियों की वजह से मतदाताओं की संख्या बढ़ी है। इसके बाद ही राज्य में मूल निवासी बनाम शरणार्थी का मामला गरमा गया। बांग्लादेशी शरणार्थियों के िखलाफ राज्य में बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गया।

साल 1983 में असम में हुए नीली दंगे ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। महज 24 घंटे के भीतर करीब 2000 लोगों (शरणार्थियों) की हत्या कर दी गयी। ये असम में बांग्लादेशी नागरिकों के िखलाफ सबसे बड़ी हिंसा थी। इस हिंसा ने इंदिरा गाँधी सरकार तक को हिला दिया।

असम समझौता

असम में इल्लीगल इमीग्रेंट डिटरमिनेशन बाई ट्रिब्यूनल एक्ट (आईएमडीटी) लागू किया गया। इससे असम में आंदोलन और तेज़ी से भडक़ उठा। ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) की अगुवाई में चल रहे आंदोलन से 1984-85 में अराजकता की स्थिति पैदा हो गयी। आल असम स्टूडेंट यूनियन और आल असम गण संग्राम परिषद् ने करीब छ: साल तक वहाँ उग्र आंदोलन चलाया। असम में जब हालात बहुत खराब हुए तो 1985 में उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने असम समझौता किया। समझौते में कहा गया कि 25 मार्च, 1971 के बाद असम में आये विदेशियों की पहचान करके उन्हें देश ने बाहर निकाला जाए। दूसरे राज्यों के लिए यह समय सीमा 1951 निर्धारित की गयी। यह समझौता 15 अगस्त, 1985 को हुआ। समझौते के बाद विधानसभा को भंग करके चुनाव कराये गये, जिसमें असम गण परिषद् की सरकार बनी। राज्य में असम समझौते से शान्ति तो बहाली हो गयी; लेकिन नयी बनी राज्य सरकार खुद भी इसे लागू नहीं करा पायी।

 इस समझौते में कहा गया कि भारत और पूर्वी पाकिस्तान विभाजन के बाद (1951 से 1961 के बीच) असम आये सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट का अधिकार दिया जाएगा। साल 1961 से 1971 के बीच असम आने वालों को नागरिकता और अन्य अधिकार दिये जाएँगे; लेकिन उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं होगा। असम को आर्थिक विकास के लिए विशेष पैकेज भी दिया जाएगा। असमिया भाषी लोगों के सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई पहचान की सुरक्षा के लिए विशेष कानून और प्रशासनिक उपाय किए जाएँगे। साल 1971 के बाद असम में आने वाले विदेशियों को वहाँ का नागरिक नहीं माना जाएगा, उन्हें वापस लौटाया जाएगा।

भारत में शरणार्थी

देश में शरणार्थियों को लेकर कोई कानून नहीं रहा है। हाँ, 2011 में भारत शरणार्थी (रिफ्यूजी) दर्जे के लिए आवेदन करने वाले विदेशी नागरिकों के मामलों सुलटाने के लिए भारत ने मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) सामने लेकर आया था। एसओपी में शरणार्थी के दर्जे का दावा करने वाले ऐसे विदेशी को ही दीर्घकालिक वीजा (एलटीवी) जारी करने का प्रावधान है, जो जाँच प्रक्रिया पास कर लेते हैं और जिनका दावा वास्तविक (जेनुइन) पाया जाता है।

भारत शरणार्थियों की स्थिति के बारे में 1951 के संयुक्त राष्ट्र समझौते और 1967 के प्रोटोकॉल का भी सहभागी नहीं है; क्योंकि भारत ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किये थे। यदि रिकॉर्ड देखा जाए, तो भारत में पिछले दशकों में अफगानिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका के अलावा तिब्बती भी पनाह लेते रहे हैं। कोई कानून नहीं होने के बावजूद भारत इन शरणार्थियों को राजनीतिक और प्रशासनिक उपायों के ज़रिये राहत और पुनर्वास देता रहा है। यहाँ तक की उन्हें शरणार्थी का दर्जा भी अमूमन भारत में विदेशियों पर लागू होने वाले घरेलू कानूनों के तहत ही निर्धारित करता रहा है। इनमें मुख्यता विदेशी अधिनियम, विदेशी पंजीकरण अधिनियम, प्रत्यर्पण अधिनियम, पासपोर्ट (भारत में प्रवेश), पासपोर्ट अधिनियम और नागरिकता अधिनियम आदि कानून हैं।

