सीधी जंग की सियासत

शताब्दी वर्ष की तरफ तेज़ी से बढ़ते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सत्ता में सीधी धमक के दस्ताने पहन लिए हैं। इन दिनों राजस्थान में जिस तरह भाजपा की राजनीति संघनिष्ठ संगठन मंत्री चन्द्रशेखर के इर्द-गिर्द घूम रही है उसने संघ समर्थक विश्लेषक राकेश सिन्हा के इस तर्क पर मुहर लगा दी है कि वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में सत्ता में सीधा दखल न सिर्फ संघ की विवशता है। बल्कि समय की माँग और अनिवार्यता भी है।’ राजनीतिक विश्लेषकों ने उन्हें सियासी खेल का धुरंधर और कामयाबी की चाबी मानते हुए ऐसा हुनरमंद माना है, जो प्रदेश में भाजपा को सत्ता के गलियारों में ले जा सकता है। मीडिया विश्लेषक सौरभ भट्ट का कहना है कि भाजपा के लिए नये पॉवर सेंटर बनते चंद्रशेखर की सक्रियता को देखते हेतु ताड़ लेना स्वाभाविक है कि पार्टी खुद को अतीत से बाहर निकाल रही है। प्रदेश के सियासी हलकों में इसे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर एक योजनाबद्ध प्रहार माना जा रहा है, जिन्होंने संघ को चुनौती देते हुए कहा था कि संघ को हिन्दुत्व और संास्कृतिक संगठन के नाम पर लोगों दिग्भ्रमित करने की बजाय खुलकर राजनीति करनी चाहिए। उन्होंने संघ के पाले में चुनौती की गेंद फेंकते हुए कहा था कि संघ फ्रंट फुट पर राजनीति करे फिर देखिए किसकी नीतियाँ क्या है? अब इससे पहले कि इस मसले पर कोई बहस आगे बढ़े? संघ ने ‘फ्रंट फुंट’ पर राजनीति करने की शुरुआत कर दी है। िफलहाल ज़िला स्तर पर गणिताई में बदलाव करते हुए संघनिष्ठों को ज़िलों का प्रभार सौंपा गया है। शुरुआत कोटा से हुई है। शहर जिला अध्यक्ष की कमान रामबाबू सोनी को सौंपी गयी है, तो देहात ज़िलाध्यक्ष मुकुट नागर को बनाया गया है। हालाँकि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया इन नियुक्तियों को ‘संघम शरणम गच्छामि’ के जुड़ाव से टालते नज़र आये कि कोटा भाजपा में गुटबंदी के चलते यह व्यवस्था करनी पड़ी। चर्चा है कि इसकी एक बड़ी वजह कोटा के सांसद और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला के दबाव से भी सहज रहते हुए केवल यही विकल्प स्वीकार्य हो सकता था। भाजपा के प्रदेश छगन माहुर यह कहकर ‘रहस्य कथाओं’ से लुकाछिपी करते हुए नज़र आये कि पार्टी ने ज़िलाध्यक्ष पद पर ज़मीनी स्तर के कार्यकर्ताओं को मौका दिया है। लेकिन क्या ऐसा है? िफलहाल इन नियुक्तियों को लेकर भाजपा के राजनीतिक हलकों में सियासत बुरी तरह गरमायी हुई है और गुटबाज़ी के रंग और गहरे हो गये हैं।

