साक्षात्कार: तेज़ी से असर करने वाली दवा है गज़ल…

पिछले अंक में आपने मशहूर शायर मोहतरम मुनव्वर राणा से सुनील कुमार की बातचीत का पहला अंश पढ़ा। उस अंक में राणा साहब ने उनको माँ तक महदूद करने वालों पर हैरत जतायी थी और बताया था कि वे न केवल शायरी करते रहे हैं, बल्कि नस्र यानी गद्य भी लिखा है। प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के आगे के अंश

राणा साहब बता रहे थे- ‘मैं शायरी छोड़ नहीं सकता है; क्योंकि शायरी तेज़ी से असर करने वाली दवा है। और गद्य होम्योपैथिक की दवा है, जिसका असर धीमे-धीमे होता है!’ (आगे)…तो मुझे भी लगता है कि गद्य लिखना भी कम कठिन नहीं है। अच्छा मुझसे किसी ने पूछा कि आपको गद्य लिखने का शौक कहाँ से पैदा हो गया? तो मैंने कहा कि मेरे पास एक विचार था, जिसको हम गज़ल बनाना चाहते थे। तो हर विचार तो गज़ल के रूप में नहीं कह सकते। तो बाद में मैंने अपनी पत्नी को जो किताब डेडीकेट (समॢपत) की है, तो वह सेंटेंस (वाक्य) हमने पत्नी को समॢपत किया। तो वाक्य यह था कि किताब… ज़िन्दगी फूल है। उसमें मैंने अपनी पत्नी के लिए लिखा- अपनी बीवी रईना के नाम! जिनको मैंने अपनी गुर्बत के दिनों में भी ऐसे रखा, जैसे कोई मुकद्दस किताबों में मोर के पर (पंख) रक्खे जाते हैं। तो मेरे कहने का मतलब यह है कि मैं अपने इस विचार को गज़ल बना नहीं पाया। मगर मैं इस विचार को जाया होने देना भी नहीं चाहता था। तो यहाँ से गद्य लिखने का मुझे शौक पैदा हुआ। तो बहरहाल तो यह खुशी है कि हमारी गज़ल की कोई किताब हो या हमारी नस्र (गद्य) की किताब हो, दोनों वैसे ही बिकती हैं, दोनों को हर तरह के लोग पसंद करते हैं। अच्छा एक बात यह है कि गज़ल कहना बाबा रामदेव के च्यवन प्राश को कैप्सूल में भरने की तरह है। यह बहुत मुश्किल काम है। लेकिन गद्य लिखना बहुत आसान काम है। लेकिन अच्छा गद्य लिखना बहुत दुश्वार काम है। शायर अगर गद्य लिखे, तो बहुत अच्छा गद्य लिख सकता है। लेकिन शायर इतना आसान तलब हो जाता है कि वह सोचता है कि एक शेज्र यहाँ लिखेंगे, उसके बाद एक आगे जाकर कह लेंगे, फिर एक उन्नाव में कह लेंगे, दो कानपुर में कह लेंगे और मुशायरे में जाकर पढ़ देंगे। वो आसान काम है या शायरों को आसान लगता है। अच्छा गद्य में यह है कि अगर हमें आपके ऊपर गद्य लिखना पड़े, कोई लेख लिखना पड़े, तो मुझे कुछ आपके बारे में पढऩा पड़ेगा; आपको जानना पड़ेगा; आपके साथ कुछ वक्त बिताना पड़ेगा, आपको जानना पड़ेगा। कुछ यह है कि आपके जिस्म पर, आपके दिल जो दु:ख की, ज़खम की  खराशें हैं, उन्हें समझना पड़ेगा। अच्छा अगर आप पर कोई नज़म लिखना हो, तो मैं लिख सकते हैं कि मेरा प्यार है सुनील, मेरा यार है सुनील…! ऐसे हो सकता है।

लेकिन मेरा मानना यह है हुज़ूर! कि अच्छी गज़ल कहने के लिए या अच्छा शेज्र कहने के लिए सीखना भी पढ़ता है। पढऩा भी पढ़ता है, चाहे शायर किताबें पढ़े, चाहें चेहरे पढ़े, चाहें ज़िन्दगी को पढ़े या चाहें लोगों को, दुनिया को पढ़े। आप इस पर क्या कहेंगे?

