सरकार को सिर्फ़ अपनी चमक की चिन्ता

वर्तमान एनडीए सरकार की उसके प्रदर्शन के बारे में सकारात्मक माहौल बनाये जाने की अक्सर आलोचना की जाती रही है। हालाँकि हाल के विधानसभा चुनावों के नतीजे, महामारी से बिगड़े हालात पर स्वास्थ्य प्रणाली पर सवालिया निशान और किसान आन्दोलन का समाधान खोजने में नाकाम रहने पर माहौल बदला है। ऐसे समय में जब सरकार तेज़ी से कार्य करने का दावा कर रही थी, तब भी असन्तुष्ट अधिकारी यह साबित करने पर तुले थे कि सब कुछ ठीकठाक चल रहा है।
हाल ही में प्रभावी संचार के लिए आयोजित एक कार्यशाला में केंद्र सरकार के क़रीब 300 आला अधिकारियों ने शिरकत की। आंतरिक सूत्रों ने बताया कि सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर भी कार्यशाला में मौज़ूद थे। कार्यशाला का संचालन माईजीओवी के सीईओ अभिषेक सिंह ने किया था। यह मंच सरकार की सकारात्मक छवि बनाने के लिए नागरिक सहभागिता का एक सरकारी मंच है। इस पूरी क़वायद का मक़सद उस माहौल को बदलना था, जिससे सरकार ऐसी दिखे कि वह संवेदनशील, साहसी, त्वरित, उत्तरदायी, जनता की बात सुनने वाली और समाधान खोजने के लिए तत्पर है।


दिलचस्प है कि देश में बिगड़े हालात के नज़रिये को बदलने की आवश्यकता तब महसूस की गयी, जब भारतीय निर्वाचन आयोग ने मद्रास उच्च न्यायालय की उसके ख़िलाफ़ की गयी मौखिक टिप्पणियों को देश की सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा था कि चुनाव में कोरोना वायरस फैलने से रोकने के लिए कोरोना प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया गया और इस पर चुनाव आयोग के ख़िलाफ़ का हत्या का मामला दर्ज किया जाना चाहिए। राजनीतिक दलों को चुनावी रैलियों में कोविड-19 प्रोटोकॉल के दुरुपयोग पर रोक नहीं लगायी गयी। न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और एम.आर. शाह की खंडपीठ ने भारत के चुनाव आयोग से कहा कि मामलों की सुनवाई करते समय न्यायाधीशों द्वारा की गयी टिप्पणियाँ व्यापक जनहित में हैं और मीडिया को उन्हें रिपोर्ट करने से नहीं रोका जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हम आज के समय में यह नहीं कह सकते कि मीडिया अदालत में होने वाली चर्चाओं की रिपोर्ट नहीं करेगा।
यह महज़ कोविड-19 के बाद का परिदृश्य नहीं है, तथ्य यह है कि सरकार की नीति एक विलक्षण मूल भाव की विशेषता की रही है। नैरेटिव को बदलने के लिए स्क्रिप्ट को बदलना। यह मौलिक मान्यताओं के रूप में मौलिक मान्यताओं को चुनौती देने की अपनी क्षमता पर टिकी हुई है। सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान कथा को कैसे बदला जाए? यह पिछली सरकारों के तहत किये गये कार्य, इस सरकार द्वारा उठाये गये क़दमों से इतर साबित हुए। पूर्व की सरकारों में इस तरह के मामलों को गुप्त रखा जाता था। लेकिन अब फ़ायदा उठाने के लिए उनको सार्वजनिक किया जाता है। प्रचार कथानक (स्क्रिप्ट) में बदलाव के संकेत से माहौल बनाने में मदद मिलती है, जैसे जोखिम लेने के दावे। वर्तमान में ऐसे बयान देकर माहौल बनाया जाता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने कुछ भी नहीं किया है। बदलाव के बाद राजनीतिक बयानों, कूटनीतिक क़दमों और इस सरकार द्वारा अपने जोखिम लेने के दृष्टिकोण के समर्थन में किये गये सैन्य विकल्पों के संयोजन से सर्वोत्तम रूप से समझाया जाता है। थोड़े समय के लिए ऐसा लोगों के दिमाग़ में भरा जा सकता है; लेकिन हमेशा के लिए इसे लागू इसमें निहित सभी मुद्दों को हल करने के लिए लम्बी रणनीति अपनानी होती है।
उदाहरण के लिए भारत वैश्विक कोरोना महामारी की दूसरी लहर से बुरी तरह जूझ रहा है और इसी बीच क़रीब 20,000 करोड़ रुपये की लागत से बनायी जा रही सेंट्रल विस्टा परियोजना सत्ता के गलियारों में कई चर्चाओं का केंद्र में है। इसे आवश्यक सेवा की श्रेणी में रखा गया है। जब कोरोना मरीज़ों को ऑक्सीजन और वेंटिलेटर न मिलने पर मौत हो जा रही हैं, वैसे समय में इस परियोजना पर काम चल रहा है। इसके लिए बाक़ायदा विशेष अनुमति दी गयी है, ताकि परियोजना का काम न रुके। आप इसे ग़लत प्राथमिकताएँ या अहंकार कह सकते हैं। परियोजना में वर्तमान संसद भवन की जगह एक नया संसद भवन शामिल है, जिसमें प्रधानमंत्री और उप-राष्ट्रपति के लिए नया आलीशान आवास और कई केंद्रीय सरकारी विभागों के लिए कार्यालय होंगे। इसमें एक नया संसद भवन परिसर होगा। इसके उच्च सदन में 1,224 सदस्य और निचले सदन में 888 सदस्य बैठने की क्षमता होगी। वर्तमान में उच्च सदन 245 को समायोजित करता है, जबकि निचले सदन की क्षमता 545 है। नये परिसर में संसद के सभी सदस्यों के लिए अलग-अलग कार्यालय भी होंगे। इसमें चार मंज़िला इमारतों वाला प्रधानमंत्री का निवास भी है। सरकार का लक्ष्य दिसंबर, 2022 तक सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को पूरा करना है।
आमतौर पर यह माना जाता है कि विदेशी मीडिया सरकार की धारणा पर बहुत गहरी चोट कर रहा है। ‘द गार्जियन’ में प्रकाशित एक लेख में कहा गया था कि भारत में ऑक्सीजन की क़िल्लत है। लेकिन उसके सियासतदान इस बात से इन्कार करते हैं कि वहाँ कोई समस्या है। लेखक द गार्जियन में कहते हैं कि ऐसे समय में जब देश अपने कोविड-19 रोगियों के लिए ऑक्सीजन हासिल करने के लिए मारामारी करनी पड़ रही है, कई जगह कमी के चेलते लोग जान भी गँवा रहे हैं। इस दौरान भी सियासी नेता न केवल उपेक्षा कर रहे हैं, बल्कि उन लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की धमकी देते हैं, जो इस बारे में सच्चाई को सामने ला देते हैं।
सीएनएन के एक लेख में देश भर में कोविड के मामलों में वृद्धि के लिए चुनावी रैलियों कोज़िम्मेदार माना गया है। इसमें कहा गया है कि भारत में दूसरी लहर कीज़िम्मेदारी सरकार की पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण थी और लोग अपनी सरकारों से उम्मीद करते हैं कि वे उन्हें आश्वासन दें और उनकी देखभाल करें। लेकिन सरकार अपना काम करने में पूरी तरह से नाकाम रही या कहें कि ग़ायब रही।
अटलांटिक के संपादकीय में लिखा कि मौज़ूदा संकट को हल करने में मदद करने के लिए सरकार को पहली और दूसरी लहर के बीच बहुत कम समय मिला। भारत में वायरस का संक्रमण फैलने के बाद पहले क्रूर तालाबन्दी की गयी थी, जिससे सबसे ग़रीब और कमज़ोर लोगों को चोट पहुँची। लॉकडाउन कथित तौर पर देश के शीर्ष वैज्ञानिकों से परामर्श के बिना लगाया गया था। फिर अभी तक देश के स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढाँचे के निर्माण के लिए न तो समय का उपयोग किया गया और न ही सरकार ने इस महामारी की जंग को जीतने के लिए कोई ख़ाका पेश किया।
फाइनेंशियल टाइम्स ने भारत की दूसरी लहर की त्रासदी शीर्षक से लिखे लेख में चेतावनी दी है कि अस्पतालों के बाहर सडक़ों पर लोगों को ऑक्सीजन की कमी से मरते देखने की रिपोर्ट करना विचलित करने वाला है। जबकि कोरोना वायरस की पहचान 16 महीने पहले हो चुकी थी। फ्रांसीसी अख़बार ‘ले मोंडे’ ने लिखा है कि दूरदर्शिता, अहंकार, और लोकतंत्र की कमी ज़ाहिर तौर पर ऐसी स्थिति के कारणों में से एक है, जिससे अब स्थिति नियंत्रण से बाहर हो
गयी है।


