सेंगोल की राजनीति और विपक्षी ध्रुवीकरण

PM bows as a mark of respect before the ‘Sengol’ during the ceremony to mark the beginning of the inauguration of the new Parliament building, in New Delhi on May 28, 2023.

मध्यावधि चुनाव, पाक अधिकृत कश्मीर पर हमला करके उसे अपने साथ मिलाना, संसद की सीटों का परिसीमन कर हिन्दी पट्टी में ज़्यादा सीटों को बढ़ाना जैसी कुछ बड़ी संभावनाएँ हैं, जो देश में चुनाव पर नज़र रखने वाले लोगों के बीच चर्चा है कि भाजपा कर सकती है। संसद के नये भवन को जिस तरह सरकार (भाजपा, एनडीए) ने देश की अस्मिता से जोडऩे और सेंगोल की स्थापना के ज़रिये दक्षिण के राज्य तमिलनाड को साधने की कोशिश की, उससे कई कयास लग रहे हैं।

इन्हीं कयासों के बीच कांग्रेस (यूपीए) और विपक्ष के अन्य दल, जिनमें ज़्यादातर क्षेत्रीय हैं; एक-दूसरे की ढाल बनकर 2024 के आम चुनाव में अपनी जीत की तस्वीर देख रहे हैं। हालाँकि यह क्षेत्रीय दल इस बात से भी भयभीत हैं कि कांग्रेस कहीं राज्यों में उनके वोट बैंक को वापस अपने पाले में न कर ले। लेकिन एक बात साफ़ है कि इस समय भाजपा और विपक्षी दलों के बीच गहरी खाई बन गयी है, जो संसद के नये भवन के उद्घाटन में उनके साझे बायकॉट से ज़ाहिर होती है। क्या यह विरोध 2024 के चुनाव में विपक्षी एकता के रूप में भी सामने आएगा, अभी कहना मुश्किल है।

भाजपा को भय है कि वह आने वाले आम चुनाव में 2019 जैसा प्रदर्शन नहीं कर पाएगी। उसे डर है कि यदि इन 10 महीनों में वह कुछ बड़ा नहीं करती है, तो उसे बड़े बहुमत से हाथ धोना पड़ सकता है। ऐसे में क्या वह समय से पहले लोकसभा के चुनाव करवा सकती है? इस सम्भावना को पूरी तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता। इस साल के आख़िर (नवंबर-दिसंबर) में हिन्दी पट्टी के तीन बड़े राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विधानसभा के चुनाव होने हैं और माहौल बनाने के लिए भाजपा उस समय लोकसभा चुनाव भी साथ करवा सकती है। इन तीन राज्यों में भाजपा में 2019 में एक सीट को छोडक़र बाक़ी सभी सीटें जीती थीं।

संसद के नये भवन के उद्घाटन का दृश्य याद करिये। सेंगोल स्थापित करने के बाद उसके सामने प्रधानमंत्री मोदी दंडवत होते हैं। राजनीतिक रूप से निशाने पर था दक्षिण का तमिलनाडु, जहाँ भाजपा अपनी ज़मीन बनाने को उतावली है। दक्षिण के दो राज्यों के बड़े नेता पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी इस कार्यक्रम में पहली पंक्ति में विराजमान थे।

जगन मोहन रेड्डी भले बीच के रास्ते में चल रहे हों, उनकी बहन वाई.एस. शर्मिला इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में तेलंगाना में अपनी वाईएसआर तेलंगाना पार्टी के साथ कांग्रेस के समझौते की तैयारी कर रही हैं। हाल में बधाई देने के बहाने वह पारिवारिक मित्र और कर्नाटक के उप मुख्यमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डी.के. शिवकुमार से बेंगलूरु में मिली हैं। शर्मिला राजनीतिक रूप से अपने भाई से अलग हो चुकी हैं और राजनीतिक माँ विजयम्मा शर्मीला के साथ हैं।

कांग्रेस की स्थिति

कांग्रेस फ़िलहाल ख़ुद को मज़बूत करने और 2024 के आम चुनाव से पहले ज़्यादा राज्य अपने पाले में करने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है। कर्नाटक चुनाव जीतने से पहले उसने चुनाव से बाहर सबसे बड़ी लड़ाई राजस्थान में जीती है, जहाँ मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री रहे सचिन पॉयलट के बीच सुलह करवाने में वह सफल रही है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि अशोक गहलोत के तेवरों के बावजूद कर्नाटक की जीत के बाद आलाकमान ने राजस्थान के मामले में अपनी अथॉरिटी का इस्तेमाल किया है और स$ख्ती और कूटनीति दोनों का सहारा लेते हुए गहलोत और पायलट को शान्त करने में सफल रही है।

