हाशिमपुरा कांड न्याय के प्रति आस्था के चलते हुई जीत

यह 1987 में रमजान का शुक्रवार था। एक स्थानीय मस्जिद से हाशिमपुरा के लोग प्रार्थना करके घरों को लौट रहे थे। माहौल में बहुत तनाव था। बाबरी मस्जिद के ताले खुलने के बाद मेरठ में सांप्रदायिक हिंसा हुई थी। वहां कफ्र्यू लगा था और तलाशी अभियान जोरों पर था। यह तलाशी अभियान सेना और पुलिस का संयुक्त अभियान था। सेना और पीएसी ने 22 मई से यह अभियान छेड़ा था। रिपोर्ट थी कि गैर सामाजिक तथ्यों ने कथित तौर पर कांस्टेबुलरी से दो राइफलें लूटी हैं। सेना के एक मेजर के भाई की हत्या हाशिमपुरा के पास की बस्ती में कर दी गई है। उन दिनों हत्या कांड की तरह-तरह की कहानियां फैल रही थीं।

एक कहानी थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कार्यकर्ता की मौत गोली लगने से हुई। ये गोलियां हाशिमपुरा से चली थीं। यह 21 मई की बात थी। यह कहा जा रहा था कि सतीश कौशिक की मेरठ में तब तैनाती थी उसने यह योजना बनाई थी कि निजी नुकसान पर बदले की यह कार्रवाई की जाए। बहरहाल यह सारा कुछ न तो रिकार्ड पर आया और न उसकी भूमिका की पड़ताल ही की गई।

मेरठ के एक वरिष्ठ पत्रकार शवाब रिजवी ने इस घटना की कवरेज की थी। उनका कहना था कि प्रभाव की हत्या और इस हत्याकांड का आपस में कोई लेना-देना नहीं था। पीएसी के लोगों में स्थानीय मुसलमानों को लेकर एक नाराज़गी शुरू से ही थी जब कथित तौर पर उन्होंने पत्थरों और एसिड की बोतलों से उन पर हमला बोला था। वे पकड़ कर उन्हें गाजियाबाद में नहर पर ले गए और उन्हें बिना किसी वजह के मार दिया। इसी कारण यहां एक पूरी बटालियन तैनात की गई थी और वे महसूस कर रहे थे कि यह काफी सुरक्षित हैं। रिजवी ने बताया सबसे ज्य़ादा प्रचलित कथानक है कि इस दिन सेना ने घर-घर तलाशी ली जिसमें छत से छत तक की भी छानबीन और गिरफ्तारी थी फिर उन्हें तंग गलियों से मुख्य गली तक कतार में लाया गया पीपल के एक पेड़ तक। सेना ने इन लोगों को पीएसी के हवाले कर दिया। उसने लड़कों और नौजवानों को छांटा। 42-45 साल के स्वस्थ लोगों को पीले रंग की सी-कंपनी के पीएसी की 41 बटैलियन में भरा गया। उन्हेंअपना सिर नीचे रखने को कहा गया। किसी को भी यह नहीं पता था कि वे कहां ले जाए रहे हैं। सब के मन में यही था कि वे चार किलोमीटर अबदुल्लापुर जेल ले जाए जा रहे होंगे या फिर सबसे करीब की पुलिस चौकी। लेकिन यह तो धोखा ही था। उन्होंने कहा कि कुछ बड़े अधिकारी उनसे बातचीत करना चाहते हैं। हम भी तैयार हो गए जाने के लिए। यह नाम का तलाशी अभियान था। बताया जुल्फिकार नासिर ने जो किसी तरह बच निकला था।

सारे दिन की घटनाओं को फोटोग्राफर प्रवीण जैन ने अपने कैमरे में उतारा था। मुस्लिम लोगों और लड़कों को अपना हाथ ऊपर करा कर हाशिमपुरा की गलियों में सेना के सिपाही परेड करा रहे थे। ये काली-सफेद तस्वीरें अपराधियों को सज़ा दिलवाने का सबूत बनीं। प्रवीण जैन ने बताया कि उन्हें इस बात का कतई अहसास नहीं था कि जो चित्र उन्होंने कैमरे में उतारे वे ऐतिहासिक’ होंगे। मुझे बिल्कुल ही अंदाज न था। उस बस्ती से कोई हथियार नहीं मिला और मुझे लगा कि इन्हें ही गिरफ्तार किया गया है। बाद में छोड़ दिया जाएगा।

