स्कूल कैंटीन में फास्ट फूड बेचना है जुर्म

स्कूलों से 50 मीटर के दायरे में भी नहीं बिकेंगे कोल्ड ड्रिंक्स, चिप्स, छोले-भटूरे, पिज्जा, बर्गर, पकौड़े, चाउमीन

अर्थ-शास्त्री विवेक देहजिया ने अपने एक लेख में लिखा है कि ‘कोविड-19 की महामारी ने गरीबों, वंचितों और हाशिये के लोगों को बुरी तरह से प्रभावित किया है। कोविड-19 और इसके खिलाफ लड़ाई ने मौज़ूदा आर्थिक और सामाजिक दरारों को गहरा किया है, जिसके और गहरे होने का अंदेशा है। भारत में गरीब व वंचित तबके ने बीमारी की तिहरी मार झेली है।’

ज़ाहिर है दुनिया भर में ऐसे तबकों के बच्चों की संख्या बढ़ेगी और उन पर कुपोषण अपना गहरा असर दिखायेगा, जो पहले से ही एक गम्भीर मुद्दा है। संयुक्त राष्ट्र की पॉलिसी ‘ब्रीफ : द इम्पेक्ट ऑफ कोविड-19 ऑन चिल्ड्रन’ में अनुमान लगाया गया है कि इस महामारी के कारण इस साल अति गरीबी की श्रेणी में 4 करोड़ 20 लाख से 6 करोड़ 60 लाख बच्चे आ सकते हैं। यह संख्या उन बच्चों के अतिरिक्त होगी, जो कि 2019 में पहले से ही इस श्रेणी में हैं।

भारत, जो कि आबादी के लिहाज़ से दुनिया में दूसरे नम्बर पर है, वहाँ कुपोषित बच्चों की संख्या सरकार के लिए खासतौर पर चिन्ता का विषय है। भारत में 35 फीसदी बच्चे नाटे हैं, 17 फीसदी बच्चे कद के अनुपात में पतले हैं व 33 फीसदी का वज़न कम है। मुल्क में कोविड-19 संक्रमण की रोकथाम के मद्देनज़र सरकार ने लॉकडाउन लगा दिया और 14 लाख आँगनबाड़ी केंद्रों को बन्द कर दिया गया।

गौरतलब है कि आँगनबाड़ी केंद्रों से लाभान्वित होने वाले 6 साल से कम आयु के बच्चों की संख्या करीब 8.2 करोड़ है और 1.9 करोड़ गर्भवती महिलाएँ व बच्चों को स्तनपान कराने वाली महिलाएँ लाभ उठाती हैं। मगर महिला व बाल विकास मंत्रालय ने लॉकडाउन में आँगनबाड़ी केंद्र बन्द कर दिये और आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को लाभार्थियों को घर-घर जाकर राशन वितरित करने के आदेश जारी कर दिये। मगर इस टेक होम राशन वाली व्यवस्था का क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं हुआ; ऐसी खबरें सामने आयीं। हाल ही में सर्वोच्च अदालत ने लॉकडाउन के दौरान देश भर में बन्द 14 लाख आँगनबाड़ी केंद्रों को बन्द करने के मुद्दे की जाँच करने पर सहमति जतायी है। दरअसल एक जनहित याचिका में यह दावा किया गया है कि इसके कारण बच्चों में भुखमरी समेत अन्य समस्याएँ उपजी हैं, जिसके बाद सर्वोच्च अदालत ने केंद्र समेत सभी राज्यों को नोटिस जारी किया है। यह याचिका महाराष्ट्र की दीपिका जगतराम साहनी की ओर से दायर की गयी है। गौरतलब है कि महाराष्ट्र कोविड-19 वायरस संक्रमण से बुरी तरह प्रभावित है और लॉकडाउन के दौरान वहाँ से ऐसी खबरें सामने आयीं जो यह बताती भी कि वहाँ लाभार्थी बच्चों व महिलाओं को समय पर राशन मुहैया नहीं कराया गया। आदिवासी इलाकों में यह समस्या विशेष तौर पर बनी रही। आदिवासी इलाकों तक पहुँचना आसान नहीं था और आँगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को टेक होम राशन वितरित करने के लिए आरम्भ में ज़रूरी सुरक्षा उपकरण भी सरकार की ओर से उपलब्ध नहीं कराये गये थे। महाराष्ट्र सरकार पर यह भी सवाल उठे कि जो राशन लाभार्थियों को बाँटा गया, वह पूरा नहीं था। यानी राशन की पोटली में से कुछ खाघ सामग्री मात्रा में कम थी, और कुछ नहीं थी।

