सरकारों को परवाह नहीं किसानों की

आज़ादी के बाद के 70 सालों में देश ने कई मोर्चों पर तरक्की की है। खासतौर पर उद्योग और सेवा क्षेत्र में भारी निवेश आया है। पर दुख की बात यह है कि इन क्षेत्रों में उठाया गया हर कदम किसानों में निराशा ही लेकर आया।

भारत एक विशाल देश है। इसमें सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक तानाबाना भी अलग तरह का है। हर क्षेत्र में अलग तरह की समस्या नजऱ आती है। अलग क्षेत्र में शहरीकरण, औद्योगीकरएा, स्वास्थ्य और शिक्षा की विभिन्न समस्याएं हैं। किसानों की आत्महत्याएं यदि तमिलनाडु में हो रही हैं तो पंजाब भी उनसे अछूता नहीं है।

यहां एक तरफ धरती के नीचे घटते जलस्तर की समस्या है तो दूसरी तरफ किसानों को मिलने वाले न्यूनतम मूल्य में सुधार न होने की। इसी कारण किसानों को शोषण से भी दो चार होना पड़ता है।

इंडियन नेशनल सैम्पल सर्वे (एनएसएसओ) के मुताबिक 2003 में किए अध्ययन के मुताबिक 40 फीसद किसान खेती का काम छोड़ कर कोई और धंधा करना चाहते हैं क्योंकि खेती में अब कोई लाभ का काम नहीं रह गया है।

खाद और बीजों की लगातार बढ़ रही कीमतें और फसलों की कीमतों में बढ़ोतरी न होना, बीजों का समय पर न मिलना, ये मुख्य कारण हंै कि किसान खेती से दूर होने की कोशिश कर रहा है। लेकिन समस्या यह है कि पुश्तों से खेती कर रहे किसान को और कोई काम आता भी नहीं है।

इन सब बातों से परेशान किसान ने अब आंदोलन की राह पकड़ी है। देश के हर भाग मेें आंदोलन चल रहे हैं। छह जून 2017 को मध्यप्रदेश के मंदसौर में पुलिस की गोली से छह किसान मारे गए थे। इस घटना में आठ घायल भी हुए। तमिलनाडु में जबरदस्त सूखे के हालात हैं। पिछले 140 सालों से वहां ऐसा सूखा कभी नहीं पड़ा। यहां भी किसानों का भारी आंदोलन चल रहा है ताकि उन्हें कुछ राहत दी जाए।

पिछले साल नवंबर में तेलंगाना के किसानों ने दिल्ली आकर आंदोलन किया। उनकी समस्या यह थी कि अक्तूबर के महीने में हुई गैर मौसमी बरसात से सारी फसलें बरबाद हो गई थी। सरकारी एजेंसियों ने गीला होने के कारण इसे नहीं खरीदा। दूसरी और निजी अदारे 4,320 रुपए प्रति क्विंटल के न्यूनतम मूल्य की जगह उन्हें 2800 से 3500 रुपए प्रति क्विंटल का भाव दे रहे थे।

किसान चाहे विभिन्न मंचों में लड़ रहे हो पर उन सभी की मांगें समान हंै। इस समय 26 फसलें एमएसपी के तहत आती हैं पर सरकारी खरीद केवल गेंहू और चावल की होती है।

गोदामों की कमी के कारण किसान अपना अनाज संभाल कर नहीं रख सकते। इस कारण उन्हें अपना अनाज औने-पौने भाव में बेचना पड़ता है। इस समस्या के हल के लिए गांवों में अच्छे गोदाम बनाने ज़रूरी है।

मौसम के कारण किसानों को होने वाले नुकसान को रोकना तो मुश्किल है पर बीजों, खाद और भंडारण की व्यवस्था तो किसान के लिए सरकार को करनी चाहिए। पिछले साल भारत सरकार ने सुप्रीमकोर्ट को बताया था 2013 के बाद से देश में हर साल 12,000 किसान आत्महत्या करते हैं। किसानों में आत्महत्या के आंकड़े बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। पंजाब में स्थापित तीन विश्वविद्यालयों ने किसान आत्महत्या के कारणों पर काम किया। इसकी रिपोर्ट के मुताबिक 2000 से 2015 तक के सालों में 16,000 किसानों ने अपनी जान ली।

राज्य सरकारें किसानों के कजऱ् माफ करने की घोषणाएं करती रहती हैं। चुनावों के दौरान उत्तरप्रदेश में भाजपा और कांग्रेस दोनों ने किसानों के कजऱ् माफी के बड़े-बड़े वादे किए थे। यही बात कर्नाटक में भी हुई। मध्यप्रदेश में राहुल गांधी ऐसी घोषणा कर आए।