टाइम पत्रिका ने लिखा- ‘भारतीय मीडिया सरकार की सफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है, उसमें जवाबदेही की कमी है, इसकी वजह से मौज़ूदा संकट पैदा हुआ है। कई हिन्दी और अंग्रेजी भाषा के समाचार चैनलों के साथ-साथ क्षेत्रीय समाचार माध्यमों ने सरकार की सफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया; जबकि उसकी विफलताओं को उजागर नहीं किया। साथ ही विपक्ष, मुस्लिमों और वामपंथियों व एनजीओ के प्रदर्शनकारियों को देश विरोधी के रूप में पेश करने के लिए लगा रहा। आलोचना पर ऐसे समय चिन्ता ज़ाहिर की जा रही है, जब बेड और ऑक्सीजन की देश में व्यापक कमी के चलते बड़ी तादाद में लोगों की मौत हो रही है। चिताओं की आग बुझ नहीं रही है। और तो और नदियों में तक लोग शवों को बहा दे रहे हैं। इससे हालात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
वहीं, इसी बीच वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के साथ एक वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से आयोजित कार्यशाला से पता चलता है कि सरकार गम्भीरता से बदलाव के लिए नैरेटिव को नकारात्मक से सकारात्मक करने की कोशिश में लगी है। उदाहरण तौर पर 18 साल से अधिक उम्र के लोगों के टीकाकरण पंजीकरण के दौरान कोविन पोर्टल के क्रैश होने की ख़बर छापने से सरकार नाराज़ हो जाती है। दरअसल, दूसरी कोविड लहर की शुरुआत के बाद से ही सरकार बैकफुट पर है। महामारी के अपने कुप्रबन्धन के लिए उसे हरिद्वार में कुम्भ मेला और चुनावी रैलियों जैसे बड़े सार्वजनिक भीड़ जमा करने वाले आयोजनों को अनुमति देना शामिल है। सरकार की कोशिश है कि इस तरह का माहौल बने कि ये सब चीज़ों गौण हो जाएँ।