ध्यान देने वाली बात यह हैं कि आँगनबाड़ी केंद्र में जब लाभार्थी बच्चा आता है, तो यह सुनिश्चित होता है कि वहाँ मिलने वाला पौष्टिक आहार वही बच्चा खायेगा। और इस पूरक पौष्टिक आहार से वह बच्चा धीरे-धीरे कुपोषण की श्रेणी से बाहर निकल सकता है। आँगनबाड़ी केंद्रों में अधिकतर अति पिछड़े, गरीब व निम्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के बच्चे आते हैं। ऐसे बच्चों के लिए आँगनबाड़ी केंद्रों में मिलने वाला गर्म, ताजा, पौष्टिक आहार ही दिन भर में मिलने वाला सम्भवत: इकलौता विकल्प है। यानी यही आहार उनके शरीरव दिमाग के विकास के लिए आवश्यक पौष्टिक तत्त्वों की पूर्ति करने में अहम भूमिका निभाता है। देश भर में 14 लाख आँगनबाड़ी केंद्र बन्द होने से और टेक होम राशन व्यवस्था के रास्ते में आने वाली बाधाओं के कारण गरीब, वंचित तबकों के बच्चे व महिलाएँ अलग तरह से प्रभावित हुईं। अब देखना यह है कि सर्वोच्च अदालत ने केंद्र व राज्य सरकारों को जो नोटिस जारी किया है, उस पर क्या जवाब सरकार की ओर से अदालत में दिया जाएगा? क्या सरकार असली तथ्य अदालत के सामने रखेगी?

बहरहाल बीते दिनों फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसआई) ने स्कूली बच्चों के स्वास्थ्य को सुधारने की दिशा में एक रेगुलेशन तैयार किया है। इस रेगुलेशन के तहत स्कूल कैंटीन और गेट से 50 मीटर के दायरे में बच्चों को कोल्ड ड्रिंक्स, चिप्स, छोले-भटूरे, पिज्जा, बर्गर, पकौड़े, चाउमीन आदि बेचना अपराध माना जाएगा। इसके उल्लघंन पर फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड एक्ट के तहत ज़ुर्माना या जेल भी हो सकती है। इसके अलावा अब स्कूल कैंटीन चलाने के लिए लाइसेंस भी लेना होगा। यह कदम बच्चों में कुपोषण को दूर करने व उन्हें स्वस्थ बनाने के लिए उठाया जा रहा है; ऐसा सरकार का दावा है। सरकार यह बताना चाहती है कि वह मुल्क में कुपोषित बच्चों की संख्या को लेकर फिक्रमंद है और समय-समय पर ऐसे कदम उठाती रहती है, जिससे कुपोषित बच्चों की संख्या कम हो और वह देश के भविष्य यानी स्वस्थ बच्चों की संख्या में इज़ाफा कर सके। मुल्क में मिड-डे मील कार्यक्रम की शुरुआत के पीछे कई लक्ष्यों में एक यह भी था कि स्कूल आने वाले बच्चों में पूरक आहार के ज़रिये कुपोषण को दूर किया जाए। इस मिड-डे मील कार्यक्रम से सरकारी स्कूलों में बच्चों के नामांकन में वृद्धि हुई, सरकार ने काफी प्रंशसा भी बटोरी मगर इस कार्यक्रम के तहत बच्चों को मिलने वाले भोजन की गुणवत्ता पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं। इस स्कीम से लाभान्वित होने वाले करोड़ों बच्चों में से कितनों को लॉकडाडन के दौरान भोजन मिला? इसका सही जवाब किसके पास है? यही नहीं, मुल्क में स्कूल बीते छ: महीने से बन्द हैं; बेशक कई राज्यों ने हाल में प्रयोग के तौर पर कड़ी दिशा-निर्देश के साथ स्कूल खोले हैं और बहुत ही कम बच्चे स्कूल आ रहे हैं।

