साक्षात्कार भाग-2: दो साल में बदल सकती है देश की सूरत

पिछले अंक में आपने आकाशवाणी के पूर्व उप महानिदेशक और प्रतिष्ठत शायर लक्ष्मीशंकर वाजपेयी का रेडियो से सम्बन्धित साक्षात्कार पढ़ा। इस भाग में रेडियो के अलावा उनके कवि धर्म के बारे में जानिए :-

अच्छा, नेशनल चैनल बन्द कर दिया केंद्र सरकार ने, जो डोडापुर में था। वह चैनल तो देश का बड़ा चैनल था। पहले की सरकारों ने कभी रेडियो के चैनल इस तरह बन्द नहीं किये। अब ऐसा क्यों हो रहा है?

देखिए, यह आपने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया। दरअसल, मुझे जब आकाशवाणी बुलाया गया था, मेरा चयन हुआ था, तो वह इसी चैनल की शुरुआत के लिए हुआ था। आपको बता दें कि इस चैनल की स्थापना के बाद हम लोगों ने जी-जान लगाकर उसको एक ऊँचाई दी थी। जिस समय नेशनल चैनल स्थापित हुआ था, हम लोग रातभर जागे। तो जो खुशी थी, उसको बयान नहीं किया जा सकता। नेशनल चैनल भारत का सबसे बड़ा चैनल था और उसकी सहूलियत यह थी कि आप उत्तर दक्षिण भारत चले जाएँ या दक्षिण भारत में, जो हिन्दी के जानने वाले हैं वहाँ, वे वहाँ भी हिन्दी के कार्यक्रम सुन सकते थे। दूसरा क्या था कि जैसे अमूमन चैनल रात को 11-12 बजे बंद हो जाते हैं; लेकिन नेशनल चैनल इकलौता ऐसा चैनल था, जिसको हम रात में भी कभी भी सुन सकते थे। तो उसका बन्द होना तो बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। पता नहीं क्यों इस सरकार ने ऐसा निर्णय लिया? वहाँ हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी, सभी भाषाओं के कार्यक्रम होते थे। वह एक अकेला ऐसा चैनल था, जो देश में ही नहीं, बल्कि विदेशों के भी कई राज्यों में प्रसारित होता था। उस चैनल को लोग श्रीलंका, नेपाल, मालद्वीप और पाकिस्तान तक में लोग सुनते थे। हज़ारों चिट्ठियाँ आती थीं, उस ज़माने में। जगह-जगह से लोग तारीफ करते थे हमारे कार्यक्रमों की। अपनी फरमाइशें भेजते थे। यह कोई रुटीन स्टेशन नहीं था, उसके लिए तो दिल्ली स्टेशन है। उसका जो ढर्रा था, वह जैसे बीबीसी के पैटर्न है, ऐसा था। मतलब उसमें रेडियो जर्नलिज्म था। अलग तरीके के कार्यक्रम होते थे। फाइनेंसियल रिब्यू का कार्यक्रम होता था और करेंट अफेयर्स के कार्यक्रम होते थे; तो वह तो एक पूरा दायरा जो है, वह बहुत अलग था। उसका बन्द होना तो एक निहायत दुर्भाग्यपूर्ण है; और अफसोस की बात है कि इस बात के लिए कोई आवाज़ भी नहीं उठी कहीं से। वह तो कम-से-कम एक देश को जोडऩे वाला चैनल था और उसकी स्थापना का उद्देश्य भी इसी के लिए हुआ था। आपको बता दें कि जब इस चैनल का उद्घाटन हुआ था, तो हम लोग रात भर जागे थे। एक खुशी थी। मैं पूरी रात में सोया नहीं था। इतनी खुशी थी कि जब पूरा कार्यक्रम के 2:30 बजे रिकॉर्ड   हो गया, तो रात भर लगा रहा मैं उसमें। क्या था कि देश भर के प्रतिष्ठित लोग उस चैनल पर कार्यक्रम के लिए आते थे। आप सोचिए कि तंदूर कांड दिल्ली में हुआ, तो भाग लेने वाले इंद्र कुमार गुजराल साहब, अटल बिहारी वाजपेयी साहब थे, जो दोनों बाद में देश के प्रधानमंत्री बने; और नवल किशोर शर्मा थे, जो इंदिरा गाँधी की कैबिनेट मंत्री थे और बाद में गुजरात के राज्यपाल बने। इस कार्यक्रम का संचालन एक बहुत बड़े मूर्धन्य पत्रकार थे भारत के, उनका नाम में इस समय भूल रहा हूँ; उन्होंने इसका का संचालन किया था कार्यक्रम। तो यह हमारा स्टैंडर्ड होता था। स्थिति यह थी कि अगर

