सुविधाहीन बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रोफेसर ने माँगी ट्रेनों में भीख

हमने-आपने बहुत-से लोगों को अपने और अपनों के लिए भीख माँगते देखा है। आजकल हमें यू ट्यूब, ट्वीटर, फेसबुक के ज़रिये कई ऐसे मददगार देखने को मिलते हैं, जो कि काफी प्रेरणादायक होते हैं। जैसे एक वीडियो में देखा गया कि कोई फुटपाथ से एक अंजान गंदे, गरीब, बूढ़े को उठाकर अपनी कार में बिठाकर ले जाता है और उसे नहलाकर, बाल कटवाकर, नये कपड़े पहनाकर, बदसूरत से खूबसूरत बनाकर, खाना खिलाकर छोड़ देते हैं। लेकिन एक पढ़ा-लिखा इंसान, वह भी प्रोफेसर अगर ट्रेनों में भीख माँगे, वह भी दूसरों के लिए, तो यह ज़रूर अचम्भित करने वाली बात है।

हम बात कर रहे हैं संदीप देसाई नामक एक मरीन इंजीनियर की। अपने करियर की शुरुआत उन्होंने मरीन से की और बाद में एस.पी. जैन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड रिसर्च में प्रोफेसर के रूप में काम किया। लेकिन गरीब और वंचित समुदाय के बच्चों की ज़िन्दगी बदलने के उद्देश्य से नौकरी छोड़ ही दी।

नौकरी के समय उन्हें प्रोजेक्ट्स के सिलसिले में अक्सर गाँव देहातों में जाना पड़ता था, जहाँ का नज़ारा देखकर उन्हें बड़ा दु:ख होता था कि  गाँव के बच्चों की शिक्षा का कोई विशेष प्रबन्ध नहीं है, जिससे ज़्यादातर बच्चे अनपढ़ ही रहकर अपनी पूरी ज़िन्दगी खेतों में काम करके या मज़दूरी करके काट देते हैं। संदीप इन बच्चों के लिए कुछ करना चाहते थे और इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने सन् 2001 में श्लोक पब्लिक फाउंडेशन नाम से एक ट्रस्ट की नींव रखी। इस ट्रस्ट का मुख्य उद्देश्य गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान करना है।

उन्होंने मुम्बई के झुग्गी एरिया में बच्चों की दुर्दशा देखकर सन् 2005 में गोरेगाँव ईस्ट में एक स्कूल खोला, जहाँ आस-पास की झुग्गियों से बच्चे पढऩे आने लगे। कुछ ही समय में इस स्कूल में बच्चों की संख्या 700 तक पहुँच गयी और कक्षा 8 तक पढ़ाई होने लगी। हालाँकि वर्ष 2009 में उन्होंने स्कूल बन्द कर दिया, जब सरकार ने आरटीई एक्ट (6 से 14 साल तक के बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार) पारित कर प्राइवेट स्कूलों में 25 फीसदी सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित कर दीं। उसके बाद के कुछ साल उन्होंने और उनकी संस्था ने अनेक गरीब बच्चों का करीब 4 प्राइवेट स्कूलों में आरटीई एक्ट के तहत दाखिला कराया और ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को इस नियम से अवगत भी कराया। बहुत-से स्कूल इसमें आनाकानी करते थे, लेकिन सरकारी कानून का हवाला देने और दाखिला न करने पर स्कूल पर 10 हज़ार प्रतिदिन का ज़ुर्माने की याद दिलाने पर स्कूल प्रबन्धन बच्चों को दाखिला दे देता था।

संदीप ने देखा कि बहुत लोगों को इस नियम की जानकारी नहीं थी। तब उनके मन में एक इंग्लिश स्कूल खोलने का विचार आया, जिसके लिए उन्होंने सूखे की मार झेल चुके और अनेक किसानों की आत्महत्या के गवाह बने महाराष्ट्र के यवतमाल को चुना। यहाँ बच्चों को मुफ्त यूनिफॉर्म, किताबें दी जाने लगीं। अब पिछले साल से बच्चों को खाना भी देना शुरू किया गया है।

