हलधर बनाम हुकूमत

संगठित किसान आन्दोलन ज़ाहिर करता है कि मोदी सरकार रक्षात्मक है किसानों का आन्दोलन जारी है। केंद्र की मोदी सरकार के लिए यह बड़ा इम्तिहान है। किसान तीनों नये कृषि कानूनों को हर हाल में वापस लेने पर ज़ोर दे रहे हैं; जबकि सरकार इनमें कुछ संशोधनों का प्रस्ताव दे रही है, जिसे किसान खारिज कर चुके हैं। किसान नये कानूनों को कॉर्पोरेट को उन पर हावी करने की चाल बता रहे हैं। यदि सरकार और किसानों के बीच तनाव नहीं घटता है, तो आन्दोलन लम्बा चलते हुए देश के हर हिस्से में फैल सकता है। आन्दोलन में करीब डेढ़ दर्ज़न किसानों की मौत हो चुकी है। किसानों के हक में खिलाड़ी और अन्य प्रमुख नागरिक अपने अवॉर्ड वापस कर रहे हैं। सिंघु बॉर्डर देश और दुनिया के मीडिया के लिए खबरों का सबसे बड़ा केंद्र बन गया है। विदेशों तक में किसान आन्दोलन के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। किसान आन्दोलन, उनकी समस्याओं और अन्य तमाम मुद्दों को रेखांकित करती विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

भारतीय किसान यूनियन के नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने 32 साल पहले किसानों के शुद्ध गैर-राजनीतिक आन्दोलन को ऐसी धार दी थी कि तब की राजीव गाँधी सरकार को उनकी माँगें माननी पड़ीं। तब भी सर्दियाँ थीं; लेकिन वातावरण में किसान आन्दोलन की गर्मी थी। अब फिर वही सर्दी है और राजधानी की सीमाओं पर लाखों किसान आन्दोनरत हैं। तब वोट क्लब आन्दोलन का मुख्य केंद्र था, आज सिंघु बॉर्डर है। 15 किसान काल के गाल में समा चुके हैं। सरकार के तमाम भरोसों के बावजूद किसानों में यह आशंका गहरे से बैठ गयी है कि मोदी सरकार के तीन कृषि सुधार कानून उनके हितों को कॉर्पोरेट के यहाँ गिरवी रखने की कवायद है। निश्चित ही सरकार कटघरे में है; क्योंकि जिस तरह वह लॉकडाउन के दौरान कृषि बिल संसद में लायी और बिना किसान संगठनों को भरोसे में लिये जल्दबाज़ी में यह बिल पास किये, उससे ढेरों आशंकाएँ उठ खड़ी हुई हैं। ऊपर से आन्दोलन पर उतरे किसानों को पाकिस्तान, चीन और खालिस्तान परस्त बताने की सोशल मीडिया की मुहिम को किसानों ने सरकार से जोड़कर देखा और इसने आग में घी का काम किया। सरकार के साथ किसान संगठनों की सात बार से ज़्यादा दौर की बातचीत का नतीजा न निकलने का यह एक बड़ा कारण रहा कि सरकार किसानों में भरोसा नहीं जगा पायी कि वह उनके साथ खड़ी है।

भारत से बाहर विदेशों में भी इस आन्दोलन की गूँज सुनायी देने से केंद्र सरकार की छवि को नुकसान पहुँचा है। सीएएए आन्दोलन के दौरान भी सरकार को यही नुकसान हुआ था; क्योंकि उसकी रुचि आन्दोलनकारियों को समझने से ज़्यादा आन्दोलन को कुचलने में थी। यही किसान आन्दोलन के मामले में भी दिख रहा है। किसान साफ कर चुके हैं कि वो एमएसपी को कानूनी दायरे में लाये बगैर और तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने से कम में बिल्कुल नहीं मानेंगे। सरकार यही नहीं करना चाहती है। सच यह है कि सरकार किसान आन्दोलन की संवेदनशीलता को समझ ही नहीं पायी है; क्योंकि उसके शीर्ष नेतृत्व में कुछ ऐसे लोग हैं, जो यह मानने लगे हैं कि सरकार कुछ भी कर सकती है। उधर भारतीय किसान यूनियन ने कृषि कानूनों के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की है। याचिका में तीनों कृषि कानूनों को चुनौती दी गयी है।

किसानों का यह आन्दोलन इस बात की भी गवाही देता है कि हमारी हुकूमतें देश के अन्नदाता को बहुत हल्के में लेती हैं। साल-दर-साल कर्ज़ के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या के हज़ारों मामले इस बात का संकेत करते हैं कि किसानी पर बहुत ज़्यादा और प्राथमिकता से ध्यान देने की ज़रूरत है। कृषि सुधार के कानून यदि किसान से ज़्यादा कॉर्पोरेट के हित के लिए बनाये जाते हैं, तो किसानों का गुस्सा ऐसे ही सड़कों पर आता रहेगा। यह भी कि देश के खेत-खलिहान को कॉर्पोरेट के हाथों बेच देने की कोशिशें बहुत महँगी साबित होंगी। हलधर इस देश की ताकत रहा है; लेकिन इस ताकत को एक मजबूर वर्ग बना देने की कोशिशें कमोबेश हर सरकार में होती रही हैं।

