सुरों के सरताज ने भी छोड़ी दुनिया

यह साल पूरी दुनिया के लिए किसी बड़ी त्रासदी से कम साबित नहीं हो रहा है। क्योंकि इस साल जहाँ कोरोना वायरस के कहर ने लाखों लोगों को असमय अपनों से छीन लिया है, वहीं एक के बाद एक कई बड़ी हस्तियों के दुनिया से जाने ने हम सबको हतप्रभ किया है। गत 17 अगस्त को सुरों के सरताज माने-जाने वाले रसराज पंडित जसराज का भी न्यू जर्सी, संयुक्त राज्य अमेरिका में निधन हो गया। वह 90 वर्ष के थे। उनके जाने की खबर ने सभी को झकझोर दिया। पद्मश्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और दुनिया भर में अनेक सम्मानों से सम्मानित शास्त्रीय गायक पंडित जसराज आठ दशकों तक भारतीय शास्त्रीय संगीत जगत में छाये रहे। वह मेवाती घराने से ताल्लुक रखते थे। उन्होंने केवल 14-15 साल की उम्र से शास्त्रीय संगीत सीखा। इससे पहले उन्होंने अपने बड़े भाई पंडित प्रताप नारायण से तबला वादन सीखा। उन्हें ठुमरी और खयाल गायन को नयी ऊँचाइयाँ प्रदान करने के लिए विशेष रूप से हमेशा याद रखा जाएगा। पंडित जसराज के निधन की खबर मिलने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर दु:ख जताया। उन्होंने लिखा- ‘पंडित जसराज जी के दुर्भाग्यपूर्ण निधन से भारतीय संस्कृति के आकाश में गहरी शून्यता पैदा हो गयी है। उन्होंने न केवल उत्कृष्ट प्रस्तुतियाँ दीं, बल्कि कई अन्य गायकों के लिए अनूठे परामर्शदाता के रूप में अपनी पहचान भी बनायी। उनके परिवार और दुनिया भर में उनके प्रशंसकों के प्रति संवेदना। ओ३म् शान्ति।’

28 जनवरी, 1930 को एक संगीतज्ञ परिवार में जन्मे पंडित जसराज के पिता पंडित मोतीराम मेवाती घराने के विशिष्ट संगीतज्ञ थे। इसलिए पंडित जसराज को भी संगीत की प्राथमिक शिक्षा पिता से ही मिल रही थी। लेकिन शायद ईश्वर को यह मंज़ूर नहीं था और जब जसराज महज़ तीन साल के थे, तभी उनके पिता की मृत्यु हो गयी। पंडित मोतीराम का देहांत उसी दिन हुआ, जिस दिन उन्हें हैदराबाद और बेरार के आखरी निज़ाम उस्मान अली खाँ बहादुर के दरबार में राज संगीतज्ञ घोषित किया जाना था। इसके उनके बड़े बेटे पंडित प्रताप नारायण ने पीढिय़ों से चली आ रही घर की संगीत परम्परा को आगे बढ़ाया। जसराज ने भी बड़े भाई से ही तबला वादन सीखा, किन्तु गायकों जैसी ख्याति न मिलने पर बहुत खिन्न हुए और 14-15 साल की उम्र में तबला त्यागकर संकल्प लिया कि जब तक वह शास्त्रीय गायन में विशारद प्राप्त नहीं कर लेते, अपने बाल नहीं कटवाएँगे। दरअसल सन् 1945 में लाहौर के एक कार्यक्रम में उन्होंने कुमार गंधर्व के साथ तबले पर संगत की। अगले दिन कुमार गंधर्व ने उन्हें फटकारते हुए कहा- ‘जसराज! तुम मरा हुआ चमड़ा पीटते हो। तुम्हें रागदारी के बारे में कुछ नहीं पता।’ बस, इसके पश्चात् बालक जसराज ने शपथ ले ली और तबला छोड़ मेवाती घराने के दिग्गज महाराणा जयवंत सिंह वाघेला से, फिर आगरा के स्वामी वल्लभदास से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली, जिसे विशारद तक हासिल किया।

दिग्गज शास्त्रीय गायक के रूप में ख्याति प्राप्त पंडित जसराज ने कई अनूठी उपलब्धियाँ हासिल कीं। इसी साल 8 जनवरी को अंटार्कटिका के दक्षिणी  ध्रुव (सी स्प्रिट नामक क्रूज) पर उन्होंने प्रस्तुति दी थी, जिसके बाद वह सातों महाद्वीपों में कार्यक्रम पेश करने वाले पहले भारतीय बन गये। उन्होंने पहली बार सन् 1966 में वी. शांताराम की एक फिल्म में भजन गाया था। इसके बाद 1975 को फिल्म ‘बीरबल माय ब्रदर’ के लिए गाना गाया। उसके बाद उन्होंने फिल्म ‘1920’ के लिए एक रोमांटिक गाना गाया। 2008 में फिल्म ‘अदा’ के एक गाने में अपनी आवाज़ दी। दर्ज़नों गानों की धुनें तैयार कीं। आपको शायद ही पता हो कि संगीत के इस पुरोधा की क्रिकेट में काफी रुचि थी। वह सन् 1986 से ही रेडियो के माध्यम से बड़े ध्यान से क्रिकेट कमेंट्री सुनते थे।

लोगों ने उनके गायन पर तो यहाँ तक कहा कि वह जब गाते हैं, तो ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं। साँसें थम-सी जाती हैं। दिल्ली में शायद दो या तीन बार मैंने भी उनका गायन सुना है। वाकई समाँ बाँध देते थे। उनका सुर लगते ही श्रोता या दर्शक ही कहें, उनके गायन में ऐसे डूब जाते थे, जैसे मूर्तियाँ हों। यही पंडित जसराज की बड़ी उपलब्धि है, जो दुनिया भर के संगीत प्रेमियों के लिए हमेशा मंत्रमुग्ध करती रहेगी, उनकी याद दिलाती रहेगी। अन्त में-

‘कुछ लोग यूँ भी जाते हैं ज़माने से।

दिल भूल नहीं पाता है भुलाने से।।’