सीमा पर गतिरोध क्यों? भारत-चीन के लिए सैन्य संघर्ष कोई विकल्प नहीं

साल 2017 में करीब 73 दिन तक चले डोकलाम गतिरोध के बाद भारतीय और चीनी सैनिकों की सीमा पर जुड़ी किसी घटना पर इतने विस्तार से चर्चा नहीं की गयी है; जैसा कि 5 मई, 2019 को हुआ था। इस घटना में झड़पें शामिल थीं। जब लद्दाख क्षेत्र में पैंगोंग त्सो झील क्षेत्र में दोनों पक्षों के 250 सैनिकों की उपस्थिति थी और जिसमें चीन के सैनिकों की ओर से अत्यधिक आक्रामक व्यवहार दिखाया गया। ऐसी ही एक और घटना 9 मई को सामने आयी थी।

इस बार सिक्किम में नाथू ला दर्रा क्षेत्र के पास झड़प हुई, जिसके परिणामस्वरूप दोनों पक्षों के कम-से-कम 10 सैनिक घायल हो गये। इसके परिणामस्वरूप चीन के सैनिकों ने कई तम्बू लद्दाख में खड़े कर दिये और पैंगोंग त्सो क्षेत्र और गालवान घाटी में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के साथ अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ा दी। यह दर्शाता है कि चीनी टकराव की गतिविधियों को समाप्त करने के लिए तैयार नहीं थे।

ज़ाहिर है यह एक चिन्ताजनक व्यवहार था, जिसका जवाब भारतीय सैनिकों ने इसी मुकाबले के बिल्डअप के साथ दिया था। इस बात के संकेत थे कि चीन के इरादे इस बार पवित्र नहीं थे। चूँकि दोनों पड़ोसी देशों की कोई निर्धारित सीमा नहीं है, उनके सैनिकों के बीच आमने-सामने इस 3500 किलोमीटर लम्बी एलओसी, जो दुनिया की सबसे लम्बी सीमा है; पर यह कोई असामान्य गतिविधि नहीं है। चीनी सेना के भारतीय क्षेत्र में कई बार घुसने की आधिकारिक रिपोट्र्स आयी हैं। चीनी सैनिकों ने पैंगोंग त्सो क्षेत्र में गश्त (ड्यूटी) पर भारतीय सैनिकों को हाल के दिनों में कई बार ज़बरदस्ती रोक लिया गया। फिर यह भी एक सत्य है कि दशकों से यहाँ और कहीं भी दोनों देशों के सैनिकों के बीच एक भी गोली नहीं चलायी गयी है।

वॉशिंगटन डीसी में द हेरिटेज फाउण्डेशन के एक रिसर्च फेलो जेफ स्मिथ के एक आकलन, जो सामरिक मामलों के लिए समर्पित एक अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका द डिप्लोमैट में छपा; जिसमें कहा गया है- ‘बड़े पैमाने पर अधिकांश मामलों में जहाँ चीनी और भारतीय सीमा के गश्ती दल आमने-सामने मिलते हैं, वे ध्वज समारोह में शामिल होते हैं और शान्ति से एक-दूसरे को सलामी देकर आयोजन करते हैं। लेकिन हमेशा नहीं। हाल के वर्षों में लम्बे खिंचे कई गतिरोध ने मीडिया का ध्यान आकॢषत किया है और इसने राजनीतिक स्तर पर गर्मी पैदा की है। साल 2013 में चीनी सेना ने उत्तरी लद्दाख में डेपसांग घाटी में एलएसी के पास एक भारतीय नागरिक पोस्ट के निर्माण पर आपत्ति जतायी थी। इससे लद्दाख 21 दिन तक गतिरोध बना रहा। अगले साल चुमार के पास दक्षिणी लद्दाख में तब 16 दिन तक गतिरोध बना रहा, जब चीन ने एलएसी के निकट भारत के जल सिंचाई चैनल के निर्माण को रोकने का प्रयास किया। यह तब हुआ, जब 2014 के सितंबर में राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा तय थी। इस घटना ने यात्रा की अहमियत को निश्चित ही कम आँकने में मदद की।