सिंघू बार्डर पर दिल्ली को घेरकर बैठे किसान आतंकवादी नहीं हैं, यह समझकर ही सरकार किसानों का दिल जीत पायेगी। अन्यथा किसानों का वर्तमान आन्दोलन एक बड़े और सम्भावित देशव्यापी आन्दोलन में तब्दील होने में देर नहीं लगेगी और उसके बाद सरकार के लिए इसे सँभालना और मुश्किल हो सकता है। किसानों का यह आन्दोलन इसलिए भी अद्भुत है, क्योंकि अभी तक यह बहुत शान्तिपूर्ण रहा है और इसे पाकिस्तानी और खालिस्तानी समर्थक आन्दोलन जैसे निन्दनीय विशेषण देने के बावजूद आन्दोलनकारियों ने बहुत सहनशीलता का परिचय दिया है।

किसानों ने मोदी सरकार के तीन कृषि बिलों का विरोध तभी शुरू कर दिया था, जब इन्हें बहुत जल्दबाज़ी में संसद में लाया गया। यह बिल किसानों को रास नहीं आएँगे, मोदी सरकार के प्रबन्धकों को यह तभी समझ जाना चाहिए था, जब एनडीए और भाजपा के सबसे पुराने और विश्वस्त सहयोगी अकाली दल ने मोदी सरकार में अपनी मंत्री हरसिमरत कौर बादल का इस्तीफा करवा दिया और सरकार से बाहर चले गये। अकाली दल को अपने मज़बूत गढ़ पंजाब में इन कृषि कानूनों के कारण इतनी राजनीतिक दिक्कत झेलनी पड़ी है कि वह आज तक किसानों का भरोसा नहीं जीत पायी है। इसके विपरीत उसकी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस में किसानों ने भरोसा दिखाया है।

राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पहले से ही इन विधेयकों के प्रावधानों का सख्त विरोध कर रही थी, जबकि टीएमसी और कई अन्य विपक्षी दल भी इसके खिलाफ मुखर थे। किसान संगठन उसी समय कह रहे थे कि उन्हें भरोसे में लिए बगैर यह कानून लाने की कोशिश उन्हें किसी भी सूरत मंज़ूर नहीं होगी। लेकिन मोदी सरकार ने इसे बहुत हल्के में लिया। किसानों से संवाद की कोई कोशिश नहीं हुई। तभी से यह आरोप लगने शुरू हो गये थे कि सरकार इन बिलों (अब कानून) को लेकर कॉर्पोरेट के दबाव में है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने मंत्रिमण्डल के साथ किसानों के बीच जाकर उनसे मिल चुके हैं। इसके बावजूद किसान आन्दोलन गैर राजनीतिक दिख रहा है, तो इसलिए कि किसान समझ गये हैं कि वे खुद अपने आप में बड़ी ताकत हैं। दर्ज़नों खिलाड़ी और अन्य जाने माने लोग किसानों के हक में अपने पद्मश्री और अन्य राष्ट्रीय अवॉर्ड वापस कर चुके हैं।

किसान आन्दोलन की गहराई को इस एक बात से समझा जा सकता है कि मोदी सरकार के सबसे बड़े संकटमोचक गृह मंत्री अमित शाह भी किसान नेताओं के साथ बैठक में उन्हें मना नहीं पाये या कोई हल नहीं निकाल पाये। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने तो अन्य मंत्रियों और अफसरों की टीम के साथ कई दौर की बैठकें किसानों के साथ कीं; लेकिन कोई हल नहीं निकला। किसानों ने पंजाब से जब दिल्ली की तरफ कूच किया था तभी से भाजपा के राज्य स्तर से राष्ट्रीय स्तर के नेता इस आन्दोलन को बदनाम करने और इसे कांग्रेस का आन्दोलन बताने में जुट गये थे। यह ठीक है कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने पंजाब में किसानों के समर्थन में लगातार तीन दिन ट्रैक्टर यात्रा की; लेकिन कांग्रेस तो पहले से ही खुले रूप से कृषि सुधार कानूनों के प्रावधानों के खिलाफ बोल रही है। जिस तरह दिल्ली की तरफ कूच कर रहे किसानों से हरियाणा में भाजपा की खट्टर सरकार ने निपटने की कोशिश की, उसने सिर्फ किसानों का केंद्र सरकार पर से भरोसा उठाने का ही काम किया। किसान अब लाखों की संख्या में दिल्ली की सीमाओं, खासकर सिंघु बॉर्डर पर जमा हैं और दिल्ली को घेरे हुए हैं।

भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने आन्दोलन को लेकर कहते हैं- ‘सरकार और किसान बैठकों में कोई अन्तिम निर्णय नहीं हो सका; क्योंकि सरकार इन कानूनों में संशोधन करना चाहती है, जबकि हम चाहते हैं कि कानून पूरी तरह से निरस्त हों।’

हाल के वर्षों में कृषि सुधारों के नाम पर प्रयास किसानों की ताकत कमज़ोर करने और कॉर्पोरेट के उन पर हावी होने वाले साबित हुए हैं। इसमें दो-राय नहीं कि साल 1960 में हरित क्रान्ति से लेकर आज तक भारत ने कृषि प्रौद्योगिकी में लगातार विकास किया है। लेकिन एक सच यह भी है कि भारत में लगभग एक-तिहाई से कुछ ज़्यादा  किसानों ने ही उन्नत प्रौद्योगिकी अपनायी है। किसानों का एक बृहद वर्ग कृषि नवाचारों और खेती के आधुनिक तरीकों से अवगत नहीं है, जिससे फसलों की पैदावार और गुणवत्ता में बड़ा परिवर्तन नहीं दिखता है।

भारत आज भी कृषि प्रधान देश है और वर्तमान की ज़रूरत कृषि क्षेत्र में एक बड़ी क्रान्ति की है। इससे ही कम प्राकृतिक संसाधन जैसे पानी, ज़मीन और ऊर्जा के साथ अधिक उत्पादन सम्भव हो सकता है। ज़मीनी हकीकत यह है कि कृषि उत्पादकता में सुधार की गम्भीर और ईमानदार कोशिशें कम ही दिखी हैं। सरकार के तमाम भरोसों के बावजूद कृषि उत्पाद दर हाल के वर्षों में कमज़ोर हुई है। यदि मोदी सरकार के इस साल बजट सत्र में पेश किये गये देश के कृषि दर और आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 को ही आधार मानकर देखा जाए तो एनडीए सरकार के किसानों की आय दोगुनी करने के दावों के विपरीत कृषि विकास दर में गिरावट लगातार जारी है।

सर्वेक्षण के मुताबिक, 2019-20 के माली साल में कृषि विकास दर नीचे गिरकर मात्र 2.8 फीसदी पर आ पहुँची है, जिसे बहुत चिन्ताजनक आँकड़ा माना जाएगा। आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट कहती है कि साल 2016-17 में जो कृषि विकास दर 6.3 फीसदी थी, वह साल 2017-18 में घटकर 5 फीसदी पहुँच गयी। कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक, उसके बाद से हालात लगातार बिगड़े हैं।

वित्त वर्ष 2014-15 में देश के कुल देश के सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) में कृषि का हिस्सा 18.2 फीसदी था, जबकि 2015-16 में ये घटकर 17.7 फीसदी पर आ गया। साल 2016-17 में 17.9 फीसदी, 2017-18 में 17.2 फीसदी और 2018-19 में अब तक का सबसे कम 16.1 फीसदी रहा। अब 2019-20 में कृषि अर्थ-व्यवस्था 3,047,187 करोड़ का होने का अनुमान जताया गया है।

सर्वेक्षण के मुताबिक, साल 2018-19 में कृषि विकास दर सिर्फ 2.9 फीसदी रही और इसमें अनुमान लगाया गया है कि वित्त वर्ष 2019-20 के दौरान भी हालत में कोई फर्क आने की सम्भावना नहीं है और यह इस आँकड़े के आसपास ही रहेगी। एक और चिन्ताजनक पहलू यह है कि भारत की अर्थ-व्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी लगातार घटती जा रही है। सरकारी सर्वे कहता है कि साल 2014-15 के दौरान अर्थ-व्यवस्था (जीवीए) में कृषि और इससे जुड़े क्षेत्रों की जो हिस्सेदारी 18.2 फीसदी थी, वो 2019-20 के माली साल में कमज़ोर होकर 16.5 फीसदी तक आ गयी। सर्वे के मुताबिक, देश के कुल जीवीए में कृषि और सम्बद्ध क्षेत्रों की हिस्सेदारी गैर-कृषि क्षेत्रों के अपेक्षाकृत उच्च विकास प्रदर्शन के कारण घट रही है।