कांग्रेस अभी अपनी ज़मीन मज़बूत करने में जुटी है। उसे पता है कि 2024 से पहले यदि वह और राज्य जीतती है और सहयोगी दलों वाले राज्यों में सम्मानजनक प्रदर्शन करती है, तो विपक्ष के कुछ दल उसके पीछे जुटने लगेंगे। उनकी मजबूरी होगी कि वह कांग्रेस को नेतृत्व के लिए आगे करें। इससे उसे बड़े चुनाव में सीटों के मोलभाव में भी राज्यों में कुछ हद तक मदद मिलेगी। कांग्रेस का लक्ष्य 2024 के शुरू में ख़ुद को 300-350 के बीच सीटों पर लड़ सकने वाली पार्टी बनाने का है। इसके लिए राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा की तर्ज पर राज्यवार पदयात्राएँ करने की योजना है। प्रियंका इसकी शुरुआत तेलंगाना से कर सकती हैं। दक्षिण में भाई-बहन की यह जोड़ी कांग्रेस के लिए पुराने वोट बैंक का रास्ता खोल सकती है। कर्नाटक में उनके प्रचार के दौरान जनता में उनके प्रति इंदिरा गाँधी के समय वाली झलक दिखी थी। अब कांग्रेस का लक्ष्य देश में पुराने वोट बैंक को पुनर्जीवित करने का है। कर्नाटक से उसे रास्ता मिला है। उसे मालूम है कि यदि वह ऐसा कर पाती है, तो आश्चर्यजनक नतीजे निकल सकते हैं। लेकिन यह रास्ता उतना आसान नहीं है। कांग्रेस के पुराने वोट बैंक के सहारे ही क्षेत्रीय दल आज राज्यों में सत्ता में हैं और का$फी हद तक भाजपा ने भी इसमें सेंध लगायी है।

कर्नाटक के नतीजे देख अब कांग्रेस किसी भी सूरत में दक्षिण को अपने हाथ से नहीं निकलने देना चाहती है। उसे पता है कि दक्षिण में उसकी हवा चली, तो वह दिल्ली की सत्ता के नज़दीक पहुँच सकती है। इसका कुछ असर उत्तर और मध्य भारत में दिखेगा। हालाँकि दिक़्क़त यह है कि आंध्र प्रदेश, तेलंगाना आदि में पिछले चुनावों में वह शून्य रही है, जबकि तमिलनाडु में वह डीएमके की सहयोगी है और उसे लोकसभा चुनाव में सीमित सीटों पर ही लडऩे का अवसर मिल पाएगा। महाराष्ट्र में भी वह गठबंधन में है। केरल की 20 सीटों में से ज़्यादातर कांग्रेस लड़ेगी। असम में भी उसे छोटा-सा ही सही गठबंधन करना होगा। बिहार में भी गठबंधन उसके मजबूरी है।

आंध्र प्रदेश में शून्य पर होने के बावजूद देखना होगा कि क्या वह अकेले जाने का रिस्क लेती है? बंगाल में ममता बनर्जी से कांग्रेस की पटरी बैठी, तो कांग्रेस कुछ पर ही लड़ेगी और गठबंधन नहीं हुआ, तो माकपा के साथ या अकेले उसे मैदान में उतरना होगा। उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस की स्थिति दुविधा वाली है। कर्नाटक में अब उसे अपनी सीटें बढऩे की उम्मीद है। हिन्दी पट्टी के राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड के अलावा अरुणाचल प्रदेश में वह अकेले जाएगी, जबकि झारखण्ड में उसका गठबंधन है ही। ओडिशा में कमोवेश अकेले ही जाना होगा, जबकि गोवा में उसकी सहयोगी पार्टियाँ हैं। इस तरह देखें, तो कांग्रेस गठबंधन सहयोगियों से उसी सूरत में मज़बूत सौदेबाज़ी कर सकेगी, जब वह इस साल के विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करेगी।

