हम सब भाई-भाई हैं

एक बहुत पुरानी कहावत है- ‘अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग’, यह कहावत अपने आप में जीवन की वह सच्चाई छिपाये हुए है, जिसे दुनिया भर के करोड़ों लोग देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर एक ही है और यह सभी जानते हैं; लेकिन इतने पर भी उसे बाँटकर ही देखते हैं। हद तो तब हो जाती है, जब लोग उस एक महाशक्ति के अलग-अलग नामों पर इस कदर लड़कर मरने-मारने पर आमादा हो जाते हैं, जैसे कोई दो लोग ज़मीन के किसी टुकड़े के लिए एक-दूसरे के खून का प्यासे हो जाते हैं। चालाक लोग इसी का फायदा उठाते हैं और दोनों तरफ (अलग-अलग मज़हबों) के लोगों को मूर्ख बनाकर उन पर शासन करते हैं।

लेकिन कुछ मानवता के शुभचिन्तक ऐसे भी हैं, जो एकता के हामी होते हैं। ऐसे लोग अपने मज़हब के अनुसार हिसाब से सभी उसूलों का पूरी तरह पालन करते हैं। वे न तो किसी दूसरे के मज़हब पर कीचड़ उछालते हैं और न ही किसी को मज़हबी झगड़ों में उलझाते हैं। ऐसे ही एक सन्त थे- स्वामी विनोदानंद जी। स्वामी विनोदानंद जी हँसमुख, मृदुभाषी और सत्य कहने वाले आर्य समाज से जुड़े सन्त थे। उनकी पूरी गृहस्थी थी, लेकिन तहसील से किसी औहदे से सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने संन्यास ले लिया और आर्य समाज के प्रचारक बनकर गाँव-गाँव जाकर समाज सुधार का काम करने लगे थे। उनके प्रवचन इतने अच्छे और मानवतावादी होते थे कि उन्हें सुनने के लिए हर मज़हब के लोग आया करते थे। वे बिना किसी मज़हब की बुराई किये, बिना किसी को उसके मज़हब से दूर किये उसके मन में बस जाते थे। उनके प्रवचनों का लोगों पर इस कदर असर होने लगा कि सनातनी (हिन्दू) और मुस्लिम दोनों मज़हबों के अनेक लोगों ने मांस खाना, नशा करना तक छोड़ दिया।

ये शायद सन् 1995 या 96 की बात है। स्वामी विनोदानंद एक गाँव में प्रवचन देने पहुँचे। उनके प्रवचन लोगों को इतने अच्छे लगे कि उन्हें सुनने के लिए सभी मज़हबों के लोग आने लगे, धीरे-धीरे दूसरे गाँवों के लोग भी उनके प्रवचन सुनने आने लगे। हाल यह हो गया कि वे जिस मैदान प्रवचन देते थे, वहाँ खड़े होने तक को जगह नहीं बचती। एक दिन उन्होंने यह बात गाँव के लोगों से कही कि किसी बड़ी जगह पर उनके प्रवचन की व्यवस्था हो जाए, तो बहुत अच्छा हो। गाँव के लोगों ने दो ही जगह ऐसी बतायीं, जहाँ पर्याप्त जगह थी। एक मन्दिर का रामलीला मैदान, जो मन्दिर समिति के सुपुर्द था और दूसरी उर्स मेले की जगह, जो मस्जिद समिति के हवाले थी। स्वामी विनोदानंद को तो जगह चाहिए थी, सो उन्होंने गाँव के ही कुछ भले लोगों से मन्दिर या मस्जिद के दायरे में आने वाली दोनों जगहों में से कहीं भी प्रवचन करने की मंशा जता दी। तय हुआ कि कुछ लोग उन्हें लेकर मन्दिर की व्यवस्थापक मण्डली (समिति) के पास जाएँगे। अगले दिन दोपहर के भोजन के बाद स्वामी विनोदानंद गाँव के ही चार-छ: लोगों के साथ मन्दिर में पहुँच गये। सभी ने मन्दिर समिति के सामने स्वामी जी के प्रवचन वाली बात रखी, समिति के सभी सदस्य उत्सुक थे कि मन्दिर के रामलीला मैदान से धर्म का प्रचार-प्रसार होगा। पर मन्दिर के पुजारी, जिन्हें अधिकतर लोग पण्डित जी कहा करते थे; इस योजना से सहमत नहीं थे, सो उन्होंने साफ शब्दों में मनाही कर दी। उनकी दलील थी कि स्वामी जी हिन्दू धर्म के विरोध में बोलते हैं और उनके प्रवचन में मुस्लिम भी आते हैं, जो हिन्दू धर्म के खिलाफ है। स्वामी विनोदानंद जी ने उन लोगों से कुछ नहीं कहा और वहाँ से अपने साथ गये लोगों को लेकर मस्जिद के इमाम के पास पहुँचे। इमाम ने कहा- ‘स्वामी जी! बाकी हमें कोई ऐतराज़ नहीं, लेकिन यह हमारे मज़हब में नहीं है। न ही कुरआन इसकी इजाज़त देता है। मैं अल्लाह की नज़रों में गुनहगार नहीं बनना चाहता, इसलिए मुझे मुआफ कीजिए। दोनों जगहों से खाली हाथ लौटे स्वामी विनोदानंद ने शाम को प्रवचन में लोगों से इस विषय पर चर्चा छेड़ दी। उन्होंने कहा कि आप ही बताएँ, जिन जगहों पर आप सभी ग्रामवासियों का हक उतना ही है, जितना कि मन्दिर के पुजारी और मस्जिद के इमाम का; तो क्या आप लोग वहाँ प्रवचन के लिए उन लोगों से प्रार्थना नहीं कर सकते। सभी गाँव वालों ने एक आवाज़ में उन्हें इसके लिए समर्थन दिया। वहीं यह तय हुआ कि कल दोनों मज़हबों के लोग पण्डित जी और इमाम साहिब को बैठक में बुलाएँगे।