‘तहलका’ का पिछले पाँच साल का आकार का आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट का अध्ययन बताता है कि कमोवेश हर रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार को कृषि में निवेश, जल संरक्षण, बेहतर कृषि पद्धतियों के माध्यम से पैदावार में सुधार, बाजार तक पहुँच, संस्थागत ऋण की उपलब्धता, कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच सम्पर्क बढ़ाना आदि मुद्दों पर तत्काल और मज़बूत ध्यान देने की ज़रूरत है। लेकिन सच यह है कि इन पर गम्भीर मुद्दों से अलग किसानों को कमज़ोर करने की कोशिशें होती रही हैं। मोदी सरकार इस बात पर कायम है कि नये कृषि कानून वक्त की ज़रूरत है। कृषि क्षेत्र में पिछले दो दशक में कई बदलाव आये हैं, जिनमें सरकार से ज़्यादा बाज़ार की ताकतों का रोल रहा है।

इन बदलावों में नयी तकनीक, डाटा और ड्रोन का इस्तेमाल, बीज और खाद की बेहतर क्वालिटी और एग्रो बिजनेस का उदय शामिल हैं और इनमें काफी सकारात्मक हैं। इन बदलावों ने कृषि क्षेत्र में निजी कम्पनियों का दखल बढ़ाया है। सरकारों की कमज़ोरी यह रही है कि वह इन बदलावों के साथ कानूनों को आधुनिक बनाने में नाकाम रही है।

कृषि कानूनों में बदलाव लाने की कोशिश मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान भी हुई थी; लेकिन यह बात बहस तक सीमित रही। बहस करने से यह ज़रूर हुआ कि सरकार को सभी पक्षों की जानकारी मिली; लिहाज़ा उसने इन पर आगे काम नहीं किया। कांग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनाव में भी अपने घोषणा पत्र में भी नये कानून लाने की बात कही थी। हो सकता है कि यदि वह सत्ता में आती, तो उसका तरीका और मसौदा कुछ भिन्न होता। जिस स्तर पर निजी कम्पनियों का दखल कृषि क्षेत्र में बढ़ चुका है, उससे यह तो साफ है कि एक समन्वय बनाने की ज़रूरत रहेगी; लेकिन यह सबसे ज़्यादा ज़रूरी है कि किसानों के हितों की बलि न चढ़े और वे कॉर्पोरेट का चारा मात्र बनकर न रह जाएँ। यही वर्तमान किसान आन्दोलन की भी चिन्ता है।

किसानों की चिन्ता कम्पनियों के हाथों अपने शोषण के बढ़ते खतरे और कमज़ोर होती आय की है। मोदी सरकार अपने तीन कृषि बिलों में किसानों को यही भरोसा नहीं दिला पायी है। कानों लाने से पहले किसान संगठनों चर्चा ज़रूरी थी और यही किया नहीं गया। कृषि क्षेत्र में पहले से उपस्थित निजी कम्पनियों को रेगुलेट करना बहुत ज़रूरी था; लेकिन नये कानूनों में इसकी झलक नहीं मिलती। उलटे निजी कम्पनियों के मज़बूत होने का खतरा पैदा हुआ है।

जाने माने कृषि विशेषज्ञ पी. साईनाथ का कहना है कि केंद्र सरकार ने कोरोना संकट के बीच ऐसे कानून लाकर गलती है और वो माहौल को समझ नहीं पायी है। सरकार को लगा कि अगर वो इस वक्त कानून लाएँगे, तो कोई विरोध नहीं कर सकेगा; लेकिन उसका यह अनुमान गलत था। आज लाखों की संख्या में किसान सड़कों पर हैं। साईनाथ के मुताबिक, एपीएमसी कानून के क्लॉज 18 और 19, कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग एक्ट में दिक्कतें हैं, जो किसानों को किसी भी तरह की सुरक्षा नहीं देती हैं। भारत के संविधान का अनुच्छेद-19 देश के लोगों को अपनी आवाज़ उठाने का अधिकार देता है। लेकिन कृषि कानून के ये विधेयक किसी भी तरह की कानूनी चुनौती देने से रोकते हैं। इसमें सिर्फ यह नहीं कि किसान नहीं कर सकते, बल्कि कोई भी नहीं कर पायेगा।

मोदी सरकार के राज में यह दूसरा मौका है, जब किसान आन्दोलित हुए हैं। सन् 2015 में भी विवादास्पद भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ सरकार के सामने किसानों ने ऐसा ही विरोध दर्ज करवाया था। बाद में सरकार को इसे वापस लेना पड़ा। सन् 2018 में फसलों की बेहतर कीमत और कर्ज़ माफी को लेकर मध्य प्रदेश का मंदसौर किसान आन्दोलन भी बहुत ताकतवर दिखा था। उसमें बड़े पैमाने पर हिंसा भी हुई थी और तब भी मध्य प्रदेश में भाजपा की ही सरकार थी।

