स्ंगीत ईश्वर की साधना है

स्ंगीत शिरोमणि, पद्मभूषण पंडित छन्नू लाल मिश्र ठुमरी के प्रतिष्ठित गायक हैं। वे किराना घराने और बनारस गायकी के मुख्य गायक हैं। उन्हें खयाल, ठुमरी, भजन, दादरा, कजरी, चैती गायन में महारत हासिल है। इनसे बनारस और संगीत के बारे में बातचीत की एम.जोशी हिमानी ने। प्रस्तुत हैं उस बातचीत के कुछ अंश।

पंडित जी बनारस का संगीत से क्या संबंध है?

बनारस का संगीत से सब प्रकार का संबंध है। काशी भगवान शंकर की नगरी है और भगवान शंकर ने ही संगीत की रचना की। शिव ने काशी के जिस मूल संगीत की रचना की थी उसे पहचानना ज़रूरी है तभी काशी के संगीत की सनातन परम्परा कायम रहेगी।

बनारस के संगीत की क्या विशेषताएं हैं?

पूर्व में बनारस में हर प्रकार का संगीत था। अध्यात्म के साथ यह संगीत की भी नगरी थी। विश्व भर से लोग यहां संगीत सीखने आते थे। बनारस का टप्पा, ठुमरी, दादरा, चैती, खयाल, कजरी और होली का जादू दुनिया भर में फैला था। परंतु अब ऐसे संगीत साधक बहुत कम रह गए हैं। पहले ठुमरी बहुत गाई जाती थी। दस प्रकार की ठुमरियां गाई जाती थीं, सबका भाव और गाने का तरीका अलग-अलग था।16,15,14,12 मात्रा में ठुमरियां गाई जाती थी अब सबका लोप हो गया है।

अपने बारे में और अपनी कला साधना के बारे में कुछ बताएं?

15 अगस्त 1936 को हरिहरपुर (आजमगढ़) में मेरा जन्म हुआ। मेरे प्रथम गुरु मेरे पिताजी पं. बद्री महाराज रहे जो मशहूर तबला वादक और संगीतज्ञ थे। पांच साल की उम्र से ही पिताजी मुझे भोर में चार बजे उठाकर हरमोनियम पर रियाज कराते थे। वे कहते थे संगीत सीखने के लिए तपस्या ज़रूरी है।

हमने बचपन में बहुत गरीबी देखी है, हमारे पास दाल खरीदने के पैसे नहीं होते थे। हम रोटी और इमली की चटनी खाकर रियाज किया करते थे। जब इमली खरीदने के पैसे खत्म हो जाते थे तो खेतों से चकवड़ का साग लाकर भी हमने गुजारा किया लेकिन संगीत साधना में रुकावट नहीं आने दी। मेरे तीन गुरु थे- आध्यात्मिक गुरु मौनी बाबा, खयाल के गुरु कैराना घराने के अब्दुल गनी खां और शास्त्र के गुरु जयदेव सिंह जी।

आपका जन्म एक संगीतज्ञ परिवार में हुआ था अपने पूर्वजों को आप किस तरह याद करते हैं?

हमारे परदादा प. जगदीप महाराज जी ठुमरी के बहुत बड़े गायक थे। वे हरिहरपुर आजमगढ़ में रहते थे। जब वे बनारस आए तो यहां के लोगों ने उनके गायन से प्रभावित होकर उन्हें यहीं रोक लिया। उनके जैसी अनूठी बंदिशें अब कहाँ? उन दिनों लखनऊ के ठुमरी गायक मौजुद्दीन खाँ साहब को जब हमारे परदादा के बारे में पता चला तो उन्होंने बनारस आकर हमारे परदादा से गंडा बंधवा कर बनारस घराने का ठुमरी गायन सीखा। मेरी माता जी एक गृहणी और आध्यात्मिक महिला थी। उन्होंने मुझे सुंदरकांड का पाठ करना सिखाया। सुुंदरकंाड को मैंने 11 रागों तथा 12 पारंपरिक धुनों में गाया। 11वे रूद्र हनुमान जी तथा 12 कलाओं में सम्पन्न सूर्य जिसमें भगवान राम का जन्म हुआ था उनको प्रणाम किया है मंैने इस पद्धति के गायन से।

आपने अपने पूर्वजों की धरोहर को कठिन तपस्या तथा साधना से बचा कर रखा है क्या आपने इसे आगे भी संजोकर रखने के लिए नई पीढ़ी तैयार की है?

हां, मेरी पुत्री नम्रता, पुत्र रामकुमार मिश्र, पोता राहुल मेरी धरोहर को आगे बढ़ा रहे हैं। वे इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं। ये सब बनारस घराने के हिसाब से बजाते हैं और हमारी परम्परा को आगे बढ़ा रहे हैं।

बनारस आपको क्यों प्रिय है?

बनारस मुझ में रचा-बसा है और मैं बनारस में रचा बसा हूं। बहुत से कलाकार बनारस छोड़ कर चले गए लेकिन हम काशी कभी न छोड़ेगें:-

‘चना चबेना गंग जल, जो पुरवे करतार।

काशी कभी न छोडिये, विश्वनाथ दरबार।।

 मैं 45 साल से बनारस में रह रहा हूं।

जीवन के हर क्षेत्र को आधुनिकता की आंधी ने प्रभावित किया है। क्या बनारस का संगीत इससे अछूता रहा है?

