‘सहकारिता आंदोलन’ की छाप

जैसे-जैसे विज्ञान ने तरक्की की, ज्ञान ने तरक्की की और नई टैक्नोलोजी आई वैसे ही सहकारिता आंदोलन भी बहुत तेजी से बढ़ा है। कोई व्यक्ति अकेला किसी काम को नहीं कर सकता इसलिए सहकारी समिति बनाता है। फिर वह पंजीकृत होती है। उसके सदस्यों के चरित्र की जांच रिपोर्ट पुलिस से ली जाती है। पर अब यह आंदोलन बहुत आगे बढ़ गया है। जिस तरह अब कोई नौकरी स्थाई नही रही, कोई रिश्ता स्थाई नहीं, लोग ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहना पसंद करने लगे हैं, इसी प्रकार अब सहकारी समिति को भी पंजीकृत करवाने की ज़रूरत लोगों को नहीं रही है। जब ज़रूरत हो एक नारा दो, और सब इक_े हो जाओ, सड़कों पर पीट-पीट कर किसी की हत्या कर दो, और सब इधर-उधर हो जाओ। खेल खत्म। पकड़ेंगे किसे? हो गया न हत्या करने का सहकारी तरीका।

पिछले दो-चार साल में यह ‘सहकारिता आंदोलन’ बहुत तेजी से बढ़ा है। और क्यों न बढ़़े आखिर गांधीवादी सोच और वामपंथी विचारधारा सहकारिता की बात तो करते हैं। यदि एक आदमी लुक छिप कर किसी की हत्या कर दे तो वह हत्यारा, पर यदि यही काम 20-50 लोग मिल कर कर दे तो राष्ट्रभक्ति। बात तो ठीक है, हमारी संस्कृति में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं, हम सबसे ज़्यादा शांतिप्रिय लोग हंै। ‘हमारे इतिहास में कोई अक्रांता पैदा नहीं हुआ। हम सबसे अधिक सहनशील हैं’। इस तरह के अलफाज़ मैं और मेरी बिरादरी दशकों से सुनते आ रहे हैं। हमें खुद पर गर्व था। पर अचानक इस शांति के अग्रदूत देश में जैसे भूचाल सा आ गया। प्यार-मोहब्बत के प्रमुख प्रहरी समाज में ‘लव जिहाद’ जैसे शब्द पैदा हो गए। ‘ऑनर किलिंग’ का ‘कांसेप्ट’ दिखा। कलमकारों पर गोलियां बरसती देखी, हमने 47 देखा, हमने 84 देखा, 2002 देखा। हमने महात्मा की हत्या होते देखी, हमने ‘गौड मैन’ (बाबा) बलात्कार के मामले में सज़ा काटते देखे। हमने गौरी लंकेश देखी। यह सब होते देखा शांति के पैरोकारों के देश में। उस देश में जहां सहिसुष्णता सबसे ज़्यादा है। जहां अनेकता में एकता है वहां हमने सड़कों पर भीड़तंत्र को देखा, मूक-बधिर बना प्रशासन देखा। बरसों लगाने वाली न्याय प्रक्रिया देखी। हमने हत्यारों का सम्मान करते मंत्री देखे। हमने बलात्कारियों के हक में प्रदर्शन करते सत्तासीन लोग देखे। यह सब हमने और हमारी बिरादरी ने अपनी आंखों से देखा। पर हम चुप हैं। किस से कहें।

यह सभी कुछ उस सहकारिता आंदोलन के ही रूप हैं जिसे हम सभी सफल बनाना और फैलाना चाहते हैं। यह सब सहकारिता के तहत ही हो रहा है, इसकी इससे बड़ी मिसाल यह है कि लाखों लोगों की सड़कों पर हुई हत्या के मामले में एक भी व्यक्ति को सज़ा नहीं हुई है। यदि किसी एक-आध को हो भी गई तो हमारी जनतांत्रिक सरकारों ने उन्हें बचाने में अपनी जी जान लगा दी। यह है सहकारिता आंदोलन। मतलब हत्या करो पर अकेले नहीं ‘सहकारिता’ के साथ। भई मतलब तो खून खराबा करने से है, फिर अकेले बहादुरी दिखाने की क्या ज़रूरत है। ‘सब का साथ-सबका हाथ’ इस नारे के आधार पर अपने जैसे 10-20 लोग इक_े कर लो और कोई भी लांछन लगा कर दिन-दहाड़े खुली गली में या, सड़क पर पीट-पीट कर दो काम तमाम। पुलिस से घबराने की ज़रूरत नहीं वह तो सहकारिता की रक्षा के लिए तैनात है। यदि कोई सहकारिता आंदोलन से भी बच निकले तो उसे आतंकी कह कर पुलिस से गोली मरवा दो। कौन पूछेगा? आका आपके साथ और फिर मामला सहकारिता आंदोलन का जो है।

देखा आपने जो काम अदालतें सालों में नहीं कर पाती वह सड़कों पर आसानी से हो जाता है। वैसे भी पुलिस की हिरासत में अदालत ले जा रहे ‘सहकारिता आंदोलन’ विरोधी लोगों की पिटाई कर देना देश के बहादुर लोगों के लिए गर्व की बात होती है। पुलिस उस समय हस्तक्षेप करती है, जब वह व्यक्ति पिट जाए। यह दीगर बात है कि ऐसी पिटाई से बच निकले कुछ लोग पीएचडी कर राजनीति में आ जाते हैं और इस तरह की ‘सहकारिता’ करने वालों के पैरों तले की ज़मीन खिसक जाती है। पर क्या करें यह भी एक प्रक्रिया है।

जो भी हो ‘सहकारिता आंदोलन’ चलता रहना चाहिए। लोकतंत्र में लोग ही महत्वपूर्ण होते हैं, फिर वे चाहे ‘सहकारिता आंदोलन’ चलाने वाले ही क्यों न हों। हम लोगों में बहुत सहनशक्ति है, पर हर सहनशीलता की एक सीमा होती है। इस कारण पता नहीं सड़कों पर मरने वालों की सहनशक्ति कब जवाब दे दे?