आन्दोलन के सूत्रधार नेता

राकेश टिकैत, जोगिंदर सिंह उगराहां, योगेंद्र यादव,  गुरनाम चढूनी, हन्नान मुल्ला, शिवकुमार हक्का, बलबीर सिंह, जगजीत सिंह, रुलदू सिंह मानसा, मंजीत सिंह राय, बुट्टा सिंह बुरूजगिल, हरिंदर सिंह लखोवाल, दर्शन पाल, कुलवंत सिंह संधू, भोग सिंह मानसा आदि।

क्या कह रही सरकार

तीन कानून वापस नहीं होंगे। हाँ, उनमें संशोधन किया जा सकता है। नये कृषि कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था खत्म करने का कोई ज़िक्र नहीं है। एमएसपी पर पहले की तरह खरीद होती रहेगी। कृषि उपज मंडियों को लेकर भी पहले ही साफ कर दिया है कि मंडियों को कोई खतरा नहीं है। मंडियाँ पहले की तरह बनी रहेंगी। अच्छी बात यह होगी कि किसान बिचौलियों के चंगुल से निकल जाएँगे। किसान की मंडी में उपज बेचने की बाध्यता भी खत्म हो चुकी है। किसान जहाँ चाहे, अपनी उपज बेच सकता है।

विदेशों में भी किसान आन्दोलन की धमक

नये कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलन को न सिर्फ देश के अन्य हिस्सों, बल्कि विदेशों से भी समर्थन हासिल हो रहा है। कनाडा, ब्रिटेन के बाद अब संयुक्त राष्ट्र संघ में भी किसान आन्दोलन की चर्चा हुई है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस के प्रवक्ता स्टेफन दुजारिक ने कहा है कि किसानों को शान्तिपूर्वक प्रदर्शन करने का हक है और उन्हें ऐसा करने दिया जाए। दुजारिक ने एक बयान में कहा कि जहाँ तक भारत का सवाल है, तो लोगों को शान्तिपूर्ण प्रदर्शन करने का अधिकार है और उन्हें ऐसा करने दें।

इस मामले में भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा स्पष्ट किया जा चुका है कि किसानों का मुद्दा देश का घरेलू मामला है। कुछ विदेशी नेताओं द्वारा नासमझी और गैर-ज़रूरी बयान दिया जा रहा है, जो एक लोकतांत्रिक देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है और यह भारत को कतई स्वीकार्य नहीं है। भारत ने सख्त चेतावनी देते हुए यह भी कहा है कि यदि यही रवैया जारी रहा, तो भारत और कनाडा के रिश्ते पर भी इसके गम्भीर परिणाम होंगे। यही नहीं, कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने भारत की चेतावनी पर ध्यान न देते हुए जब अपनी बात को दोहराया, तो भारत के विदेश मंत्रालय ने कनाडा के हाई कमिश्नर को इस बाबत तलब किया। उधर ब्रिटेन में भारतीय मूल और पंजाब से सम्बन्ध रखने वाले 36 सांसदों का कहना है कि ब्रिटेन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ यह मुद्दा उठाकर किसानों की समस्या सुलझाने का प्रयास करना चाहिए।

सिंघु बॉर्डर बना आन्दोलन का केंद्र

हरियाणा-दिल्ली सीमा के सिंघु बॉर्डर पर एक तरह से पूरा बड़ा किसान गाँव बस गया है। सिंघु बॉर्डर पर लाखों किसान पूरी ताकत से जुटे हैं। यहीं पंजाब के मानसा से आयीं 80 साल की सरजीत कौर ने कहा कि मोदी सरकार जब तक काले कानून वापस नहीं लेगी, हम यहाँ रहेंगे। हम अपने साथ छ: महीने का राशन-पानी लेकर आये हैं। छोटे बच्चे भी हमारे साथ हैं; क्योंकि हम घरों में ताला लगाकर आये हैं। इस एक बयान से किसान आन्दोलन की ताकत को समझा जा सकता है। कृषि कानूनों के विरोध में अपने घरों में ताले लगाकर किसान ट्रैक्टर-ट्रालियों में अगले छ: महीने का राशन लेकर पहुँचे हैं। किसान साफ कर चुके हैं कि वे तब तक घर वापस नहीं लौटेंगे, जब तक मोदी सरकार इन कानूनों को वापस नहीं ले लेती है।

संसद से पास होने के बाद 23 सितंबर को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के साथ देश में तीन नये कृषि कानून लागू हो गये। इनमें कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून-2020, आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून-2020 और मूल्य आश्वासन पर किसान (संरक्षण और सशक्तिकरण) समझौता और कृषि सेवा कानून शामिल हैं। यह कानून आने के बाद से ही पंजाब में किसान लगातार केंद्र सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। पंजाब सरकार तो मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों को खारिज करके विधानसभा में अपने तीन नये संशोधित कृषि बिल पेश कर चुके हैं। केंद्र सरकार के कानूनों के खिलाफ ऐसा कदम उठाने वाला पंजाब पहला ऐसा राज्य बना।