कांग्रेस मेहनत करे, तो आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में अपना वोट बैंक पुनर्जीवित कर सकती है। यह वो राज्य हैं जहाँ लोगों का मन बदलते देर नहीं लगती। तेलंगाना को अलग राज्य तो बनाया ही कांग्रेस (यूपीए) ने था। दूसरे कांग्रेस इन राज्यों में करारी हार के बावजूद कभी अछूत नहीं रही है। कांग्रेस को पता है कि भाजपा दक्षिण में पाकिस्तान, हिन्दू-मुस्लिम या धार्मिक ध्रुवीकरण करके चुनाव नहीं जीत सकती। कांग्रेस इसका लाभ लेना चाहती है। इसीलिए उसके सबसे बड़े नेता राहुल गाँधी बार-बार इन राज्यों में देश की एकता और सभी को साथ लेकर चलने की बात करते हैं। यह कहना शायद थोड़ा अतिश्योक्तिपूर्ण हो; लेकिन दक्षिण के लोगों का प्यार कांग्रेस के प्रति कब उमड़ आये, कुछ नहीं कहा जा सकता। यदि 2023 के आख़िर तक देश में माहौल थोड़ा-सा भी भाजपा के ख़िलाफ़ दिखने लगा, तो आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी पाला बदलकर कांग्रेस के साथ आ सकते हैं।

रेड्डी मूल रूप से कांग्रेस संस्कृति के नेता हैं और अपनी पार्टी बनाने से पहले उन्होंने अपने पिता वाईएसआर रेड्डी की पार्टी कांग्रेस में ही रहने की कोशिश की थी; लेकिन उनके ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के मामलों के चलते सोनिया गाँधी इसके लिए सहमत नहीं हुई थीं। बाद में चुनाव में वे बड़े बहुमत के साथ आंध्र प्रदेश की सत्ता में आ गये, भले इसके पीछे उनकी बहन शर्मिला की अथक मेहनत थी; क्योंकि ख़ुद रेड्डी जेल में थे। शर्मिला अब तेलंगाना में अलग पार्टी बना चुकी हैं और कांग्रेस से हाथ मिलाने को इच्छुक हैं।

विपक्ष की एकता

तमाम बैठकों, मुलाक़ातों के बावजूद विपक्ष के दल अभी दुविधा में हैं। विपक्ष के एकजुट होने पर अभी कोई साफ़ रास्ता बनता नहीं दिखा है। फ़िलहाल यह विपक्षी दल 12 जून को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई में पटना में मंथन करेंगे, जिसमें कांग्रेस नेता राहुल गाँधी भी शामिल हो सकते हैं। यदि हाल के घटनाक्रम पर नज़र डालें, तो 19-20 दल हर हालत में भाजपा या मोदी सरकार के विपक्ष के प्रदर्शनों या मुहिम में मज़बूती से साथ रहे हैं।

बहुत कम सम्भावना है कि यह दल भाजपा के साथ जाएँगे। इनमें कांग्रेस, डीएमके, शिवसेना (उद्धव ठाकरे), सीपीआई, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, आम आदमी पार्टी, सपा, केरल कांग्रेस मानी, विधुथलाई चिरुथाईगल काची, रालोद, टीएमसी, जदयू, एनसीपी, सीपीआई एम, राजद, आईयूएमएल, नेशनल कॉन्फ्रेंस, आरएसपी, एमडीएमके, एआईएमआईएम शामिल हैं। हाँ, इनमें से कुछ दल ऐसे हैं, जो कांग्रेस के साथ नहीं हैं। जैसे कि ओवैसी की एआईएमआईएम आदि। यह वो दल हैं, जो नये संसद भवन के उद्घाटन के वहिष्कार में साथ थे। लिहाज़ा राजनीतिक रूप से विपक्ष के वास्तविक स्वरूप लेने में अभी समय लगेगा।