सूत्रों का कहना है कि पिछले विधानसभा चुनावों में वसुंधरा राजे को कमान सौंपने के मामले में भाजपा नेतृत्व का तुजुर्बा काफी कसैला रहा था। बावजूद अजमेर और जयपुर में आयोजित आरएसएस के चिंतन शिविरों में राजे के विकल्प का मुद्दा काफी कसमसाता रहा। लेकिन भाजपा नेतृत्व ने पारम्परिक सुल्तान को ही इस तर्क के साथ कमान सौंपना बेहतर समझा कि राजे-शाह का गठजोड़ प्रदेश में भाजपा को फिर से सत्ता में ला सकता है। लेकिन चुनावी नतीजे झिंझोड़ कर बता गये कि वसुंधरा राजे मोदी मॉडल की सबसे कमज़ोर कड़ी थी। इसके कसैले सबक के बाद ही संघ के पदाधिकारी उन सूरमाओं पर टकटकी लगाये हुए थे, जो पार्टी को सँवारकर फिर से सत्ता का राजमुकुट पहना सके। सूत्रों का कहना है कि पाँच राज्यों में सत्ता के घाट पर फिसल चुका भाजपा नेतृत्व भी अब यह मानने लगा है कि राज्यों के चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों की बजाय क्षेत्रीय मुद्दों और स्थानीय चेहरों पर दाँव खेला जाना चाहिए। मीडिया विश्लेषकों का कहना है कि अब नये सियासी महामंथन के बाद अगर संघ खुलकर सत्ता के संघर्ष की दहलीज़ पर कदम रखने जा रहा है, तो देखना ज़्यादा दिलचस्प होगा। खासकर संघ प्रमुख भागवत के उस बयान के बाद कि केवल राजनीति देश में परिवर्तन नहीं ला सकती। परिवर्तन तो केवल लोगों के द्वारा ही लाया जा सकता है। बहरहाल सूत्रों का कहना है कि अपने राजनीतिक कौशल की सबसे बड़ी परीक्षा देने के लिए संघ ने राजस्थान को चुना है। संघ प्रदेश में भाजपा को फिर से सत्ता में लाने के लिए कई मोर्चों पर काम कर रही है। सीएए को लेकर भाजपा के समर्थन अभियान से भी संघ सतुष्ट नहीं है। उसी का नतीजा है कि संघ ने सम्पर्क अभियान की बागडोर अपने हाथों में थाम ली है। संघ के कार्यकर्ता घर-घर जाकर लोगों को ऐसे पम्पलेट बाँट रहे हैं, जो सीएए की अच्छाइयों का बखान करते नज़र आते हैं। राजनीतिक दक्षता के इस मुहाने पर अगर चंद्रशेखर खूबियों से लबरेज नज़र आते हैं, तो इसकी बेशुमार वजहें हैं। सत्ता और संगठन में खम ठोककर तालमेल का मसौदा पढऩे वाले चंद्रशेखर ने विस्तारक योजना जैसे कार्यक्रम चलाये और संगठन को मज़बूती देने क लिए 50 लाख सदस्य जोड़ेे है। विधानसभा और लोकसभा चुनावों में सम्भाग स्तर पर प्रभारी बनाये गये। पदाधिकारियों को संगठनात्मक कामकाज का बँटवारा किया। चंद्रशेखर यही पद वाराणसी में भी 2014 में सँभाल चुके हैं। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वहाँ से संसदीय चुनाव लड़ा था। विश्लेषकों का कहना है कि ऐसा 29 साल में पहली बार हुआ जब किसी संगठन महामंत्री की पकड़ को इतना मज़बूत देखा गया। चंद्रशेखर ने बेशक अपने लिए कोई सुॢखयाँ बटोरने की कोशिश नहीं की। लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि गिनी जाएगी कि वसुंधरा राजे की बुझती चमक के बीच सिर्फ चंद्रशेखर ही ऐसा नेता साबित हुए, जो महज़ ढाई साल में प्रदेश भाजपा का सबसे बड़ा चेहरा बन गये। मीडिया विश्लेषक सौरभ भट्ट की मानें तो करीब दो दशकों से राजस्थान में भाजपा की सियासत वसुंधरा राजे तक ही सीमित रही। इससे पहले भैरोसिंह शेखावत पार्टी के केन्द्र बिन्दु रहे। लेकिन प्रदेश संगठन महामंत्री के तौर पर चाहे ओम प्रकाश माथुर हो या प्रकाश चंद्र प्रदेश भाजपा में वैसा वर्चस्व कायम नहीं कर पाये? जैसा चंद्रशेखर ने किया। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के रूप में सतीश पूनिया की तैनाती समेत कई बदलावों में चंद्रशेखर का प्रभाव साफनज़र आता है।

संगठन मंत्री के पद को पार्टी और संघ के बीच महत्त्वपूर्ण कड़ी माना जाता है। बाद में  राजे और पार्टी नेतृत्व के बीच टकराव के चलते यह पद आठ साल तक खाली ही रहा। लेकिन इस टकराव को दूर करने में चंद्रशेखर ही कामयाब रहे। सौरभ भट्ट कहते हैं कि अतीत से भविष्य का निर्माण तो सम्भव नहीं है। लेकिन चंद्रशेखर पर अगर संघ की नज़रें गड़ी है, तो उन्हें अतीत ओर वर्तमान दोनों टटोलने होंगे। उधर केन्द्रीय गृहमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अब भी राजे से मुँह फुलाये हुए हैं। पिछले दिनों नागरिकता संशोधन कानून के समर्थन में जोधपुर में हुई शाह की सभा से वसुंधरा राजे ने दूरी ही बनाये रखी। शाह की सभा के लिए शहर में लगाये गये पोस्टरों में भी वसुंधरा राजे की तस्वीर नदारद थी। सूत्रों का कहना था कि राजे को शाह के कार्यक्रम में आने का निमंत्रण ही नहीं दिया गया था। इससे पहले जयपुर में सीएए के समर्थन में निकाली गयी भाजपा की सभा में राजे को आमंत्रित नहीं किया गया था। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राजे के लिए इससे बड़ा अप्रत्यक्ष संकेत क्या हो सकता है कि सीएए को लेकर 5 जनवरी को देश में लॉन्च किये गये सम्पर्क अभियान में भी उन्हें  शामिल नहीं किया गया, जबकि इसमें शिवराज सिंह से लेकर रमण सिंह, रघुवरदास और देवेन्द्र फडणवीस सरीखे सभी पूर्व मुख्ममंत्री मौज़ूद थे। सूत्रों का कहना है कि राजमहलों में साज़िशकर्ताओं को भाँपने में माहिर राजे समझने में कोताही नहीं कर रहीं कि सब कुछ वैसा ही नहीं हो रहा, जैसा सोचकर वे चल रही थी। पार्टी नेतृत्व की उपेक्षा केा आँख भरकर देख चुकीं राजे िफलहाल तो एक नया राजनीतिक मंतव्य समेटे हुए संघ के लिए मंगलमय ज़ुबान बोल रही है कि अपनी माँ की वजह से मैंने संघ को बहुत करीब से देखा और महसूस किया है। यह संगठन सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रहित के लिए बना है। संघ का राजनीति से नहीं राष्ट्रनीति से नाता है, जिसमें राष्ट्रहित सर्वोपरि है। मीडिया विश्लेषक कहते हैं- ‘लेकिन मैडम, बहुत देर कर दी आते-आते!’ दूूसरी तरफ सूत्रों का कहना है कि नितिन गडकरी और पीयूष गोयल सरीखे कद्दावर नेताओं की छत्रछाया में वसुंधरा राजे पूरी तरह आश्वस्त है कि उन्हें प्रदेश के राजनीतिक फलक से इतनी आसानी से फिनिश नहीं किया जा सकता। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि सियासत के लिए इतिहास को नकारना आसान नहीं होगा। तब जबकि इस बार संघ सीधा उनसे मुकाबिल है।