सितंबर में कुछ समय के लिए आन्दोलन ठंडा होता दिखा था, जब पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने केंद्रीय कानूनों को नकारने के लिए तीन अलग-अलग राज्य कानून पारित किये थे। लेकिन राज्य के कानूनों को भारत के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने स्वीकार नहीं किया, जिसके बाद मामला फिर भड़क गया। जबकि कांग्रेस शासित राज्यों ने इस तरह के प्रस्ताव अपनी विधानसभाओं में लाये हैं। आन्दोलन भड़कने के बाद 13 नवंबर को केंद्र सरकार के साथ किसान संगठनों की बैठक में कृषि कानूनों को लेकर कोई सहमति नहीं बन सकी, जिसके बाद किसानों ने दिल्ली कूच शुरू कर दिया। पंजाब-हरियाणा समेत कई राज्यों से किसान इन कानूनों के खिलाफ अब दिल्ली में विरोध करने के लिए इकट्ठे हैं। उत्तर प्रदेश के किसान भी गन्ने का भुगतान समय पर नहीं होने से आन्दोलनरत हैं।

दिसंबर में एक के बाद एक बैठक होने से भी मसले का हल नहीं निकल सका है। सरकार कह रही है कि इसके कानून किसानों के हक के लिए हैं। लेकिन किसान इस पर भरोसा नहीं कर रहे। मोदी सरकार निश्चित ही किसान आन्दोलन से रक्षात्मक दिख रही है। किसान आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिशों के आरोप भी केंद्र सरकार पर अब किसान नेता खुलकर लगाने लगे हैं। किसान इस बात से बहुत नाराज़ हैं कि नहीं पाकिस्तान, चीन और खालिस्तान समर्थक बताया जा रहा है। उनका कहना है कि सरकार उनका भरोसा हार बैठी है।

सरकार ने इस दौरान काफी सक्रियता दिखायी; लेकिन उसकी सक्रियता का सन्देश यही गया कि वह किसी भी तरह आन्दोलन को खत्म करना चाहती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक कार्यक्रम में इस दौरान यह साफ किया कि उनकी सरकार के कानून किसानों के लिए हैं और इन्हें वापस नहीं लिया जाएगा। मंत्रिमण्डल बैठक भी किसान आन्दोलन पर चर्चा के लिए हुई। सरकार ने 3 दिसंबर से लेकर 7 दिसंबर के बीच किसानों के साथ बैठकों के कई दौर किये। किसानों को समझौते का लिखित प्रस्ताव भी भेजा। लेकिन को सरकार करना चाहती थी, वो किसानों को मंज़ूर नहीं, क्योंकि उनकी माँग तीनों कृषि बिलों को वापस लेने की है। किसानों ने 8 दिसंबर को भारत बन्द भी किया, जिसका देश के अन्य हिस्सों में भी असर दिखा। उनका आन्दोलन अब तेज़ी पकड़ रहा है और किसान भाजपा मंत्रियों के घेराव की घोषणा के साथ यह साफ कर चुके हैं कि वे केंद्र सरकार के साथ दो-दो हाथ करने को तैयार हैं। किसानों ने देश भर में विरोध-प्रदर्शन तेज़ करने की चेतावनी के तहत दिल्ली-जयपुर राजमार्ग को बन्द करना, 12 दिसंबर को सभी टोल प्लाजा पर कब्ज़ा करने और 14 दिसंबर को देशव्यापी विरोध प्रदर्शन का ऐलान कर दिया। किसानों का आरोप है कि एक तरफ मोदी सरकार बातचीत का नाटक कर रही है, दूसरी तरफ अपने सत्ता वाले राज्यों में किसानों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जा रही हैं। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक गतिरोध बना हुआ है। इस बीच नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कान्त ने एक विवादित बयान देते हुए कहा है कि देश में कुछ ज़्यादा ही लोकतंत्र है, जिसके कारण यहाँ कड़े सुधारों को लागू करना कठिन होता है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने इसे लेकर कान्त से कहा कि श्रीमान मोदी के कार्यकाल में सुधार, चोरी के जैसा है। इसलिए वह लोकतंत्र से छुटकारा पाना चाहते हैं।

किसानों के आन्दोलन के बीच दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सिंघु बॉर्डर पर आन्दोलनरत किसानों से मुलाकात की थी और प्रदर्शन को समर्थन का ऐलान किया था। इसके बाद आम आदमी पार्टी ने दिल्‍ली पुलिस पर केजरीवाल को हाउस अरेस्‍ट करने का आरोप लगाया। आम आदमी पार्टी ने अपने ऑफिशियल ट्विटर हैंडल से ट्वीट कर दावा किया कि सीएम से किसी को मुलाकात नहीं करने दी जा रही। इसके बाद विरोधस्वरूप उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया मुख्यमंत्री आवास के सामने धरने पर बैठ गये। सिसोदिया ने कहा- ‘केंद्र सरकार का रवैया उत्पीडऩ वाला है। हम किसानों के साथ हैं। केंद्र कितनी भी कोशिश कर ले हम झुकेंगे नहीं।’