दरअसल बच्चों का नाटापन, बच्चों का वज़न कद के अनुपात में कम होना, उनका मोटा होना, कुपोषण के कारण होता है। सन् 2012 में वल्र्ड हेल्थ अंसबेली ने मातृ, नवजात व छोटे बच्चों के पोषण के लिए समग्र प्लान को लागू करने सम्बन्धी एक रेजुलेशन को अनुमोदित किया, जिसने 2025 तक 6 वैश्विक पोषण सम्बन्धी लक्ष्यों को हासिल करने पर सहमति बनी और इन 6 लक्ष्यों में कद के अनुपात में कम वज़न वाले बच्चों को कुपोषण को झेलने वाले बच्चों की तादाद कम करके 5 फीसदी से नीचे लाना और उस स्तर को बनाये रखना है। मगर मौज़ूदा महामारी ने तो इन लक्ष्यों को हासिल करने की राह में कई बाधाएँ खड़ी कर दी हैं। संयुक्त राष्ट्र एंजेसियों ने आगाह किया है कि केवल ऐसे बच्चों की ही संख्या में इज़ाफा नहीं होगा, बल्कि बच्चों और महिलाओं में अन्य प्रकार के भी कुपोषण बढ़ेंगे। इसमें नाटापन, सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी, वज़न का अधिक होना व मोटापा भी शामिल है। इसके पीछे खराब खुराक व पोषण सम्बन्धी सेवाओं का बाधित होना भी शामिल है। ब्रिटिश सरकार ने लोगों को स्वस्थ रखने के लिए एक पहल की है। नयी रणनीति के तहत खाद्य स्टोर्स के प्रवेश द्वार व चेकप्वांइट पर मीठे व वसा बढ़ाने वाले खाद्य पदार्थ रखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। जीवनशैली बेहतर बनाने के लिए अधिक मोबाइल एप्प लॉन्च किये जाएँगे, कुपोषण की एक वजह असंतुलित आहार भी है।

कई अध्ययन इस ओर इशारा करते हैं कि भारत में लोगों में पोषक तत्त्वों व प्रोटीन को लेकर जागरूकता की कमी है। नील्सन ने हाल ही में भारत के 16 शहरों में 2,142 माताओं का सर्वे किया था। इस सर्वे में हिस्सा लेने वाली 85 फीसदी माताओं का मानना है कि प्रोटीन से वज़न बढ़ता है। 10-15 साल के 45 फीसदी बच्चों में प्रोटीन की कमी है। भारत में गत साल जारी समग्र राष्ट्रीय पोषण सर्वे बताता है कि बाल्यावस्था में अधिक वज़न और मोटोपे में भी वृद्धि शुरू हो जाती है, जिसकी वजह से असंक्रामक रोगों का खतरा बढऩे लगता है। जैसे कि स्कूल जाने की आयु वाले बच्चों व किशोरों में मधुमेह का खतरा। भारत में भोजन खपत सम्बन्धी रुझानों से पता चलता है कि बाल खुराक में प्रोटीन की बहुत कमी है और सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की भी बहुत कमी है। और बाल खुराक पर परिवार यानी व्यस्क सदस्यों का प्रभाव रहता है। कई दशकों से आय में वृद्धि होने के बावजूद प्रोटीन आधारित कैलोरी कम ही है और यह बदली भी नहीं है। फलों व सब्ज़ियों में भी कैलोरी कम ही है। अब जब कि कोविड-19 महामारी ने विश्व अर्थ-व्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया है। ऐसे में गरीब लोग और गरीब हुए हैं व निम्न व मध्य आय वर्ग की जेब भी खाली हुई है, तो इसका असर उनकी खुराक यानी भोजन की गुणवत्ता पर भी पडऩे लगा है।

