सारण, बिहार

Saran1लालू प्रसाद यादव के शासनकाल की जब भी बात आती है तो एक बात सभी कहते हैं कि उनकी राजनीतिक छवि को सबसे ज्यादा नुकसान उनके दोनों सालों यानी साधु-सुभाष ने पहुंचाया. हालांकि साधु और सुभाष उनके कार्यकाल में नक्षत्र की तरह अगर उग आए थे और चमकदार तारे की तरह वर्षों चमकते रहे थे तो उसमें लालू से ज्यादा राबड़ी देवी की भूमिका थी. वक्त का फेर देखिए. अब उन्हीं दोनों भाइयों में से एक अनिरूद्ध उर्फ साधु यादव अपनी दीदी राबड़ी देवी का ही खेल बिगाड़ने सारण पहुंचे हैं. वह भी उस समय में, जब लालू खुद चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य साबित हो चुके हैं और अपने पति की सीट को बचाने के लिए सबसे मुश्किल लड़ाई लड़ने राबड़ी वहां पहुंची है. एक समाचार वेबसाइट से बातचीत करते हुए इस पर उनका कहना था, ‘चुनाव लड़ने का फैसला लिए तो क्या हो गया. सारण की सीट पर लालू यादव और राबड़ी देवी ने रजिस्ट्री या बैनामा करवा लिया है क्या?’

सारण संसदीय सीट, जिसे प्रचलित तौर पर छपरा के नाम से जाना जाता है, की लालू के राजनीतिक जीवन में अहम भूमिका रही है. 1977 से ही छपरा ने उनका साथ दिया है. छपरा से उनका ऐसा नाता जुड़ा कि पास के गोपालगंज जिले के मूलवासी होने के बावजूद उन्होंने कभी भी उस सीट से चुनाव नहीं लड़ा. हां, साधु यादव को जरूर उन्होंने एक बार गोपालगंज से चुनाव लड़वाकर सांसद बन जाने का शौक पूरा करवा दिया था. बताते हैं कि साधु के लोकसभा पहुंचने के बाद लालू के दूसरे चर्चित साले सुभाष यादव ने अपनी बहन राबड़ी के पास पहुंचकर संसद पहुंचने की जिद मचा दी थी. कहा जाता है कि दोनों भाइयों को बराबर माननेवाली राबड़ी देवी ने लालू से जिद कर सुभाष को भी राज्यसभा भिजवा दिया था.

आज सुभाष अपने कारोबार की दुनिया में मगन हैं और साधु घाट-घाट का पानी पीकर परिवार के मुकाबले ही आ खड़े हुए हैं. इस बीच उन्होंने घाट-घाट का पानी पिया. बहनोई और बहन का साथ छूटने के बाद उन्होंने कांग्रेस का दामन थामा था. वहां सफलता नहीं मिली तो गुजरात पहुंचकर भाजपा का साथ पाने के लिए बेताब हुए. दोनों जगह बात नहीं बनी तो अब निर्दलीय होकर अपनी बहन राबड़ी के खिलाफ सारण पहुंचे हैं. हालांकि यह जीतने से ज्यादा जमानत बचाने की लड़ाई है. सारण का असली रण पुराने दिग्गजों के बीच ही है. जब लालू लड़ते थे, तब भी उनके सामने 1999 में एक बार छपरा से सांसद बने राजीव प्रताप रूडी ही रहे और इस बार राबड़ी के सामने भी रूडी ही हैं.

सारण यादवों का गढ़ है. राबड़ी देवी को भी यहां से उतारने का मतलब यही रहा है. साधु उसी यादव वोट में किसी तरह सेंधमारी करना चाहेंगे, ताकि उनकी दीदी का खेल बिगड़े. दूसरी ओर इस बार रूडी बिना जदयू के समर्थन के चुनाव लड़ रहे हैं तो उनके सामने मुश्किलें ज्यादा हैं. उनके लिए एक बड़ा वोट बैंक जदयू समर्थकों का भी रहा है जो इस बार जदयू के प्रत्याशी सलीम परवेज की ओर जा सकता है. सलीम विधान परिषद के उप सभापति हैं और 2009 में बसपा के टिकट पर सारण से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं. तब उन्होंने 35 से 40 हजार वोट बटोरे थे. सलीम को टिकट देने से जदयू में मतभेद भी उभरे हैं, लेकिन सूत्र बताते हैं कि नीतीश कुमार ने यही सोचकर उन्हें टिकट दे दिया है कि एक मुस्लिम उम्मीदवार की संख्या बढ़ जाएगी और कई दावेदारों के बीच के मतभेद को खत्म भी किया जा सकता है. खैर! यह तो जदयू की बात है जो करिश्मे की उम्मीद में है. राबड़ी पति के वोट के सहारे चुनाव लड़ने पहुंची हैं. इसी सारण में आने वाली सोनपुर विधानसभा सीट से राबड़ी देवी पिछला विधानसभा चुनाव लड़ी थीं और भाजपा से हार गई थीं. सारण संसदीय इलाके में छह विधानसभा क्षेत्र आते हैं. तीन पर भाजपा का कब्जा है, दो पर जदयू है और एक पर ही राजद का कब्जा है. रूडी तीन भाजपा विधायकों के सहारे चुनाव पार करने की उम्मीद में हैं और राबड़ी लालू के प्रभाव के सहारे.

इस लड़ाई में सबसे बड़ा सवाल यही उठा है कि आखिर साधु आखिरी दिनों में कैसे टपक गए. अनुमान यही लगाया जा रहा है कि साधु ने इसी उम्मीद के साथ अचानक मैदान में उतरने का एलान किया ताकि उन्हें भी लालू प्रसाद मनाने आएं और फिर से कोई अहम स्थान पार्टी में दे दें. लालू प्रसाद ने पाटलीपुत्र संसदीय क्षेत्र में बेटी के खिलाफ बिगुल फूंकने का एलान करने के बाद रीतलाल यादव के साथ यही किया था. लेकिन साधु को उनके जीजा ने वह भाव नहीं दिया. भाई-बहन की लड़ाई और तेज हो, यह भाजपा तो चाहती ही है, लेकिन उससे ज्यादा जदयू नेता चाहते हैं ताकि किसी तरह भाजपा-राजद के बीच फंसा यह अभेद्य गढ़ टूटे.