किसानों की माँग के समर्थन में कांग्रेस नेता राहुल गाँधी सहित विपक्ष के कुछ नेता राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से भी मिले। विपक्षी नेताओं ने एक ज्ञापन भी राष्‍ट्रपति को सौंपा, जिसमें कहा गया कि सरकार बिना पर्याप्‍त चर्चा के ये कानून लायी है, लिहाज़ा इन्‍हें वापस लिया जाए। इन नेताओं में राकांपा प्रमुख शरद पवार, माकपा नेता सीताराम येचुरी, भाकपा महासचिव डी. राजा आदि थे।

किसानों पर कर्ज़ और आत्महत्याएँ

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के मुताबिक, कृषि क्षेत्र में आत्महत्याओं का सिलसिला उतार-चढ़ाव के बावजूद जारी रहा है। वैसे किसानों की आत्महत्या के कुछ गिरावट आयी है, लेकिन अभी भी साल भर में 10,000 किसान आत्महत्या कर लेते हैं। गैर-सरकारी आँकड़े इससे कहीं ज़्यादा भयावह हैं। एनसीआरबी के मुताबिक, साल 2016 में 11,379 किसानों ने आत्महत्या की, वहीं  2019 में यह आँकड़ा 10,281 रहा। एनसीआरबी के डाटा के मुताबिक, 2019 के आँकड़ों में कृषि क्षेत्र में 3,900 आत्महत्याओं के साथ महाराष्ट्र सबसे ऊपर है।

2019 के राज्य-वार आँकड़े बताते हैं कि महाराष्ट्र में आत्महत्या करने वाले यह लोग 2,680 (65 फीसदी) कृषक और बाकी खेतिहर मज़ूदर हैं। दूसरे नंबर पर कर्नाटक का आँकड़ा 1,992 पर, जबकि तीसरे पर आंध्र प्रदेश का 1,029 है। चौथे नंबर पर मध्य प्रदेश (541), पाँचवें नंबर पर तेलंगाना (499) और छठे नंबर पंजाब (302) है, जहाँ कृषि क्षेत्र में सर्वाधिक आत्महत्याएँ हुई हैं। पहले की सूचियों में पंजाब का नाम नहीं था। मध्य प्रदेश में 541 कृषि क्षेत्र में हुई आत्महत्याओं में 142 किसान थे। एनसीआरबी के आँकड़े कृषकों और खेतिहर मज़दूरों को अलग-अलग करके दिये जाते हैं। वैसे आँकड़ों के मुताबिक, किसान (भूमि मालिक और पट्टे पर खेती करने वाले किसान) की आत्महत्या में पाँच फीसदी, जबकि कृषि कामों में हाथ बँटाने वाले आत्महत्या मामलों में 15 फीसदी गिरावट दर्ज की गयी है। साल 2015 में किसानों की आत्महत्याओं में 21 फीसदी की गिरावट देखी गयी थी; लेकिन कृषि क्षेत्र से जुड़े मज़दूरों के आत्महत्या मामलों में 10 फीसदी की वृद्धि हुई थी। सन् 2015 की तुलना में वर्ष 2016 में कृषि क्षेत्र में हुई कुल आत्महत्याओं में गिरावट देखी गयी है। किसानों की आत्महत्या के कारणों में फसल की विफलता और कर्ज़ प्रमुख थे। राष्ट्रीय किसान महासंघ भी किसानों को सम्पूर्ण कर्ज़मुक्त करने और सभी फसलों का स्वामीनाथन आयोग सी2+50 फीसदी फॉर्मूले के अनुसार समर्थन मूल्य देने की माँग कर रहा है। संगठन के अलावा भारतीय किसान यूनियन भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कर्ज़ माफी के लिए पत्र लिखा चुकी है। संगठन के प्रवक्ता अभिमन्यु कोहार का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान जहाँ सभी कम्पनियों और सरकारी कर्मचारियों को बैंकों से लिए कर्ज़ भुगतान में छूट दी गयी है, वहीं दूसरी तरफ फसल बेचते समय ही किसानों से बैंकों द्वारा जबरदस्ती कर्ज़ वसूला जा रहा था। आरटीआई के माध्यम से खुलासा हुआ है कि 50 बड़ी कम्पनियों का 68,600 करोड़ बट्टे खाते में डाल दिया गया है। वित्त राज्यमंत्री शिव प्रताप शुक्ल ने संसद में उद्योगपति घरानों का 2.42 लाख करोड़ रुपये एनपीए करने की बात स्वीकार की थी। प्रधानमंत्री इकोनॉमिक एडवाइजरी कॉउन्सिल के चेयरमैन बिबेक देबरॉय के मुताबिक, 2004 के बाद से अब तक उद्योगपति घरानों को 50 लाख करोड़ रुपये की टैक्स में छूट दी जा चुकी है। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, सन 2000 के बाद से किसानों को उचित एमएसपी नहीं मिलने के कारण 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। नेशनल एग्रीकल्चर और रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) ने 2016-17 ने 40.327 ग्रामीण घरों पर एक सर्वे करके रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक, देश में 52 फीसदी किसानों के ऊपर औसत एक लाख रुपये का कर्ज़ है। देश में कुल 14 करोड़ किसान परिवार हैं, और उन पर 2018 तक किसानों पर कुल उधार महज़ 7 लाख करोड़ रुपये है। यहाँ यह भी दिलचस्प है कि कृषि और इसके सहयोगी क्षेत्र 70 फीसदी जनता को रोज़गार मुहैया कराते हैं और कॉर्पोरेट क्षेत्र मात्र 2.3 फीसदी। फिर भी जब किसानों को कर्ज़मुक्त करने की बात आती है, तो हमेशा वित्तीय संकट का हवाला दिया जाता है।

