हम मज़हबों की बात भी नहीं मानते

मानव सभ्यता का विकास सीढ़ी-दर-सीढ़ी और पीढ़ी-दर-पीढ़ी हुआ है। अगर विज्ञान की खोज और इतिहासकारों की बातों पर विश्वास करें, तो पता चलता है कि इंसान शुरू में जंगली था और उसे यह तक नहीं पता था कि वह क्या कर सकता है? धीरे-धीरे उसने सभ्य होना शुरू किया और आज हम आधुनिक युग के एक ऐसे दौर में कदम रख चुके हैं, जहाँ एक उँगली के इशारे पर बहुत कुछ हो सकता है। लेकिन क्या कभी आपने सोचा है कि हमने अपने ही द्वारा बनायी चीज़ों का दुरुपयोग शुरू कर दिया है, जबकि उनके सदुपयोग से इंसानों के साथ-साथ धरती के समस्त प्राणियों का भला हो सकता है। दरअसल, यह हमारे द्वारा किये गये वे निर्माण हैं, जो हमारी उन्नति के लिए हमारे विद्वान पूर्वजों ने किये। इंसान को इंसानियत के रास्ते पर लाने के लिए ऐसा ही एक निर्माण है-धर्र्म-ग्रन्थों के निर्माण का। आज हमने जिस तरह हर ग्रन्थ के आधार पर अलग-अलग मज़हब, यहाँ तक कि हरेक मज़हब में भी अलग-अलग पन्थ यानी रास्ते बना लिए। यानी हमने इन निर्माणों के बुनियादी रहस्यों को समझे बिना, उनकी जड़ों में अहंकार, ईष्र्या, वैमनस्य, मिथ्या, भेदभाव, आडम्बर, ढोंग, अतिरेक, स्वार्थ, तंगदिली, लालच और धर्मांधता का मट्ठा डाल दिया। इसका नतीजा यह निकला कि आज हम जहाँ खड़े हैं, वह न केवल भयावह, बल्कि खतरनाक भी है। आज न केवल हम मज़हबों के नाम पर, बल्कि एक ही मज़हब में अपने-अपने वैचारिक तौर पर ईज़ाद किये हुए पन्थों के नाम पर भी झगड़ रहे हैं। और यह किसी एक मज़हब में नहीं है, बल्कि सभी मज़हबों में है। कितने मूर्ख हैं हम? हम मज़हबों के नाम पर या अपने ही मज़हब में खड़ी की गयी पन्थों की दीवारों के नाम पर इतने संकीर्ण हो जाते हैं कि हम इतना तक भूल जाते हैं कि ईश्वर एक है; प्रकृति एक है; एक ही वातावरण है, जिसमें हम साँस ले रहे हैं और एक ही खून-पानी से हमें ईश्वर सींच रहा है। क्या है यह सब? क्या हम भूल गये कि अन्त में हमें इस दुनिया को छोडक़र एक ही तरह से जाना है। इतना ही नहीं इस दुनिया में हम सब आये भी एक ही तरह से हैं। सोचो अगर ईश्वर ने मज़हब या मज़हबों के हिसाब से हम सबको पैदा किया होता, तो हम सबमें पैदाइश के समय ही अपने-अपने मज़हब के हिसाब का कोई प्रतीक चिह्न या कोई लक्षण तो दिया होता। मज़हबों के हिसाब से हमारा दिमाग तो बाद में विकसित होता है, हमारा तन तो बाद में सजदे में झुकता है, पहले तो हमें यह भी पता नहीं होता कि हम कौन हैं? मज़हबों को अगर ईश्वर ने बनाया होता, तो उनमें इतनी खामियाँ क्यों होतीं? क्यों हम धर्म-गन्थों को लेकर तर्क-वितर्क और यहाँ तक कुतर्क कर पाते? तब क्या मज़हब से विलग होकर चलने वालों को ईश्वर दण्डित नहीं करता? क्या आपको नहीं लगता कि अगर सबका ईश्वर अलग-अलग होता, तो हर मज़हब के मानने वालों के लिए अलग धरती, अलग आसमान, अलग आब-ओ-हवा होती। लेकिन ऐसा नहीं है। हमने ईश्वर को बाँटने के चक्कर में खुद को आपस में बाँट लिया है, जिसके लिए हमने अपना हुलिया और चोला भी तय किया है। कितने पागल हैं हम। एक शे’र जो मैंने तकरीबन 14-15 साल पहले कहा था; यहाँ काफी सटीक बैठता है-