चकमा शरणार्थियों से लेकर श्रीलंकाई तमिल और तिब्बती शरणार्थियों तक भारत में आने वाले शरणार्थियों की एक लम्बी फेहरिस्त रही है। यह दिलचस्प है कि भारत की सरकारें अलग-अलग शरणार्थी समूहों से अलग-अलग व्यवहार करती रही हैं। मसलन श्रीलंकाई तमिल शरणार्थियों, जो तमिलनाडु के अलावा ओडिशा के राहत शिविरों में रहते हैं; को हर महीने नकद राशि, सस्ता राशन, नि:शुल्क कपड़े, वर्तनों के अलावा अंतिम संस्कार और श्राद्धकर्म आदि के लिए अनुदान देती रही है।

उधर, तिब्बती शरणार्थियों के लिए सरकार ने 2014 में तिब्बती पुनर्वास नीति की घोषणा की। सरकार ने देश में तिब्बती शरणार्थियों के सामाजिक कृयाण के लिए केंद्रीय तिब्बती राहत समिति (सीटीआरसी) को 2015-16 से 2019-20 तक पाँच साल की अवधि के लिए 40 करोड़ रुपये का सहायता अनुदान प्रदान करने की योजना को भी मंज़ूरी दी है। ‘तहलका’ संवाददाता द्वारा संकलित जानकारी के मुताबिक, नागरिकता संशोधन कानून के तहत अब पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आये 31,313 गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को भारत की नागरिकता मिलने का रास्ता खुल जाएगा। आईबी की जाँच में यह माना गया है कि यह सभी अपने-अपने देश में धार्मिक प्रताडऩा का शिकार हुए। भारत में इन्हें इसी आधार पर दीर्घकालिक वीजा (एलटीवी) जारी हुआ। इसी साल जनवरी में संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) रिपोर्ट में यह आँकड़ा सामने आया था। यह वे शरणार्थी हैं जिन्हें इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) ने अपनी जाँच में वास्तविक (जेनुइन) आवेदक माना था, अर्थात् वो धार्मिक आधार पर इन देशों में प्रताडऩा के शिकार हुए थे।

वैसे, चूँकि नागरिकता कानून को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है, लिहाज़ा यह अभी साफ नहीं कि कानून सही मायने में कब तक लागू होगा। आईबी की तरफ से इन तीन देशों (पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान) से आये जिन 31,313 गैर मुस्लिम शरणार्थियों के नाम भारतीय नागरिकता के लिए क्लीयर होने की सम्भावना है, उनमें सबसे •यादा 25,447 हिन्दू हैं। इसके अलावा 5807 सिख, 55 ईसाई और 2-2 क्रमश: पारसी और बौद्ध हैं।

मार्च, 2016 में उस समय के गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने संसद में एक सवाल के जवाब में बताया था कि सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक, 31 दिसंबर, 2014 तक पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आये शरणार्थियों की संख्या 1 लाख 16 हजार 85 है। वैसे इस आँकड़े में मुस्लिम और गैर-मुस्लिम शरणार्थियों की अलग-अलग जानकारी नहीं थी। रिजिजू ने बताया था कि 31 दिसंबर, 2014 के स्थिति के अनुसार भारत के अलग-अलग राज्यों में दूसरे देशों से कुल 2,89,394 शरणार्थी हैं। इनमें से 1,16,085 शरणार्थी पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आये थे। यदि इनमें से जेपीसी के 31,313 गैर मुस्लिम शरणार्थियों को घटा दिया जाए, तो ज़ाहिर होता है कि इन तीन देशों से आये इनसे करीब तीन गुना 84,772 शरणार्थी मुस्लिम हैं।