किसानों का डर

किसान कह रहे हैं कि नयी व्यवस्था में मंडी और एमएसपी (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) प्रणाली खत्म कर दी जाएगी और सरकार उनसे गेहूँ और चावल लेना बन्द कर देगी। उन्हें खतरा इस बात से है कि उन्हें अपना माल प्राइवेट कम्पनियों और बड़े कॉर्पोरेट घरानों को बेचना पड़ेगा, जो उनका शोषण कर सकते हैं। किसानों को नये कृषि कानून को लेकर एमएसपी व्यवस्था खत्म होने, मंडियों का समाप्त होने, कृषि क्षेत्र पर उद्योगपतियों के कब्ज़ा होने, कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग से उद्योगपतियों के ज़मीन छीन लेने और बिना मंडी के उपज कौन खरीदेगा जैसे अन्य सवालों को लेकर आशंका बनी हुई है।

किसान वापस नहीं जाएँगे। यह सम्मान का मामला है। क्या सरकार कानूनों को वापस नहीं लेगी? क्या वह निरंकुश हो गयी है? अगर सरकार अडिय़ल है, तो फिर किसान भी।  कानूनों को वापस लेना होगा।

राकेश टिकैत

अध्यक्ष, भारतीय किसान यूनियन

किसान ने इस देश की नींव रखी है और वे दिनभर इस देश के लिए काम करते हैं। ये कानून किसान विरोधी हैं। प्रधानमंत्री ने कहा था कि ये कानून किसानों के हित में हैं। अगर किसानों के हित में हैं, तो फिर किसान सड़कों पर क्यों हैं? इन कानूनों का उद्देश्य हिन्दुस्तान की कृषि व्यवस्था को प्रधानमंत्री के मित्रों के हवाले करने का है। किसान इस बात को बहुत अच्छी तरह से समझ गये हैं। किसानों की शक्ति के सामने कोई नहीं टिक सकता। भाजपा सरकार को गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि किसान डर जाएँगे, पीछे हट जाएँगे। नये कृषि कानूनों के रद्द होने तक किसान न डरेगा और न ही पीछे हटेगा।

 राहुल गाँधी

कांग्रेस नेता

पिछली शताब्दी के कानूनों को लेकर अगली सदी का निर्माण नहीं किया जा सकता; क्योंकि पिछली सदी में उपयोगी रहे कानून अगली शताब्दी के लिए बोझ बन जाते हैं। इसीलिए सुधार की प्रक्रिया लगातार चलनी चाहिए। नये कृषि कानून किसानों के हित में हैं। इन सुधारों से न सिर्फ किसानों के अनेक बन्धन समाप्त हुए हैं, बल्कि उन्हें नये अधिकार भी मिले हैं, नये अवसर भी मिले हैं। इन कृषि सुधारों ने किसानों के लिए नयी सम्भावनाओं के द्वार खोल दिये हैं। वर्षों से किसानों की जो माँगें थीं, जिन को पूरा करने के लिए किसी-न-किसी समय में हर राजनीतिक दल ने उनसे वादा किया था, वो माँगें पूरी हुई हैं। काफी विचार-विमर्श के बाद भारत की संसद ने कृषि सुधारों को कानूनी स्वरूप दिया है। इस कानून में एक और बहुत बड़ी बात है कि इनमें ये प्रावधान किया गया है कि क्षेत्र के एसडीएम को एक महीने के भीतर ही किसान की शिकायत का निपटारा करना होगा।

नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री