विपक्ष की पार्टियाँ भले कांग्रेस को सीटों के मामले में दबाव में रखना चाहती हों, यह उन्हें भी पता है कि कांग्रेस के बिना वह भाजपा को सत्ता से बाहर नहीं कर सकतीं। यही कारण है कि जब भी बात सिरे चढ़ेगी, वह सीटों के मोलभाव पर आधारित होगी। क्षेत्रीय दल अपने आधार का वास्ता देकर ज़्यादा-से-ज़्यादा सीटें चाहेंगे। कांग्रेस भी यही कोशिश करेगी कि उसके राष्ट्रीय स्वरूप को देखते हुए उसे पहले से अधिक सीटें मिलें। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, जो विपक्ष में बड़ी भूमिका निभाने की क्षमता रखती हैं, कह चुकी हैं कि कांग्रेस क्षेत्रीय दलों को सम्मान दे और वे उसे उसकी मज़बूती वाली सीटों पर समर्थन देंगे। हालाँकि जब विपक्षी दलों में तालमेल की बात चल रही है, पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के इकलौते विधायक बायरन बिस्वास को तृणमूल कांग्रेस ने अपने पाले में खींच लिया। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इस पर नाराज़गी ज़ाहिर की और कहा कि ऐसी हरकत सि$र्फ भाजपा के ही हित में हो सकती है।

कांग्रेस के लिए दिक़्क़त यह कि जहाँ उसका भाजपा से सीधा मुक़ाबला है, वहाँ यह क्षेत्रीय दल प्रभाव ही नहीं रखते। वहाँ कांग्रेस का अपना प्रभाव ही भाजपा को हराने में उसके काम आएगा। बंगाल में टीएमसी से यदि कांग्रेस का मेल नहीं होता, तो वह माकपा-भाकपा का साथ ले सकती है। बंगाल में कई कांग्रेस नेता हैं, जो टीएमसी के साथ गठबंधन नहीं चाहते और अकेले तरजीह देते हैं।

आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू कांग्रेस के संभावित सहयोगी हो सकते हैं; यदि जगन मोहन रेड्डी से तालमेल नहीं होता है या वह भाजपा को कुछ सीटें देकर उसके साथ जाने को तरजीह देते हैं। नायडू अलग-थलग पड़े हैं और कांग्रेस उनको संजीवनी दे सकती है। ऐसे में साफ़ है कि विपक्षी एकता की तस्वीर अभी बहुत धुँधली है। कांग्रेस इस साल होने वाले बाक़ी के विधानसभा चुनावों के नतीजे देखना चाहती है और उसके बाद ही मोल भाव का दौर शुरू होगा। हाँ, इस दौरान विपक्ष जो भी क़वायद करेगा, उससे भाजपा पर दबाव तो बनेगा ही।

सीटों का मोल-भाव

अगले आम चुनाव में भाजपा के ख़िलाफ़ विपक्षी एकता संभव होगी या नहीं, यह कांग्रेस के रु$ख पर निर्भर करेगा। ममता बनर्जी, शरद पवार और नीतीश कुमार चाहते हैं कि समान विचारधारा वाले दल लोकसभा की 543 में से 474 सीटों पर इकलौता उम्मीदवार खड़ा करें और कांग्रेस को वही सीटें दी जाएँ, जहाँ वह 2019 में जीते थी या रनरअप रही थी।

इस स्थिति में कांग्रेस के हिस्से क़रीब 245 सीटें ही आएँगी जबकि कांग्रेस ख़ुद के लिए पूरे देश में 300 सीटें चाहती है। इन दलों, ख़ासकर शरद पवार, ममता बनर्जी और नीतीश कुमार का मानना है कि कांग्रेस को वहीं सीटें माँगनी चाहिए, जहाँ वह पिछले चुनाव में पहले-दूसरे नंबर पर थी। इनमें तेलंगाना, दिल्ली, आंध्र प्रदेश और केरल की 69 सीटें शामिल नहीं है, जहाँ कांग्रेस को अपने बूते कुछ करना है और इन दलों का आधार वहाँ नहीं है। दरअसल पवार, ममता और नीतीश नहीं चाहते कि उनके राज्यों में कांग्रेस के साथ उन्हें सीटों का तालमेल कुछ इस तरह करना पड़े कि उनकी जगह कांग्रेस मज़बूत दिखे।

कांग्रेस इसका तोड़ यह निकालेगी कि वह विधानसभा के इस साल के सभी नतीजों का इंतज़ार करे और उसके बाद सीटों के किसी भी फार्मूले पर बात करे। इससे इन दलों पर भी दबाव रहेगा। दूसरे कांग्रेस को लगता है कि यदि उसकी स्थिति में उभार आता है, तो वह कई अन्य सीटों को जीतने की स्थिति में पहुँच सकती है। ऐसे में उसका दावा 300 से ज़्यादा सीटों का होगा। इस बहाने कांग्रेस देश की ज़्यादा से ज़्यादा सीटों पर लडक़र अपने आधार का विस्तार करना चाहती है। वह ख़ुद को राज्यों में भी क्षेत्रीय दलों के पिछलग्गू के रूप में नहीं दिखाना चाहती।