अगले दिन बैठक शुरू हुई। स्वामी जी ने पण्डित जी से पूछा- ‘पण्डित जी! आपको जिस बात से एतराज़ है, वह मैं जानता हूँ। मुझे आपसे कोई शिकायत भी नहीं; लेकिन मैं आपसे दो सवाल पूछूँगा, कृपया जवाब दें।’ उन्होंने पण्डित जी से पूछा- ‘आपकी नज़र में इंसान को किसने बनाया? और उसका धर्म क्या है?’ पण्डित जी बोले- ‘इंसान को ईश्वर ने बनाया और उसका धर्म ईश्वर का भजन करना है।’ स्वामी जी ने पूछा- ‘रामलीला मैदान में जब रामलीला होती है, तो उसी मंच पर आखरी दिन के बाद नाच-गाने का कार्यक्रम होता है। क्या आप इसे ही धर्म मानते हैं?’ इसका पण्डित जी के पास कोई उत्तर नहीं था। इसके बाद स्वामी जी ने मस्जिद के इमाम से पूछा- ‘इमाम साहिब! उर्स के मैदान में आप साल भर खेती करते हैं और उसका अनाज आपके घर में जाता है। क्या अल्लाह या कुरआन इस नेक काम की आपको इजाज़त देता है?’ इमाम साहिब के पास भी इसका कोई उत्तर नहीं था। स्वामी जी ने कहा कि मैं तो ये दोनों ही काम करने के लिए आपसे जगह नहीं माँग रहा हूँ, और न हमेशा के लिए माँग रहा हूँ। मैं लोगों में जागरूकता फैलाने, उन्हें सद्मार्ग पर लाने और उनके जीवन में ऊर्जा भरने का काम करता हूँ। मुझे आपके मज़हबों को बिगड़ाने में आनन्द नहीं आता; मुझे लोगों को सुधारने में परम् आनन्द की अनुभूति होती है। उन्होंने कहा कि ईश्वर तो एक ही है और वह सभी का मालिक है। इस नाते हम सभी भाई-भाई हुए; फिर कैसा भेदभाव? इसके बाद कुछ देर सभी मौन रहे। बाद में पण्डित जी और इमाम साहिब स्वामी जी से गुज़ारिश करने लगे कि वे उनके यहाँ प्रवचन दें और उनके प्रवचन वे लोग भी सुनेंगे।