पढऩे का तो यह है कि आप कभी लखनऊ तशरीफ लाएँगे, तो हमारी लाइब्रेरी देखकर आपका जी खुश हो जाएगा। एक साहब ने एक बार मुझसे पूछा कि यह सब किताबें आपकी पढ़ी हुई है? तो हमने कहा कि नहीं, इससे ज़्यादा किताबें मेरी पढ़ी हुई हैं। भई, लाइब्रेरी में तो महदूद किताबें होंगी न! चार हज़ार हों, पाँच हज़ार हों, छ: हज़ार हों। हो सकता है इसमें कुछ ऐसी किताबें भी हों, जो न पढ़ी हों; लेकिन ऐसी बहुत-सी किताबें ऐसी उसमें नहीं होंगी, जो हमने पढ़ी होंगी। तो एक ज़माने में यह शौक था। अच्छा, लिखने-पढऩे का यह आलम है कि जब हम लिखते हैं, तो पढ़ते नहीं हैं और जब हम पढ़ते हैं, तो हम लिखते नहीं हैं। न लिखने का आलम यह हो जाता है, यह बड़ा दिलचस्प भी है; कि बैंक हमारा चेक वापस कर देता है; क्योंकि बिना लिखे छ:-छ: महीने हो जाते हैं और हम अपने दस्तखत (हस्ताक्षर) करना भी भूल जाते हैं। छ: महीने न लिखें, या एक साल न लिखें; लेकिन जब लिखना शुरू करते हैं, तो फिर लिखते जाते हैं। एक किताब मुकम्मल करें, दो किताबें मुकम्मल करें। वो एक किताब हमारी है जो ‘नये मौसम के फूल’ है, जिसे नीरज अरोड़ा ने छापा था- दिव्यांश पब्लिकेशन में; वो पूरी शायरी की किताब जो है, वो हमने एक महीने में मुकम्मल की थी। जवान भी थे, उस ज़माने में। एक ज़िद-सी हो गयी थी नसीम-ए-शह्र के साथ, वो किसी उस्ताद शायर का शे’र है न!-

हम ज़िन्दगी की ज़ुल्फ सँवारे चले गये

इक ज़िद-सी हो गयी थी नसीम-ए-शह्र के साथ

तो एक दौर था, जब हम खूब कहते थे; लेकिन अब तो हम बहुत कम शे’र कह पाते हैं। बीमीरियों के चलते एक घुटना हमारा खराब हो गया था, नौ-दस साल पहले; उसके बाद एक के बाद एक कई ऑप्रेशन हुए।

एक सवाल यह है कि आपने अपने बचपन में बहुत से करीबी रिश्तों को खोया। गुर्बत में भी शुरुआती ज़िन्दगी जी और उस गुर्बत से आपने अपने परिवार को निकाला। दूसरी तरफ आपने शायरी भी की, खुद को बड़ा शायर बनाया। तो एक तरफ ज़िन्दगी की जद्दोजहद और दूसरी तरफ शायरी, तो दोनों को एक साथ कैसे लेकर चले?