आज संगीत को भी लोगों ने धनोपार्जन का जरिया बना लिया है। फ्यूजन के सहारे लोग गा-बजा रहे हैं। फ्यूजन को मैं कन्फ्यूजन मानता हूं। इससे जीवन चलाया जा सकता हैं परंतु यह संगीत आत्मिक संतुष्टि और आध्यात्मिक ऊर्जा नहीं दे सकता हैं। आज गीतों में शब्दों का अपभ्रंश हो रहा है-‘झूठ बोले कौव्वा काटे’ ‘सरकाये लेव खटिया’ जैसे फूहड़ गानों ने संगीत का सत्यानाश किया है।

संगीत की आत्मा को छूने के लिए शास्त्रों का अध्ययन बहुत आवश्यक है। नए साधकों को इस ओर ध्यान देना चाहिए।

बनारस हमेशा बनारस बना रहे, इसके लिए क्या किया जाना चाहिए?

बनारस, यानी जो रस से बना है। इसके रस और मिठास को कभी नहीं भूलना चाहिए। भगवान शिव ने काशी को रचा है। काशी,बनारस और वाराणसी इसके तीन नाम हैं। वरुणा से अस्सी तक इसका विस्तार है और इसका महत्व क्या है- जहां का रस कभी बिगड़ता नहीं है , हमेशा बना रहता है। उसका नाम बनारस है। अगर उस रस को भूल गए तो बनारसी कहां रहा? यहां के संगीत में ऐसी मिठास है कि लोग खिंचे चले आए। अगर कर्कश हो गया तो बनारस का संगीत नहीं है। यह विश्व का प्राचीनतम शहर है । इस शहर की हर बात निराली है। यह मात्र एक शहर नहीं अपितु हमारे देश की सभ्यता, संस्कृति, आस्था, शिक्षा , ज्योतिष, शास्त्र, संगीत की पुरातन धरोहर का शहर है। इसकी मर्यादाओं को सभी को सदैव याद रखना चाहिए। इस शहर का फक्कड़पन और जिंदादिली जब तक रहेगी तब तक बनारस, बनारस रहेगा।

 नई पीढ़ी के लिए कोई संदेश देना चाहेंगे?

 नए साधक संगीत साधना को तपस्या के रुप में अपनाएं। मिठास का ध्यान रखें, बनारस के रस का ध्यान रखें। स्वर और लय की साधना करें अपने संगीत में विविधता लाने के लिए। यह सरस्वती माँ के आशीर्वाद से ही हो सकता है। जब तक आध्यात्म का अध्ययन नहीं करेंगे संगीत का रस नहीं समझेंगे। यह विद्या शार्टकट से प्राप्त नहीं की जा सकती है। संगीत का कनेक्शन सीधे ईश्वर से है। अध्यात्मिक संगीत ही भव सागर से पार लगाने वाला है। यह ईश्वर प्राप्ति का सुगम साधन है। संगीत को समझने के लिए शास्त्रों का अध्ययन तथा आध्यात्मिक चेतना का होना आवश्यक है। उन्हें लय और स्वर का निरन्तर अभ्यास करना चाहिए। संगीत का मुख्य लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति है। आज की पीढ़ी सिर्फ पैसे के पीछे न भागे।

काशी को मोक्ष की नगरी कहते हैं? आप मोक्ष की कामना करते हैं अथवा दोबारा काशी की धरती में आकर संगीत साधना करना चाहेंगे?

शास्त्रों में लिखा है कि चार प्रकार से मोक्ष प्राप्ति हो सकती है – नाम, रूप, लीला, धाम लेकिन कब? अगर गूंगा है तब वह नाम नहीं ले सकता, तो रूप देखे पर मन फिर भी राम के नाम का मनन करे। अगर आंख भी मुंद जाए तो लीला सुने और जब कान भी बंद हो जाए तो धाम में जाके बैठ जाए पर मन में राम नाम हमेशा चलता रहे-

जग में सब काम झूठ, राम नाम सत्य है।

आवागमन का चक्कर बड़ा कष्टदायी होता है मैं मोक्ष की कामना करता हूं बाकी ईश्वर के हाथ में है वह क्या करेगा।

आपको विभिन्न सरकारों तथा राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने विभिन्न पुरस्कारों से नवाजा है। पुरस्कारों को आप किस रूप में लेते हैं?

पुरस्कार प्राप्ति को मैं अपना नहीं अपने गुरुओं के सम्मान के रूप में लेता हूं। इसे मैं उनका आशीर्वाद मानता हूं।

पंडित जी यदि आप संगीत के क्षेत्र में न आते तो जीवन में क्या कर रहे होते?

तब मैं रिक्शा चला रहा होता, पेट के लिए कुछ तो करना पड़ता। मैं संगीत के अलावा और कुछ नहीं कर सकता था। संगीत ही मेरा जीवन था और है।