सरकार का पक्ष

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में नागरिकता (संशोधन) विधेयक-2019 पर  इस बिल को लाने को लेकर पूरा पक्ष रखा। शाह ने कहा- ‘यह बिल करोड़ों लोगों को सम्मान के साथ जीने का अवसर प्रदान करेगा। पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आये अल्पसंख्यकों को भी जीने का अधिकार है।’ उन्होंने कहा कि इन तीनों देशों में अल्पसंख्यकों की आबादी में काफी कमी हुई है। वह लोग या तो मार दिए गए, उनका जबरन धर्मांतरण कराया गया या वे शरणार्थी बनकर भारत में आये। तीनों देशों से आये धर्म के आधार पर प्रताडि़त ऐसे लोगों को संरक्षित करना इस बिल का उद्देश्य है, भारत के अल्पसंख्यकों का इस बिल से कोई लेना-देना नहीं है। शाह ने कहा कि इसका उद्देश्य उन लोगों को सम्मानजनक जीवन देना है, जो दशकों से पीडि़त थे ।

शाह ने कहा कि देश का बँटवारा और बँटवारे के बाद की स्थितियों के कारण यह बिल लाना पड़ा। उनका कहना था कि 10 साल तक देश को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया। नरेंद्र मोदी सरकार सिर्फ सरकार चलाने के लिए नहीं आयी है। देश को सुधारने के लिए और देश की समस्याओं का समाधान करने के लिए आया है। शाह ने कहा कि हमारे पास पाँच साल का बहुमत था, हम भी सत्ता का केवल भोग कर सकते थे। किन्तु देश की समस्या को कितने साल तक लटकाकर रखा जाए? समस्याओं को कितना कितना बड़ा किया जाए? उन्होंने विपक्षी सांसदों से कहा कि अपनी आत्मा के साथ संवाद करिए और यह सोचिए कि यदि यह बिल 50 साल पहले आ गया होता, तो समस्या इतनी बड़ी नहीं होती।

शाह का कहना था कि 2019 के घोषणा-पत्र में असंदिग्ध रूप से इस बात की घोषणा की गयी थी और यह इरादा जनता के समक्ष रखा गया था कि पड़ोसी देशों के प्रताडि़त धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए सीएबी लागू करेंगे, जिसका समर्थन जनता ने किया है। गृह मंत्री ने कहा कि देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ यह सबसे बड़ी भूल थी। उन्होंने कहा कि 8 अप्रैल, 1950 को नेहरू-लियाकत समझौता हुआ, जिसे दिल्ली समझौते के नाम से भी जाना जाता है; में यह वादा किया गया था कि दोनों देश अपने-अपने अल्पसंख्यकों के हितों का ध्यान रखेंगे, किंतु पाकिस्तान में इसे अमल में नहीं लाया गया। भारत ने यह वादा निभाया और यहाँ के अल्पसंख्यक सम्मान के साथ देश के सर्वोच्च पदों पर काम करने में सफल हुए, किन्तु तीनों पड़ोसी देशों ने इस वादे को नहीं निभाया और वहाँ के अल्पसंख्यकों को प्रताडि़त किया गया ।

गृह मंत्री ने कहा कि नागरिकता बिल में पहले भी संशोधन हुए और विभिन्न देशों को उस समय की समस्या के आधार पर प्राथमिकता दी गयी और वहां के लोगों को नागरिकता प्रदान की गयी। आज भारत की भूमि-सीमा से जुड़े हुए इन तीन देशों के लघुमती (अल्पसंख्यक) शरण लेने आये हैं, इसलिए इन देशों की समस्या का •िाक्र किया जा रहा है।