कांग्रेस पिछले चुनाव में तेलंगाना, दिल्ली, आंध्र प्रदेश और केरल को छोडक़र अन्य हिस्सों में 192 सीटों पर भाजपा से सीधे मुक़ाबले में दूसरे स्थान पर रही थी। यदि नीतीश कुमार की विपक्ष को एकजुट करने की सक्रियता को गहराई से देखें, तो साफ़ होता है कि वह 1980 वाले जनता पार्टी परिवार के ग़ैर संघ (भाजपा) समर्थक दलों को केंद्र में रख रहे हैं। कुछ महीने पहले भाजपा से अलग होने के बाद उनके एकजुटता प्रयासों के केंद्र में दिवंगत अजित सिंह के रालोद, अखिलेश यादव की सपा, देवेगौड़ा की जेडीएस, चौटाला की इंडियन नैशनल लोकदल, और लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल से सबसे ज़्यादा बातचीत हुई है।

हो सकता है कि नीतीश कुमार इस बहाने अपनी ज़मीन मज़बूत करके अपना रास्ता निकालने की भी कोशिश कर रहे हों। राजनीति में बहुत लोग कहते हैं कि नीतीश प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। शरद पवार उम्र का हवाला देकर प्रधानमंत्री बनने से मना कर चुके हैं; लेकिन परिस्थितियाँ राजनीति में बहुत खेल खेलती हैं। ममता बनर्जी भी प्रधानमंत्री बन सकती हैं और उनकी पार्टी के नेता यह कहते हैं।

नीतीश ख़ुद को बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक में इन नेताओं से जुडक़र ताक़त हासिल करना चाहते हैं। लेकिन उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती अब कांग्रेस है, जो कर्नाटक में बम्पर जीत के बाद आक्रामक दिख रही है। यह कमोवेश तय है कि आम आदमी पार्टी, केसी राव की बीआरएस और केरल में वामपंथी दलों से वह चुनावी समझौता नहीं करेगी। पटना में 12 जून को होने वाली विपक्षी दलों की बैठक में इन तमाम पहलुओं पर चर्चा होगी। बहुत कम सम्भावना है कि अभी कोई साफ़ तस्वीर उभर कर सामने आएगी। भले राहुल गाँधी के इस बैठक में शामिल होने की सम्भावना है, वे ऐसे किसी फार्मूले पर सहमति की जल्दबाज़ी नहीं दिखाएँगे। हाँ, कांग्रेस विपक्ष की एकजुटता की कोशिशों में साथ रहेगी।

भाजपा की रणनीति

विपक्ष के विपरीत भाजपा (एनडीए) की रणनीति भी कमजोर नहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रूप में एनडीए के पास तुरुप का पत्ता है। मोदी शब्दों से अपनी राजनीति के संकेत देते हैं। शब्दों से ही विपक्षियों पर प्रहार करते हैं और शब्दों से ही अपनी ज़मीन मज़बूत करते हैं। उनके इस करिश्मे पर भाजपा ही नहीं, एनडीए के कई सहयोगियों को भी बहुत भरोसा रहा है। राज्यों में भाजपा की हार के बावजूद उन्हें लगता है कि संसदीय चुनाव में आज भी मोदी ही सबसे बड़ा चेहरा हैं। इसलिए मोदी जो भी करते हैं, यह सभी दल उससे अभिभूत रहते हैं।