हमारा एक शे’र है-

वो मुफलिसी के दिन भी गुज़ारे हैं मैंने जब

चूल्हे से खाली हाथ तवा भी उतर गया

तो जब हमारा पूरा खानदान पाकिस्तान चला गया, तब मेरे वालिद ने करीब 26 साल ट्रक भी चलाया जीटी रोड पर, तो उस ज़माने में कभी चूल्हा जलता था, कभी नहीं जलता था। तो इन सब परेशानियों से गुज़रते हुए अच्छे हालात तक पहुँचे हैं। तो उसका एहसास यह रहा कि काम खराब नहीं होना चाहिए, वरना दुनिया यही कहेगी कि बाप-दादा ने बनाया और इन्होंने शायरी में सब बर्बाद कर दिया। तो अपनी ज़िन्दगी को हमने रेल की पटरी बना लिया और मेरा कारोबार उस पर से गुज़रता हुआ एक भारी-भरकम इंजन रहा, जबकि मेरी शायरी उस पर से गुज़रता हुआ एक नन्हा-सा बच्चा रहा। सिर्फ टाइमिंग का मैंने फर्क रखा कि जब इस रेल की पटरी पर से कारोबार का इंजन गुज़रता था, तो बच्चा अलग खड़ा रहता था और जब बच्चा गुज़रता था, तो इंजन वहाँ नहीं होता था। नतीजे के तौर पर मैं शायरी भी करता रहा और कारोबार भी चलता रहा। यानी यह भी एहसास था कि हमारे यहाँ 40-50 आदमी काम भी करते हैं, इतने लोगों की रोज़ी-रोटी का इंतज़ाम ऊपर वाला हमसे करवा रहा है; अगर हमने शायरी की शोहरत में अपने आपको इतना डुबा लिया कि इन लोगों की रोज़ी-रोटी पर असर पड़े, तो यह गलत होगा। वरना एक दौर में िफल्म इंडस्ट्री में भी हमको मौका मिला। अन्नु मलिक यह कहते थे कि आप अगर आ जाओ, तो हम बम्बई को एक नया शायर दे दें। एक िफल्म डायरेक्टर हुआ करते थे- बाबूराम इशारा, जिन्होंने ‘चेतना’, ‘ज़रूरत’, ‘ज़ोरहा’ जैसी िफल्में बनायी थीं। वह बहुत बड़ा टॄनग प्वाइंट था हिंदुस्तानी िफल्मों का; तो वो हमारे बहुत बड़े आशिक थे; वो मुझसे कहते थे कि तुम बम्बई चलो। तो एक तरफ तो यह दुनिया थी, दूसरी तरफ हमारे वालिद साहब थे, जो कहते थे कि बेटा सब तो हमें छोडक़र पाकिस्तान चले गये, तुम हमें छोडक़र मत जाना कहीं। दूसरी बात जब वो बीमार होते थे, तो अक्सर कहते थे कि बेटा मुझे यकीन है कि मेरे न रहने के बाद तुम अपनी माँ और भाई-बहनों को भूखा नहीं रहने दोगे। तो यह ज़िम्मेदारी का जो एहसास था, जो हमे ट्रांसपोर्ट के कारोबार की दुनिया से हमें निकलने नहीं देता था। जब नौजवानी में मैं अपनी अम्मा से कहता था कि हमसे होगा नहीं यह काम, उनसे (पिताजी से) बोलिए कि हमको घर से निकाल दें, हम नहीं करेंगे यह। तो वो हमें समझाती थीं कि भइया! जंजाल अच्छा, कंगाल अच्छा नहीं है। तो फिर हम ज़िन्दगी की भागदौड़ में लग जाते थे काम में। हमारा एक शे’र है कि-

तुझे मालूम है इन फेफड़ों में ज़ख्म आये हैं

तेरी यादों की एक नन्हीं-सी चिंगारी बचाने में

तो कारोबार को बचाने में शायरी के लिए कितना खून थूकना पड़ा और शायरी को बचाने के लिए कारोबार में कितना नुकसान उठाना पड़ा; यह अगर हम लिखें, तो हमारे खयाल से हमारा लिखा खुद हमें शॄमदा करेगा।

यह तो सही कहा हुज़ूर आपने कि शायरी करना खून थूकने के बराबर है। लेकिन…

वो हमारा एक शे’र कि-

मैंने लफ्ज़ों को बरतने में लहू थूक दिया

आप तो सिर्फ यह देखेंगे गज़ल कैसी है