शाह का कहना था कि पासपोर्ट, वीजा के बगैर, जो प्रवासी भारत में आये हैं। उन्हें अवैध प्रवासी माना जाता है, किन्तु इस बिल के पास होने के बाद तीनों देशों के अल्पसंख्यकों को अवैध प्रवासी नहीं माना जाएगा। यह बिल भारत के अल्पसंख्यक समुदाय को लक्षित नहीं करता है। धार्मिक उत्पीडऩ के शिकार इन तीनों देशों के लोग रजिस्ट्रेशन कराकर भारत की नागरिकता ले पाएँगे। शाह का कहना था कि 1955 की धारा-5 या तीसरे शेड्यूल की शर्तें पूरी करने के बाद जो शरणार्थी आये हैं, उन्हें उसी तिथि से नागरिकता दी जाएगी; जबसे वह यहाँ आये और इस कानून के लागू होने के बाद उनके ऊपर से घुसपैठिया अवैध नागरिकता के केस स्वत: ही खत्म हो जाएँगे। शाह ने कहा कि अगर इन अल्पसंख्यकों के पासपोर्ट और वीजा समाप्त हो गये हैं, तो भी उन्हें अवैध नहीं माना जाएगा।

असम को लेकर शाह का कहना है कि असम आंदोलन के शहीदों की शहादत बेकार नहीं जाएगी। साल 1985 में राजीव गाँधी ने क्लॉज सिक्स के तहत एक कमेटी बनाने का निर्णय किया था, जो वहाँ के लोगों की भाषा, संस्कृति और सामाजिक पहचान की रक्षा करती; किंतु यह आश्चर्यजनक बात है कि 1985 से लेकर 2014 तक तीन दशक से •यादा समय बीत जाने के बाद भी वह कमेटी ही नहीं बन सकी। उनका कहना था कि 2014 में मोदी सरकार बनने के बाद कमेटी का गठन किया गया। उन्होंने असम  के लोगों से आग्रह किया कि वह समझौते के प्रावधानों को पूरा करने के लिए प्रभावी कदम उठाने के लिए जल्द-से-जल्द अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपे। उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों के लोगों की आशंकाओं को दूर करते हुए गृह मंत्री ने कहा कि क्षेत्र के लोगों की भाषाई, सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को संरक्षित रखा जाएगा और इस विधेयक में संशोधन के रूप में इन राज्यों के लोगों की समस्याओं का समाधान है। पिछले एक महीने से नॉर्थ ईस्ट के विभिन्न हितधारकों के साथ मैराथन विचार-विमर्श के बाद शामिल किया गया है। उन्होंने कहा कि इस मुद्दे को राजनीतिक विचारधाराओं से परे एक मानवतावादी के रूप में देखा जाना चाहिए।

कांग्रेस का पक्ष

नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर संसद में कांग्रेस ने ज़बरदस्त विरोध दिखाया है। राज्यसभा में कांग्रेस सांसद आनंद शर्मा ने कहा कि हमारा विरोध राजनीतिक नहीं, बल्कि संवैधानिक और नैतिक है। यह भारतीय संविधान की नींव पर हमला है। यह भारत की आत्मा पर हमला है। यह संविधान और लोकतंत्र के िखलाफ है।

आनंद शर्मा ने कहा कि इस नागरिकता संशोधन बिल (अब कानून) से पूरे देश में असुरक्षा की भावना भर गयी है। लोगों के मन में आशंका है। अगर ऐसा है, तो क्‍या पूरे भारत में डिटेंशन सेंटर बनेंगे? यह अन्‍याय होगा। कांग्रेस के वरिष्‍ठ नेता ने कहा कि यहाँ पुर्नजन्‍म पर विश्‍वास किया जाता है। उन्‍होंने कहा कि सरदार पटेल अगर मोदी जी से मिलेंगे तो काफी नाराज़ होंगे। गाँधी जी का चश्‍मा सिर्फ विज्ञापन के लिए नहीं है। यह बिल भारत के संविधान की मूल भावना के िखलाफ है। संविधान की प्रस्‍तावना में ही धर्मनिरपेक्षता का •िाक्र है, यह उस मूल भावना के भी िखलाफ है। शर्मा ने महात्‍मा गाँधी का •िाक्र किया और कहा कि उनका कहना था कि मेरा घर ऐसा हो जहाँ कोई दीवार न हो, जहाँ सभी धर्म के अनुयायी हो।