8:45 बजे कहीं खबर आती थी कि किसी को नोबेल पुरस्कार मिल गया, तो वह हम पहले ही 8:05 बजे ही बता चुके होते थे। तो यह बहुत ही तेज़ चैनल था। पाकिस्तान में सब लोग जानना चाहते थे कि क्या नयी खबरें हैं। इसमें स्पोट्र्स के कार्यक्रम भी हम देते थे। जब हमारा स्पोट्र्स कार्यक्रम शुरू होता था, तो लाखों लोग उसे सुनते थे। तो इसके बहुत श्रोता थे। तब इंटरनेट तो था नहीं। यह मैं सन् 1988 की बात कर रहा हूँ। हमारे यहाँ तो पीटीआई और यूएनआई के टेलीप्रिंटर भी लगे थे। एकदम बिल्कुल ताज़ा-तरीन सूचनाएँ लोगों तक पहुँचाते थे हम। उस समय जब लोग रोज़े रखते थे, तो हिन्दुस्तान से पाकिस्तान तक सुबह-सुबह नेशनल चैनल सुनते थे। उन्हें सारी जानकारी इस चैनल से मिल जाती थी। वह हम लोगों ने शुरू किया, तो भारत के सभी लोग और भारत से बाहर के लोग उसे सुना करते थे। जो देश कार्यक्रम सुना करते थे, उसमें श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान और मालदीव के लोग शामिल थे। हज़ारों चिट्ठियाँ आती थीं। उस समय यह एक बहुत बड़ी योजना थी नेशनल चैनल की। उसका बहुत बड़ा ट्रांसमीटर नागपुर में तो था ही, 1000 वार्ड का भारत का सबसे बड़ा और तीन और ट्रांसमीटर लगाने की योजना थी- एक पूर्वी भारत में, एक एक उत्तर भारत में और एक दक्षिण भारत में। यह बहुत महत्त्वाकांक्षी परियोजना थी। बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि यह खत्म हो गया। इसका बहुत अफसोस किया जाना चाहिए। क्योंकि इन चीज़ों का हम किसी गणित के सूत्र की तरह आकलन नहीं लगा सकते कि इससे कितने लोगों को फायदा हो रहा था या कितने लोगों का इससे लगाव था।

सुना है जब स्मृति ईरानी एचआरडी मिनिस्टर थीं, तब बिना रिक्तियाँ निकाले कुछ भर्तियाँ कर दी गयीं?ं

नहीं, देखिए हम 2015 तक थे वहाँ, उसके बाद क्या हुआ हमें नहीं मालूम। हम जब थे, तब अरुण जेटली जी एचआरडी मिनिस्टर थे। तब तो कुछ ऐसा नहीं हुआ, बाद में पता नहीं क्या बदलाव आये आकाशवाणी में।

मैंने सुना है कि आपका मन की बात को लेकर कोई विवाद हुआ था? शायद आपने जनता की ओर आया कोई सवाल कर दिया था प्रधानमंत्री से?

नहीं, नहीं; मेरे समय ऐसा कुछ नहीं हुआ था। शुरू में ज़रूर जब यह कार्यक्रम शुरू हुआ था, तो सामान्यतया कुछ चीज़ें होती हैं, जैसे उच्चारण को लेकर, तकनीकी सहयोग को लेकर, जो बतानी ही पड़ती हैं। वो मैंने उनके (प्रधानमंत्री के) अधिकारियों को बता दी थीं और उन्होंने ठीक भी कीं।

आप एक अच्छे शायर/कवि हैं। आपकी ख्याति भी बहुत है। आकाशवाणी में आपका चयन क्या आपके कवि होने के आधार पर हुआ था?

