सिद्धार्थ लौटे हैं बुद्ध बनकर

बुद्ध द्वार पर आए लौटकर

लम्बे समय बाद

द्वारपाल अभिमंत्रित

तकते रहे देर तक

मंत्रमुग्ध हतप्रभ भी!

सिद्धार्थ लौटे हैं बुद्ध बनकर

महत और ईश्वरत्च कर उपाधि से विभूषित

द्वारपाल सारे गिर गए चरणों में

प्रभु भी वही, परात्पर भी अब!

हर घर में भिक्षा लेने आए प्रभु स्वयं

दाता अब दान लेने की भूमिका में

उतरे स्वयं!

हर व्यक्ति उत्साहित, अभिमंत्रित

उनकी उदारता से!

महल के द्वार पर आ पहुंचे बुद्ध

आ गया वह क्षण

जिसकी प्रतिक्षा थी किसी स्त्री को

बरसों बरस से!

दान लेने वाला प्रभु

कभी पति था उसका!

आज प्रभु की भूमिका में गया बदल,

स्त्री और कोई नहीं

थी वही राजकुमारी जिसकी गोद में डाल कुमार

सिद्धार्थ चले गए थे बुद्ध बनने!

अमरत्व की उपासना में

एक स्त्री को छोड़ गए थे

नश्वरता की दुनिया के भीतर अकेला

सारे प्रश्नों से जूझने के लिए!

द्वार पर भिक्षा का कटोरा भर लाई

बुद्ध देखते रहे करुणा से भरकर उस स्त्री मुख को!

स्त्री मुख था शांत और सहज

भिक्षा का पात्र भर दिया उसने बुद्ध का!

‘कुछ और तो नहीं चाहिए प्रभु!’

इतना धैर्यवान स्वर सुन चौंके बुद्ध भी!

‘राहुल भी हो पन्थ में दीक्षित

इतना ही, यदि संभव हो देवी’

‘ले जाइए पुत्र है आपका’

मैं जानती थी, होगा यही,

पुत्र आपका है, लेने आएंगे आप ज़रूर!

पुत्र पर हक पिता का ही मानता है समाज

आप भी हैं इसी समाज का भाग!

परम-ईश्वर हो जाएंगे आप

इस समाज के लिए और मेरे लिए भी!

पुत्र आपका, शरण भी आपकी!

पर बस मेरी भी मानेंगे एक प्रार्थना

संभव हो अगर!’

बुद्ध सुन रहे थे मौन

‘मेरे लिए भी कोई राह हो तो

बता दो प्रभु।

तुम मुझे मुक्त कर सको या नहीं

मैं मुक्त करती हूं तुम्हें

अपने से सदा के लिए!’

कहते तो पहले ही कर सकती थी

पर अब तुम दुनिया के लिए राह बनाओ मुक्ति की

ये स्त्री मुक्त करती है तुम्हें अपने किसी भी बंधन से!

मेरी चिंता न करना, तुम्हारे पास है इससे बड़े काम!

मैं जीना चाहती हूं अब कुछ क्षण

बस स्त्री बनकर

तुम्हारे इन्तज़ार के लिए नहीं,

तुम्हारे इन्तज़ार से गुजऱकर

खुद से मिलकर

खुद को पहचानना चाहती हूं!’

मौन खड़े थे बुद्ध प्रभु

हाथ जोड़ लिए स्त्री ने

प्रभु मुड़ गए

खड़ी थी स्त्री अभी भी

हाथ जोड़कर वैसे ही

अपने ही मौन में मग्न

अपनी ही पीड़ा में पूर्ण

अपनी ही सीमाओं से अतिक्रमितडा. हर्षबाला शर्मा