कांग्रेस नेता ने कहा कि सरकार जो संशोधन लेकर आयी है, वो नयी बात नहीं है। नागरिकता पर नौ बार संशोधन हुआ है। लेकिन जो हमारा संविधान है, उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं हुआ। संविधान की आत्मा से कभी छेड़छाड़ नहीं की गयी। किसी भी संशोधन में धर्म को आधार नहीं बनाया गया। इतिहास बड़ा महत्त्व रखता है।  महात्मा गाँधी, सुभाष चंद्र बोस, मौलाना आज़ाद, सब लोग आज़ादी की लड़ाई में शामिल थे। विभाजन की पीड़ा पूरे देश को हुई। साल 1937 में हिन्दू महासभा ने प्रस्ताव पारित किया था। टू नेशन थ्योरी कांग्रेस की थ्योरी नहीं थी। आनंद शर्मा ने कहा कि छह साल अटल बिहारी वाजपेयी भी इस देश के प्रधानमंत्री रहे। नागरिकता पर उनके समय में भी चर्चा हुई थी। स्वामी विवेकानंद ने 9 सितंबर, 1983 को भाषण दिया था कि भारत सदियों से शरण देता रहा है। हिन्सा का शिकार हुए लोगों को हमने शरण दी। हम आपके जनादेश का सम्मान करते हैं। संविधान की शपथ सबने ली है। उस बारे में चर्चा ज़रूरी है। आपने कहा कि हमने सब समाधान कर दिया; लेकिन आपने कुछ नहीं किया। आपने 11 साल से 7 साल कर दिया; लेकिन आपने कुछ नहीं किया। आपने कहा कि एनआरसी पूरे देश में लाएँगे। असम में क्या हुआ? अगर आप अच्छा कर रहे हैं, तो वहाँ के लोगों के मन में डर क्यों है?

भारत की करुणा और भाईचारे के लिए यह ऐतिहासिक दिन है। मुझे खुशी हो रही है कि नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 पास हो गया है। उन सभी सांसदों का धन्यवाद, जिन्होंने वोट दिया।

नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

एनआरसी और सीएए को राज्य में लागू नहीं किया जाएगा। नागरिकता संशोधन विधेयक और एनआरसी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब तक टीएमसी पश्चिम बंगाल में सत्ता में है, इन्हें लागू नहीं होने दिया जाएगा। देश के एक भी नागरिक को शरणार्थी नहीं बनने दिया जाएगा। एनआरसी और सिटिजनशिप बिल को लेकर िफक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं है। हम कभी भी बंगाल में इसकी इजाज़त नहीं देंगे।

ममता बनर्जी, सीएम, प. बंगाल

नागरिकता संशोधन कानून मोदी-शाह सरकार की पूर्वोत्तर को नस्ली तौर पर साफ कर देने की कोशिश है। यह पूर्वोत्तर, उसकी जीवनशैली और भारत के विचार पर आपराधिक हमला है। मैं पूर्वोत्तर के लोगों के साथ एकजुटता से खड़ा हूँ; और उनकी सेवा में तत्पर हूँ। यह कानून संविधान पर भी हमला है। जो कोई भी इसका समर्थन करता है, वो हमारे देश की बुनियाद पर हमला और इसे नष्ट करने का प्रयास कर रहा है।

राहुल गाँधी, कांग्रेस नेता

आज का दिन भारत के संवैधानिक इतिहास में एक काले दिन के तौर पर दर्ज होगा। इस विधेयक के पास होने से भारत की बहुलता पर संकीर्ण और कट्टरपंथी मानसिकता वालों की जीत हुई है। बुनियादी तौर पर यह विधेयक उस विचार के िखलाफ है, जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने लम्बी लड़ाई लड़ी। यह विधेयक एक ऐसे विभाजित भारत का निर्माण करने वाला है, जहाँ धर्म राष्ट्रवाद का निर्धारक बन जाएगा।

सोनिया गाँधी, कांग्रेस अध्यक्ष