आकाशवाणी में सेवा के दौरान मैंने कभी अपनी कविताओं का रेडियो पर प्रसारण नहीं किया। मैंने इसको नौकरी से बिल्कुल अलग रखा। रही कविता की बात, तो यह कला तो मुझमें बहुत पहले आ गयी थी। अच्छा, आकाशवाणी में मेरा चयन भी इसी आधार पर हुआ था। होता क्या था कि आकाशवाणी में चयन की शर्त ही यह थी कि अभ्यर्थी के पास मास्टर डिग्री के साथ-साथ साहित्य में, विज्ञान में, संगीत में या अन्य किसी विधा में राष्ट्रीय स्तर की उपलब्धि होनी चाहिए। तो मेरा चयन भी इसी आधार पर हुआ था। क्योंकि आकाशवाणी ज्वाइन करने से पहले मैं राष्ट्रीय स्तर पर कवि के रूप में जाना जाने लगा था। मैं सन् 74 में एक तरह से नियमित तौर पर कविता के क्षेत्र में आ गया था। इसका मुझे आकाशवाणी में बहुत फायदा मिला। मैंने इस विधा के नये-नये कलाकारों को खोज-खोजकर मौके दिये? आकाशवाणी में आने के बाद मैंने कई प्रयोग किये। जैसे मैं फिजिक्स का छात्र रहा हूँ, तो मैंने विज्ञान सम्बन्धी कार्यक्रम बहुत कराये, ताकि युवाओं में वैज्ञानिक मानसिकता का विकास हो। दूसरा यह है कि मैं कवि/साहित्यकार भी हूँ, तो कवियों/साहित्कारों को भी मैंने मौके दिये। सोचो कम-से-कम एक दर्जन से ज़्यादा कार्यक्रम मैं करता था। मैं हर महीने आमंत्रित श्रोताओं के लिए तरह-तरह के कार्यक्रम करता था।

कुछ लोग आतुकांत कविताएँ लिखने के नाम पर गद्य की पंक्तियाँ तोड़-मरोड़कर लिख देते हैं। चुटकुलेबाज़ी करते हैं। क्या उसे कविता कहेंगे?

नहीं, देखिए सवाल आतुकांत कविता का नहीं है। सवाल है हास्य-व्यंग्य के नाम पर फूहड़ता परोसने का। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। आतुकांत कविता तो आजकल खूब लिख रहे हैं लोग और अच्छी कविताएँ लिख रहे हैं। मैं भी आतुकांत कविता लिखता-सुनाता हूँ, लालिकले से भी मैंने अपनी आतुकांत कविता पढ़ी है। लेकिन, उसमें संप्रेषणीयता होनी चाहिए, वह लोगों को समझ में आनी चाहिए। अब हर क्षेत्र में कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो अच्छा काम नहीं कर पाते, मगर ऐसे लोगों की संख्या काफी कम है। ऐसे लोग समझते हैं कि गद्य की एक पंक्ति छोटी और एक बड़ी कर देने से, वह भी जटिल सी; कविता हो जाती है, तो या एक भूल है। बाकी हर विधा में अनेक स्वरूप होते हैं। अब हर बात तो छंद या गज़ल में कही नहीं जा सकती, तो आतुकांत कविता वहाँ बड़ा अच्छा माध्यम बनती है। जैसे अगर हर बात कहानी में कही जा सकती थी, तो उपन्यास की ज़रूरत क्यों पड़ती और अगर उपन्यास में हर बात कही जा सकती तो कहानी और फिर लघु कथा की आवश्यकता क्यों पड़ती?

इसीलिए आकाशवाणी में मैंने कविता के सात रंग के नाम से एक कार्यक्रम चलाया। उसमें क्या होता था कि मैं कविता की हर विधा के रचनाकारों को बुलाता था। शायरों को भी और कवियों को भी। तो उनमें दूरियाँ घटती थीं।

इसी तरह उर्दू के एक कार्यक्रम में हम एक बुजुर्ग शायर, को एक प्रौढ़ शायर को और एक युवा शायर को एक साथ बुलाते थे। ऐसे बहुत से कार्यक्रम हम चलाते थे। जैसे- सिलसिला, शाम की चाय आदि-आदि।

इन कार्यक्रमों में पद्म विभूषण और इसी तरह की बड़ी-बड़ी हस्तियों को भी बुलाते थे और युवाओं को भी मौके देते थे। बड़ी हस्तियों में सोनल मानसिंह, एक बहुत बड़ी लोकसभा  अध्यक्ष थीं हमारी, वो, बछेंद्री पाल, हरिप्रसाद चौरसिया जैसी हस्तियाँ आती थीं। इसी तरह हमने एक कार्यक्रम चलाया कथा गोष्ठी। इसमें निर्मल वर्मा, मैत्रेयी पुष्पा, राजेंद्र यादव, चित्रा मुद्गल, मतलब जितने बड़े-बड़े नाम आप सोच सकते हो; सबको बुलवाकर हम आम लोगों और नये कलाकारों से जोडऩे की कोशिश करते थे। ऐसे कार्यक्रम तो लगातार साहित्य अकादमी भी नहीं करा पाती।