मोदी, शाह और नड्डा की तिकड़ी की कोशिश एनडीए दलों को एकजुट रखने के साथ-साथ यह है कि ओडिशा में बीजेडी, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस पार्टी और कर्नाटक में जेडीएस को भाजपा अपने पाले में लाना चाहती है। इसके अलावा भाजपा की नज़र चिराग पासवान पर भी है, जिनकी पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी फ़िलहाल कठिन दौर में है। रेड्डी ने नयी पार्टी बनाते हुए भी उसके नाम के साथ कांग्रेस रखा है। लिहाज़ा समझा जा सकता है कि उन्हें कांग्रेस नाम पर वोट मिलने की कितनी उम्मीद रही है। भाजपा के निशाने पर आश्चर्यजनक रूप से मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी है। उत्तर प्रदेश और अन्य कुछ राज्यों में बसपा का आधार है। भाजपा को लगता है कि यदि कांग्रेस का किसी हद तक उभार होता है, तो उसके साथ दलित और पिछड़े जुड़ सकते हैं। कर्नाटक का नतीजा बताता है कि मुसलमान एकमुश्त कांग्रेस के साथ खड़े हो रहे हैं। कर्नाटक में ख़ुद को मुसलामानों का नेता कहने वाले असदुद्दीन ओवैसी कुछ नहीं कर पाये। ऐसे में भाजपा बसपा के दलित वोट बैंक का लाभ उठाना चाहती है। बसपा भाजपा के साथ आती है या नहीं, अभी नहीं कहा जा सकता है। संसद भवन के उद्घाटन पर एक को छोडक़र बसपा के सांसद ज़रूर आये थे।

चंद्रबाबू नायडू अभी किसी के साथ नहीं; लेकिन भाजपा आंध्र प्रदेश में उनकी पार्टी तेदेपा को पाले में रखने की जुगाड़ में है। यहाँ यह भी सच है कि वाईएसआर कांग्रेस और तेदेपा एक साथ भाजपा के साथ आएँगे, इसकी सम्भावना ज़रूर कम है। नहीं भूलना चाहिए कि नायडू 2019 में विपक्षी एकता के सिलसिले में कांग्रेस नेता राहुल गाँधी के साथ बैठकों के दौर चलाते रहे हैं। भाजपा के लिए सबसे बड़ी उम्मीद ओडिशा में बीजू पटनायक की बीजद से है, जो कांग्रेस और भाजपा दोनों से समान राजनीतिक दूरी बनाकर चलने की अपनी नीति पर क़ायम है। ओडिशा में इतने साल बाद भी पटनायक ताक़तवर बने हुए हैं।

भाजपा की नज़र इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों पर हैं। इन सभी चुनावों में उसके सामने कांग्रेस की कड़ी चुनौती होगी। कम-से-कम मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो होगी ही। तेलंगाना में उसे के.सी. राव की बीआरएस और शर्मिला की संभावित जुगलबंदी से पार पाना होगा। संसद के लोकसभा सदन में स्पीकर के कक्ष के पास धार्मिक सेंगोल स्थापित कर उसे दंडवत प्रणाम कर प्रधानमंत्री मोदी ने तमिलनाड की राजनीति साधने की कोशिश की है। कितनी सफलता मिलेगी, कहना कठिन है। क्योंकि संसद के नये भवन के उद्घाटन को लेकर जहाँ भाजपा पक्ष मोदी की वाहवाही कर रहा है, वहीं राष्ट्रपति को न बुलाने जैसे कुछ फैसलों से विवाद भी पैदा हुआ है।

पीओके पर दाँव

क्या मोदी सरकार 2024 के आम चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) को वापस लेने के लिए कोई बड़ी सैन्य कार्रवाई कर सकती है? भाजपा के भीतर विधायक से लेकर सांसद और केंद्र में मंत्री तक यह बात कहता आपको मिल जाएगा। इस सोच के पीछे आधार यह है कि जिस तरह 2019 ऐन पहले पुलवामा होने पर भारत ने बालाकोट में आतंकी शिविरों को तबाह किया था, उसका भाजपा को जबरदस्त लाभ चुनाव में मिला था।

भाजपा के एक सांसद ने नाम न छापने की शर्त पर कहा- ‘इसमें क्या ग़लत है। हमारे गृह मंत्री साहब (अमित शाह) संसद में कह चुके हैं कि पीओके हमारा है। हमारी संसद इसे लेकर प्रस्ताव पास कर चुकी है। यह देश की अस्मिता से जुड़ी बात है। भाजपा यह सब देश के लिए करती है, राजनीति के लिए नहीं। जैसा कि जम्मू-कश्मीर में धारा-370 $खत्म करके उसने किया है।’

हालाँकि कुछ रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि पीओके पर इस तरह की कार्रवाई इतनी आसान नहीं है, क्योंकि यह बाक़ायदा युद्ध करने जैसा होगा। पाकिस्तान में इस समय आसिफ़ मुनीर सेनाध्यक्ष हैं, जिन्हें कट्टर भारत विरोधी और चीन के नज़दीक माना जाता है। लिहाज़ा ऐसा होने पर चीन भी इस लड़ाई में कूद सकता है।

क्या मध्यावधि चुनाव होंगे?