‘तेरे बन्दों ने या खुदा मेरे

तुझको बाँटा है बँट गया हूँ मैं’

मैं यानी इंसान। लोगों ने, जो अपने आपको ईश्वर का भक्त कहते हैं; उसका पुत्र कहते हैं; उसका अंश कहते हैं; ईश्वर को बाँटने के चक्कर में अपने आपको भी ही बाँट लिया है। कितना बड़ा पागलपन है! एक ही हवा में हम साँस लेते हैं। एक ही धरती से पैदा चीज़ों को खा-पीकर जीते हैं। एक ही तरह का सबका खून है। एक ही तरह की सबकी काया है। एक ही तरह सब पैदा होते हैं और एक ही तरह सबको मरना भी है। सबके अन्दर एक ही ईश्वर का अंश है। मगर सब अपने आपको एक-दूसरे से इतना भिन्न मानते हैं, जैसे हम सबका आपस में कोई रिश्ता ही न हो। कहीं हम मज़हब के नाम पर आपस में कटे हुए हैं; कहीं वैचारिक मतभेद से एक-दूसरे से दूरी बनाकर रखते हैं; कहीं पन्थों के नाम पर खुद को एक-दूसरे से बड़ा साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं; कहीं जातियों, यहाँ तक कि उपजातियों के नाम पर एक-दूसरे से ईष्र्या करते हैं; तो कहीं गरीबी-अमीरी हमारे मानवी रिश्तों में दूरियाँ पैदा करने का बहाना है। कभी सोचा है हमने कि कितने नीचे चले गये हैं हम अपने ही मज़हबों से? उन मज़हबों से ही, जो इंसानों से प्यार करना सिखाते हैं। उन मज़हबों से ही, जो सदियों से हमें यह सीख देते आ रहे हैं, कि हम दूसरों को जीने दें, किसी की जान लेने या किसी पर अत्याचार करने का हमें अधिकार नहीं है; ऐसा करने से पाप लगता है। उन मज़हबों की बात हम नहीं मानते, जो कहते हैं कि ईश्वर एक है। उन मज़हबों से हम कट चुके हैं, जो सिखाते हैं कि दूसरे मज़हबों का सम्मान करो। आिखर कहाँ जा रहे हैं हम? क्या हम अपनी पीढिय़ों की ज़िन्दगी नर्क बनाने का काम नहीं कर रहे हैं?

आज हम अपनी ही मान्यता वाले मज़हब की बात नहीं मानते, बस आँखें बन्द करके मज़हब को मानते हैं। कभी नहीं सोचते कि हमने अपने ही मज़हब के कितने दिशा-निर्देशों का सच्चे मन से पालन किया है? कभी नहीं सोचते कि हम अपने ही मज़हबों का कहाँ-कहाँ, किस-किस तरीके से अपमान कर रहे हैं? सोचो, अगर हम दिन भर माता जी-पिता जी, माता जी-पिता जी रटते रहें और उनका कहना नहीं मानें, उनका खयाल नहीं रखें, तो क्या हमारे माता-पिता हमसे कभी खुश रह पाएँगे? इसी तरह हम ईश्वर को तो हर रोज़ कई-कई बार याद करते हैं; उसकी आराधना करते हैं; अपने सुख के लिए अपने मज़हब के हिसाब से उसकी उपासना भी करते हैं; लेकिन ईश्वर के बताये नियमों पर नहीं चलते। क्या इससे हमारा कभी उद्धार होगा? कभी नहीं; क्योंकि गलत रास्ते पर मुड़ गये हैं और आपस में लड़-मर रहे हैं। मशहूर शायर अल्लामा इकबाल साहब ने बिल्कुल सच कहा है-

‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

 हिन्दी हैं, हमवतन हैं, हिन्दोस्ताँ हमारा।’