अब देखिए, हम एक कार्यक्रम चलाते थे जनमंच मंच। इस कार्यक्रम में हम केंद्रीय मंत्रियों, केंद्र के बड़े अधिकारियों को बुलाते थे। इसमें जनता सीधे जन-समस्याओं को उनके सामने रखती थी। तो एक बार क्या हुआ कि कश्मीर में सेव की फसल खराब हो रही थी। तो एक केंद्रीय मंत्री को आकाशवाणी के कार्यक्रम में जैसे ही पता चला, उन्होंने दूसरे दिन ही अपनी टीम हवाई जहाज़ से वहाँ भेजी और करोड़ों रुपये की सेब की फसल बच गयी। इसी तरह उस समय रेलमंत्री से एक कार्यक्रम में मैंने ही कहा कि ट्रेनों में जनरल के दो ही डिब्बे होते हैं, जिससे जनता को बहुत परेशानी होती है। तो उन्होंने उसी समय घोषणा की कि अब से हर ट्रेन में जनरल के चार डिब्बे लगेंगे और तब से हर ट्रेन में जनरल के चार-चार डिब्बे लग गये, जो आज तक चल रहे हैं। तो यह भी हमारी आकाशवाणी दिल्ली की देन है। इसी तरह एक बार हमने दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीली दीक्षित को बुलाया, तो पुरानी दिल्ली में किसी स्रोता ने फोन करते कहा कि वहाँ कई साल से पानी बह रहा है, जिससे बहुत परेशानी होती है। तो वहाँ के लोगों की वह समस्या सात दिन के अन्दर हल हो गयी। मतलब फोनिंग कार्यक्रम के माध्यम से जनता अपने प्रतिनिधियों से सीधे संवाद करती थी। और मेरा मानना है कि अगर सभी चैनलों पर या िफजूल चीखने-चिल्लाने और वाहियात िकस्म की सनसनी फैलाने की बजाय पत्रकार सही तरीके से पत्रकारिता करें, जिसे हम डवलपमेंटल जर्नलिज्म कहते हैं; तो देश का महज़ दो साल में कायाकल्प हो सकता है।

आपने अनेक प्रतिभाओं को मौके दिये। कैसा लगता है?

मैं आकाशवाणी के अपने सेवाकाल में शाम को छुट्टी के बाद कभी सीधे घर नहीं गया। और मैंने कभी छुट्टी भी नहीं ली सिवाय माँ-बाप के गुज़रने के समय के अलावा। दफ्तर से मैं सीधे कार्यक्रमों में जाता था। यह मैंने हमेशा किया है, ताकि नयी-से-नयी प्रतिभाओं की खोज की जा सके। इस तरह मैं अनेक प्रतिभाओं को खोज-खोजकर उभारने का प्रयास करता रहा। आज उनमें कई प्रतिभाएँ नेशनल स्तर पर सम्मानित हैं। अच्छा लगता है।

सही कहा, आप कविता के लिए समय कैसे निकालते हैं?

यह सिलसिला भी चलता रहा। जैसा कि मैंने बताया कि मैं दफ्तर से कभी सीधे घर नहीं गया। इसी तरह कविता के लिए समय निकालकर मेहनत करता रहा और मेरा सौभाग्य रहा कि मैं देश-विदेश में अनेक कार्यक्रमों में कवितापाठ करता रहा हूँ। अभी 22 फरवरी को एक कार्यक्रम में मैंने कविता की 25 विधाओं में रचनापाठ किया था।

आपकी पत्नी ममता किरण जी भी कवयित्री हैं। आप दोनों के बीच में तारतम्य बनता है?

हाँ, तारतम्य बनता है। दोनों अपने-अपने काम पर ध्यान देते हैं। कई कार्यक्रमों में हम दोनों साथ-साथ रचनापाठ करने जाते हैं और कई बार हमें पता ही नहीं होता कि उनका कहाँ कार्यक्रम है? एक बार तो एक ही संस्था ने दोनों को बुलाया और दोनों को ही पता नहीं था इस बात का। वे उर्दू प्रोग्राम में गयीं और मैं हिन्दी प्रोग्राम में; वहाँ जाकर हमें पता चला कि एक ही संस्था ने दोनों को बुलाया है।