सबसे गम्भीर गतिरोध डोकलाम पठार पर 2017 की गॢमयों में बना, जब भारतीय सैनिकों ने एक चीनी सैन्य निर्माण दल को विवादित क्षेत्र में एक सडक़ का भूटान के विवादित क्षेत्र तक विस्तार करने से रोकने के लिए हस्तक्षेप किया। भारत तब तक मैदान में डटा रहा, जब तक कि दोनों देश आपसी समझौते से पीछे नहीं हट गये। डोकलाम संकट का नतीजा 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच वुहान शिखर सम्मेलन के रूप में हुआ; जिसमें अधिक स्थिर द्विपक्षीय सम्बन्ध दिखे।

दिलचस्प बात यह है कि विशेषज्ञों का मानना है कि क्षेत्र में तनाव उस स्तर तक बढऩे की सम्भावना नहीं है, जब सैन्य संघर्ष अपरिहार्य हो जाए। चेन्नई इंटरनेशनल सेंटर (जैसा द हिन्दू ने उद्धृत किया) के आयोजित एक हालिया वेबिनार को सम्बोधित करते हुए पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन ने निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण विचार व्यक्त किया- ‘सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हर एक झड़प को दूसरे युद्ध की शुरुआत के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। दोनों पक्षों ने बड़े पैमाने पर राजनीतिक मापदण्डों और मार्गदर्शक सिद्धांतों का पालन करने की कोशिश की, जिसे हम 2005 में सहमत हुए थे। जब तक कि सीमा विवाद को अंतिम रूप से समाप्त नहीं कर दिया जाता, तब तक हम किसी-न-किसी तरह की समस्या का सामना करेंगे।’

उनकी राय में, दोनों एशियाई दिग्गजों में से कोई भी एक संघर्ष नहीं चाहता है; जो ज़ाहिर तौर पर उन्हें उस भूमिका से अलग नहीं होने देगा। यह उन्हें वर्तमान शताब्दी में निभाने के लिए इतिहास ने सौंपी है; जिसे एशियाई सदी के रूप में व्याख्यायित किया जाता है। चीन में भारत के एक पूर्व राजदूत, विजय गोखले, जो देश के विदेश सचिव के रूप में जनवरी में सेवानिवृत्त हुए थे; ने एक अन्य अवसर पर कहा- ‘मुझे विश्वास है कि 2017 के बाद (जब डोकलाम गतिरोध के मद्देनज़र भारत-चीन सम्बन्ध तनावपूर्ण थे) दो शिखर सम्मेलनों ने कुछ हद तक समझ और विश्वास पैदा किया है। हालाँकि इसका मतलब यह नहीं है कि हमने हर समस्या को हल कर दिया है। दो नेता दो बैठकों में हर समस्या का समाधान नहीं कर सकते हैं। लेकिन मेरा मानना है कि उन्होंने जो विश्वास पैदा किया है, वह किसी हादसे को होने से रोकेगा।

सभी ने कहा कि चीन का बुरा व्यवहार बिना कारण के नहीं हो सकता है और वह भी ऐसे समय में जब चीन कोरोना वायरस, जिसके कारण एक वैश्विक स्वास्थ्य आपातकाल पैदा हुआ है; के वास्तविक स्रोत की खोज के बीच अकेला एक छोर पर खड़ा है। ऐसा माना जाता है कि यह 194-राष्ट्र विश्व स्वास्थ्य सभा में अपनी नाराज़गी व्यक्त करने का चीनी तरीका था; जिसमें एक भारतीय प्रतिनिधि- केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन को 22 मई को 34 सदस्यीय विश्व स्वास्थ्य संगठन के कार्यकारी बोर्ड में एक अध्यक्ष के रूप में चुना गया।

डब्ल्यूएचओ के कार्यकारी बोर्ड में भारतीय प्रतिनिधि की अध्यक्षता होने से बीजिंग की बेचैनी को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की कोविड-19 विषाणु की उत्पत्ति के बारे में चिन्ता की पृष्ठभूमि के खिलाफ देखा जाना चाहिए। चीन के वुहान शहर में सबसे पहले कोरोनो वायरस ने कैसे लोगों की ज़िन्दगी लेनी शुरू की, यह जानने की माँग करने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प सहित दुनिया भर के नेताओं के बयान आ रहे हैं। यह भी कि इसके लिए चीन के खिलाफ क्या कार्रवाई की जाए।