संदीप के लिए यह सब आसान नहीं रहा। सबसे बड़ी चुनौती धन की थी। इसके लिए उन्होंने करीब 250 कॉर्पोरेट्स को खत लिखा; लेकिन कहीं से कोई मदद नहीं मिली। किसी ने पूरे स्कूल को प्रायोजित करने की बजाय सिर्फ वार्षिक समारोह में मदद की बात कही, तो किसी ने अपना खुद का कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी (सीएसआर) का हवाला देकर मदद से इन्कार कर दिया। लेकिन संदीप जी ने हिम्मत नहीं हारी और सितंबर, 2010 में मुम्बई की लोकल ट्रेनों में जाकर आम यात्रियों से अपने इस नेक काम के लिए मदद माँगनी शुरू कर दी।

एक शाम संदीप अपने सह ट्रस्टी प्रोफेसर नूर उल इस्लाम के साथ गोरेगाँव स्टेशन पहुँचे। दोनों ट्रेन में चढ़ गये। नुर उल इस्लाम ने कहा कि वह दूर खड़े रहेंगे। आप जाकर लोगों से मदद माँगे। संदीप के पास एक बैग था और उसमें प्लास्टिक का डिब्बा था, जिसमें उनकी संस्था का नाम लिखा था। लेकिन चार स्टेशन निकल जाने के बाद भी संकोचवश वह डिब्बा नहीं निकाल पाये। जब ट्रेन सांताक्रूज स्टेशन पहुँची, तब उनके मित्र उनके पास आये और बोले या तो डिब्बा निकालकर लोगों से सहायता माँगो या फिर अगले स्टेशन पर हम उतरेंगे और फिर कभी भी इस तरह का भीख माँगने का विचार मन में नहीं लाएँगे। तब पहली बार संदीप ने अपने बैग से डिब्बा निकालकर लोगों से स्कूल खोलने के लिए ‘विद्या धनम्, श्रेष्ठम् धनम्’ बोलते हुए रेल यात्रियों से मदद माँगी। शुरू में तो लोगों को विश्वास नहीं हुआ, लेकिन समय बीतने के साथ लोग उनकी मदद को खुद-ब-खुद आगे आने लगे।

संदीप द्वारा इस तरह पैसा इकट्ठा करने की चर्चा अब अखबारों में और टीवी पर भी होने लगी है। अभी तक जो कॉर्पोरेट इनको मदद देने से इन्कार कर रहे थे, अब वो भी इनके साथ जुडऩे लगे और 2016 तक इनकी संस्था को 40 लाख रुपये का कॉर्पोरेट डोनेशन (दान) प्राप्त हुआ। इसके साथ ही सिने अभिनेता सलमान खान ने भी इनको मदद की पेशकश की है।

यह संदीप देसाई की गरीब बच्चों के लिए कुछ करने की लगन ही थी कि वह अपने मकसद में बहुत हद तक कामयाब हुए और समाज के लिए प्रेरणा के सबब बने।

हमारे इस देश में अनगिनत लोग संदीप देसाई की तरह सामाजिक  बदलाव में लगे होंगे, जो पुण्यात्मा ही हैं, जिन्हें कुदरत ने लोगों की सेवा के लिए ही जन्म दिया होता है।

हर शुक्रवार को प्रदर्शित होने वाली फिल्मों में से कई फिल्मों पर दावा किया जाता है कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर 100, 200, 300 करोड़ की कमायी की। अगर ऐसे फिल्मी लोगों ने इकट्ठा आकर संदीप देसाई जैसी शिख्सयतों की समाज सेवा की सोच से उनके हाथ में अपना हाथ दिया, तो कितने ही मासूम बच्चे, जो आज भी शिक्षा के वंचित हैं; देश का भविष्य बन सकते हैं।