एक सवाल यह भी है कि क्या राजनीतिक दबाव बढऩे की स्थिति में भाजपा नेतृत्व जल्दी लोकसभा चुनाव करवाने की सोच सकता है? ऐसा हो सकता है। दिसंबर के आख़िर में तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव के साथ लोकसभा के चुनाव करवाये जा सकते हैं। भाजपा यदि महसूस करे कि अगले साल मई तक उसकी लोकप्रियता में कमी आ सकती है, तो समय से पहले लोकसभा चुनाव होना संभव है।

हालाँकि कुछ जानकार मानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के चाणक्य माने जाने वाले अमित शाह शायद ऐसा न करना चाहें। क्योंकि इससे जनता के बीच सन्देश जाएगा कि भाजपा अपनी स्थिति को लेकर चिन्तित है। यह सब कुछ विपक्ष की एकता और आने वाले विधानसभा चुनावों के नतीजों पर भी निर्भर करता है। लिहाज़ा आज इसे लेकर कुछ कहना कठिन है। लेकिन इसकी सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

लोकसभा की सीटें बढ़ेंगी!

नये संसद भवन के उद्घाटन पर अपने भाषण में ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि भविष्य में संसद (लोकसभा और राज्य सभा) की सीटों की संख्या बढ़ेगी। यह कितनी होगी और यह कब तक होगा, अभी नहीं कहा जा सकता। भारत में सन् 2002 में वाजपेयी सरकार के समय लोकसभा की सीटें बढ़ाने के लिए परिसीमन की क़वायद की गयी थी; लेकिन राजनीतिक विरोध के चलते उस समय इसे रोक दिया गया था। बाद में एक प्रस्ताव के ज़रिये 2026 तक के लिए परिसीमन पर रोक लगा गयी थी। संसद के नये भवन में लोकसभा सदन में 888 सांसदों की बैठने की क्षमता है और राज्यसभा में 384 सांसदों की।

भारत में अभी लोकसभा की 545 सीटें हैं, जिसमें से 543 सीटों पर चुनाव कराया जाता है और दो एंग्लोइंडियन के मनोनयन से भरी जाती हैं। भारत की जनसंख्या बढ़ी है। सन् 1976 में जब लोकसभा का परिसीमन किया गया, तो उस व$क्त भारत की आबादी 50 करोड़ थी। क़रीब 10 लाख पर एक सीट का फार्मूला उस व$क्त तय किया गया था। अब भारत की अनुमानित आबादी क़रीब 142 करोड़ है, अर्थात् सन् 1976 से क़रीब तीन गुना। सन् 2019 में पूर्व राष्ट्रपति दिवंगत प्रणब मुखर्जी ने लोकसभा में 1,000 सीटें करने की माँग की थी। मुखर्जी ने इसके पक्ष में आबादी का तर्क दिया था।

हाल में एक शोध पत्र जारी हुआ था, जिसमें कहा गया था कि अनुपात के मुताबिक लोकसभा में कुल सीटें 848 होनी चाहिए। सीटों की संख्या तय करने का अधिकार परिसीमन आयोग के पास है। परिसीमन आयोग की रिपोर्ट को संसद के दोनों सदनों में पास कराना ज़रूरी है। सवाल यह है कि क्या 2024 के चुनाव से पहले लोकसभा की सीटें सरकार बढ़ा सकती है? साल 2026 तक परिसीमन पर रोक होने के कारण ऐसा होना मुश्किल दिखता है। लेकिन संसद के मानसून सत्र में सरकार यदि मोदी सरकार संविधान में संशोधन कर भी देती है, तो परिसीमन का काम कुछ ही महीने करना होगा। यह आसान काम नहीं होगा। देश में आबादी का आधिकारिक आँकड़ा नहीं है, क्योंकि 2021 के बाद जनगणना नहीं हुई है। दूसरे विपक्ष भी जल्दबाज़ी में ऐसा करने का विरोध करेगा। लिहाज़ा देखना दिलचस्प होगा कि सरकार क्या इसे चुनाव के बाद करेगी?