जुल्फिकार नासिर तब मुश्किल से 17 साल का रहा होगा। हाशिमपुरा में अपने घर पर सोफा में बैठा हुआ बताता है पिछले तीन दशक की कानूनी लड़ाई के बारे में। जुल्फिकार उन अत्याचारों को झेलने और बच निकलने वाले एक नौजवान थे। उन्होंने आपबीती मीडिया को बताई। उस शाम जब ट्रक दिल्ली के बाहर गाजियाबाद में गंगा नहर के पास पहुंचा तो पीएसी के लोगों ने गाड़ी से लोगों को बाहर निकाला और अपनी .303 राइफिल से उन्हें ढेर कर दिया। जो पहला व्यक्ति मारा गया वह कासिम, फिर अशरफ और जुल्फिकार तीसरा था। वह भी उन तीन की तरह नहर में फेंका गया। उसने मरे होने का अभिनय किया और चमत्कार ही हुआ कि वह झाडिय़ों में खुद को छिपाता हुआ बच गया। बाद में वह दौड़ता हुआ भाग निकला। अंधेरा था और पीएसी के लोगों ने अपनी पहचान छिपाने के लिए हेल्मेट पहन रखे थे। वह रात मेरी सहयोगी रही। सिपाही यह नहीं पता कर पाए कि मुझे गोली कहां लगी, जुल्फिकार ने कहा।

वह बेहद घबराया हुआ था। उसे यह समझ में नहीं आ रहा था कि पीएसी के जवान एक दूसरे से क्या बात कर रहे थे। उस पर गोली चलाते हुए, वे न तो कुछ बोले और न सांप्रदायिक गाली-गलौच की। वे आपस में एक-दूसरे को जल्दी करने और काम खत्म करने को कहते। ट्रक में भी वे आपस में बहुत कम बात करते। जब भी कुछ कहना होता तो फु सफुसाते।

हाशिमपुरा एक जमाने मे बुनकरों का केंद्र था। अलग-अलग प्रदेशों से व्यापारी आकर कपड़े खरीदते। आज ज्य़ादातर वहां दिहाड़ी मज़दूर हैं। छोटे कारीगर हैं या फिर छोटी-मोटी दुकान चला कर आजीविका चलाते हैं। जुल्फिकार उनसे बेहतर है और ट्यूबवेल के स्पेयर पार्टस बेचता है। उस रात कुछ लोगों की जान तो स्थानीय लोगों और बाकी को राज्य पुलिस ने बचाया। पुलिस वालों ने उस्मान को पकड़ लिया था। वे उसे जहर देकर मार देने के लिए धमकाते थे अगर उसने पीएसी का नाम भी लिया।। उस्मान ने घुटने टेक दिए। उसके परिवार को डेढ़ महीने तक उसके बारे में कुछ पता नहीं चला। क्योंकि इलाज के लिए उसे दिल्ली लाया गया था। उसके पांच भाई भी जेल में थे।

यह नृशंस हत्याकांड दो चरणों में हुआ। दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में लिखा है कि पुलिस के लोगों ने गंगा नहर पर गोलियां चलानी तब बंद की जब उन्होंने आती हुई गाडिय़ों की हेडलाइट देखी। ट्रक को हिंडन नहर की ओर मोड़ दिया और पीएसी का एक जवान पीलाधर तो तब घायल हो गया जब एक बुलेट उसे आ लगी। जब पहले तीन लोग मारे गए तो ट्रक में बैठे दूसरे चीखने चिल्लाने लगे। जब उन्होंने ने ट्रक से कूदने की कोशिश की तो जवानों ने उन पर अंधाधुंध फायरिंग की। पीएसी के लोग नीचे उतरे। उन्होंने ट्रक के पिछले हिस्से को खोला और काम पूरा किया। उन्होंने सारे शरीर हिडन नदी में बहा दिए।

लोगों के बिलखते परिवार, विधवाएं, माएं, बच्चे रोते सुबकते रह गए। लेकिन इन परिवारों ने दिमागी संतुलन नहीं खोया। इनमें न्याय के प्रति आस्था बनी रहीं।

साभार- उमर रशीद

द हिंदू’