इस सम्बन्ध में कार्रवाई बीजिंग ने की थी। यह माना जाता है कि चीन परेशान करने वाले इन घटनाक्रमों के माध्यम से भारत को एक और संदेश देना चाहता था। भारत और अमेरिका विभिन्न क्षेत्रों में एक-दूसरे के करीब आने से चीन बहुत चिन्तित है; जो अंतत: एशिया में चीन के मुकाबले भारत की स्थिति को मज़बूत कर सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अमेरिका चाहता है कि चीन के अपने पड़ासियों के साथ टकराव वाले व्यवहार, खासकर दक्षिण चीन सागर, ताइवान और हॉन्गकॉन्ग जैसे मुद्दों के सम्बन्ध में भारत एक सक्रिय और संतुलित भूमिका निभाये। हालाँकि, इसका मतलब यह नहीं है कि भारत इस क्षेत्र में अमेरिकी योजना के अनुसार अपने पत्ते खेलेगा।

डोकलाम गतिरोध जैसी स्थितियों को आराम से सँभालने के लिए अमेरिका के साथ सम्बन्ध विकसित करना एक बात है। लेकिन भारत चीन के साथ भी अपने सम्बन्धों को महत्त्व देता है। दोनों पड़ोसियों के बीच एक समृद्ध द्विपक्षीय व्यापार है, जो कि 2017-18 में 89.6 बिलियन डॉलर रहा। हालाँकि इसमें व्यापार घाटा चीन के पक्ष में 62.9 बिलियन डॉलर तक पहुँच गया। साल 2017 में भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय व्यापार 84.5 बिलियन डॉलर था।

हालाँकि 2019 में उनके द्विपक्षीय व्यापार में गिरावट आयी है और कोविड-19 की वजह से इसे और अधिक नुकसान हो सकता है। लेकिन भविष्य में एक बार फिर से उनके व्यापार की मात्रा बढऩे की उज्ज्वल सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।

एक अनुमान के अनुसार, वुहान शिखर सम्मेलन के बाद से भारतीय समुद्री उत्पादों के निर्यात में 10 गुना वृद्धि हुई है, जो 2019 में एक बिलियन डॉलर तक पहुँच गया है। जबकि कृषि उत्पाद जैसे गैर-बासमती चावल, रेपसीड (खाद्य तेल), मछली, तम्बाकू के पत्ते आदि ने चीनी बाजारों तक पहुँच बनाई है। यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जा रहा है कि भारतीय उत्पादों जैसे भिंडी, सोयाबीन, गोजातीय मांस और डेयरी वस्तुओं का भी बड़े पैमाने पर चीन को निर्यात किया जाए।

इसलिए आॢथक और सामरिक मजबूरियाँ, भारत और चीन को हमेशा किसी भी अनुपात के सीमा तनाव को कम करने का रास्ता खोजने के लिए बाध्य करती हैं। जबकि वे सीमा झड़पों जैसे घटनाक्रमों से अपनी आॢथक वृद्धि को गम्भीर नुकसान की अनुमति नहीं दे सकते। माना जाता है कि चीनी भविष्य की सुपर पॉवर बनने के अपने सबसे बड़े सपने को साकार करने के लिए कोई भी बलिदान देने के लिए तैयार हैं। हालाँकि तथ्य यह भी है कि अमेरिका और अन्य प्रमुख शक्तियाँ चीन को इस उद्देश्य को प्राप्त करने से रोकने के लिए कुछ भी जो कर सकती हैं, करेंगी। क्योंकि यह एशिया में शक्ति संतुलन को खतरनाक रूप से प्रभावित कर सकता है; जो शेष दुनिया के लिए भी एक असहज संदेश होगा।

(लेखक द ट्रिब्यून के पूर्व सहायक सम्पादक और दिल्ली में राजनीतिक स्तम्भकार हैं।)