महामारी तो अपना असर दिखा ही रही है; लेकिन यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है कि गरीबी, शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और भोजन सम्बन्धी खराब चयन अस्वस्थकारी आहार की ओर ले जा रहे हैं। विश्व भर में पाँच साल से कम आयु वाले बच्चों में तीन में से एक बच्चा कुपोषित है। दो साल से कम आयु वर्ग वाले बच्चों में भी हर दो में से एक बच्चा खराब खुराक पर जीवित है। यूनिसेफ ने बच्चों, भोजन और पोषण पर जारी एक रिपोर्ट में आगाह किया है कि घटिया आहार के नतीजे भुगतने वाले बच्चों की संख्या चिन्ताजनक है। और भोजन प्रणाली की मार उन पर पड़ रही है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि पाँच साल से कम आयु के तीन में से एक बच्चा अर्थात् 200 मिलियन बच्चे या तो कुपोषित हैं या उनका वज़न अधिक है। छ: माह और दो साल की आयु के बीच बच्चों में से तकरीबन तीन में से दो बच्चों को भोजन नहीं खिलाया जा रहा है, जो उनके शरीर व दिमाग को तेज़ी से विकसित करने में सहायक हो। इससे उनके दिमाग के पर्याप्त रूप से विकसित नहीं होने, सीखने में कमज़ोर रहने, कमज़ोर रोग प्रतिरोधक क्षमता, संक्रमण के बढऩे का खतरा और बहुत-से मामलों में मरने का खतरा बना रहता है। लाखों बच्चे अस्वथकारी आहार पर निर्भर हैं; क्योंकि उनके पास बेहतर विकल्प उपलब्ध नहीं है। 149 मिलियन बच्चे नाटे हैं। 340 मिलियन बच्चों में ज़रूरी विटामिन और पोषक तत्त्वों, जैसे कि विटामिन-ए और आयरन की कमी है। 40 मिलियन बच्चों का वज़न अधिक है, मोटे हैं। यूनिसेफ की रिपोर्ट आगाह करती है कि भोजन सम्बन्धी और खिलाने की खराब प्रथाओं की शुरुआत बच्चे की ज़िन्दगी के आरम्भिक दिनों से ही हो जाती है। जैसे ही बच्चे छ: महीने के आसपास की आयु में नरम या ठोस आहार लेना शुरू करते हैं। इनमें अधिकांश को गलत िकस्म का आहार देना शुरू कर दिया जाता है। दुनिया में छ: महीने से लेकर दो साल तक की आयु वर्ग के बच्चों में से करीब 45 फीसदी बच्चों को कभी फल या सब्ज़ियाँ नहीं खिलायी गयींं। तकरीबन 60 फीसदी बच्चे अंडे, डेयरी उत्पाद, मछली या मीट नहीं खाते हैं।

भारत में भी छ: से 23 माह के केवल 42 फीसदी बच्चों को ही प्राप्त खुराक बार-बार दी जाती है। और महज़ 25 फीसदी को ही प्राप्त रूप से विविध आहार बार-बार खिलाया जाता है। छ: से आठ माह के 53 फीसदी शिशुओं को ही वास्तविक समय पर पूरक आहार देना शुरू किया गया। जैसे ही बच्चे बड़े होते हैं, उनका अस्वस्थकारी भोजन से सामना शुरू हो जाता है। स्वास्थ्य के लिए अहितकारी खाद्य पदार्थों के विज्ञापन, मार्केटिंग, केवल महानगर व नगर ही नहीं, बल्कि गाँवों व दूर-दराज़ के इलाकों में तक उनकी उपलब्धता इसकी एक प्रमुख वजह है। यहाँ उच्च प्रसस्करण खाद्य सामग्री, फास्ट फूड, अधिक मीठे पेय पदार्थ सब मिल जाते हैं। निम्न व मध्य आय वाले देशों में स्कूल जाने वाले किशारों में 42 फीसदी किशोर सप्ताह में कम-से-कम एक बार कार्बोनेटेड मीठा सॉफ्ट ड्रिंक (पेय) पीते हैं। और 46 फीसदी सप्ताह में कम-से-कम एक बार फास्ट फूड खाते हैं। उच्च आय वाले मुल्कों में यह दर क्रमश: 62 फीसदी और 49 फीसदी है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि बचपन व किशोरावस्था में अधिक वज़न व मोटोपे का स्तर बढ़ रहा है। 2000 से 2016 के बीच पाँच से 19 आयु वर्ग के बच्चों में अधिक वज़न का अनुपात दोगुना हो गया है। यह संख्या 10 में से एक बच्चे से बढ़कर पाँच में से एक बच्चे तक पहुँच गयी है। दुनिया भर के आँकड़े बताते हैं कि सभी प्रकार के कुपोषण का सबसे अधिक बोझ सबसे गरीब, हाशिये पर रहने वाले बच्चों की ज़िन्दगी पर पड़ता है। सबसे गरीब घरों में 6 माह से लेकर 2 साल तक की आयु वाले बच्चों में से 5 में से एक बच्चा ही स्वस्थ वृद्धि के लिए प्राप्त विविध आहार लेता है।