खुली बाज़ार अर्थव्यवस्था के बाद कृषि क्षेत्र में निवेश कम होता गया। निजी क्षेत्र कृषि में निवेश नहीं कर रहा। भारत की 70 फीसद आबादी गांवों में रहती है। उनकी समस्याएं अत्यंत गंभीर है। भारत में मांग और आपूर्ति में भारी अंतर है। राजनैतिक दल इसका लाभ उठाते हैं।

इस मामले में मिजोरम, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के चुनाव अति महत्वपूर्ण हैं। असल में किसानों को ऋण माफी के अलावा कुछ और भी चाहिए।

उधर दक्षिण भारत में-

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में बनी भाजपा की एनडीए सरकार के तीसरे और चौथे साल भी व्यापक तौर पर किसान आंदोलन हुए। केंद्रीय कृषि मंत्री ने तो इन आंदोलनों पर यहां तक कहा कि ‘किसान टीवी कैमरे पर प्रचार पाने के लिए सड़कों पर सब्जियां फैंक रहे हैं और दूध उड़ेल रहे हैंÓ। हो सकता है मंत्री महोदय नेता बनने के गुर बता रहे हों। लेकिन पूरे देश में किसानों ने पहली से दस जून तक कई राज्यों में आंदोलन छेड़ दिया है वह अब सड़कों पर है।

किसानों की मांग है कि उन्हें उनकी लागत का ड्योढ़ मिलना ही चाहिए। उन्हें बीज, पानी, जुताई, फसल बीमा बिक्री का बंदोबस्त और कजऱ् में माफी भी दी जानी चाहिए। मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने आंदोलनकारी किसानों पर गोलियां चलाई जिसमें छह किसान मारे गए। महाराष्ट्र में नासिक से मुंबई तक दवेंद्र फडणवीस सरकार के खिलाफ किसानों ने लांग मार्च किया। कुछ मांगे मंजूर हुई। कई कालीन के भीतर दबा दी गई। पंजाब सरकार ने कजऱ् माफी पर संिमति गठित की थी जिसने अपनी रिपोर्ट भी पेश कर दी लेकिन केंद्र से मदद न मिलने के कारण वह रिपोर्ट फाइलों तक ही रह गई। उसकी तरह कर्नाटक की जद(एस) सरकार ने कजऱ् माफी घोषित की। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव इन्वेस्टमेंट स्कीम के जरिए खुद ही किसानों के लिए नई योजना शुरू की है।

कर्नाटक में कुमारस्वामी ने फिर कहा है कि किसान उन्हें 15 दिन का समय दें वे किसानों के 73 हजार करोड़ के कजऱ् ज़रूर माफ करा ले जाएंगे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत के किसानों की औसत आय बमुश्किल सौ रुपए रोज भी नहीं है। किसानों की उपज की आय से तीन गुना आमदनी बिचौलिए उठाते रहे है।

कर्नाटक ने 2013 से 2017 के बीच चार साल तक लगातार सूखा झेला और इन सालों में देखी 3,515 किसानों की आत्महत्याएं। किसानों की मंाग है कि उनके सारे कजऱ् माफ कर दिए जाएं क्योंकि वे पिछले चार सालों में सभी कुछ खो चुके हैं। यहां तक कि जब फसलें तबाह नहीं भी हुई थी तब कीमतों की भारी गिरावट ने उन्हें कजऱ् के जाल में उलझा दिया। राज्य में फसल का कुल कजऱ् 53,000 करोड़ है। पर यदि इसमें उनके घरेलू और पारिवारिक कजऱ् को भी जोड़ा जाए तो यह रकम इससे दुगनी भी हो सकती है।

कांग्रेस और भाजपा की तरह जनता दल (एस) ने भी चुनावों के दौरान कजऱ् माफी का वादा किया था। असल में पिछले साल तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्दारामैया ने उन किसानों में कजऱ् माफ किए थे जिन्होंने सरकार द्वारा चलाए जाने वाले सहकारी बैंकों से 50,000 रुपए तक का कजऱ् लिया था लेकिन इसमें वे किसान कवर नही हो पाए थे, जिन्होंने राष्ट्रकृत बैंकों से कजऱ् ले रखा था।

स्वभाविक तौर से अब किसान कर्नाटक सरकार से पूर्ण कजऱ् माफी की आस कर रहे हैं। इसके साथ ही वे वित्तीय संस्थाओं से भी इसी आधार पर कजऱ् माफी की मांग करते हैं। मुख्यमंत्री को अभी अपना वादा पूरा करना है। हालांकि उन्होंने कहा है कि वे अपने वादे मुताबिक कजऱ् माफ करने के इच्छुक हैं।

इस बीच पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने मांग की है कि मुख्यमंत्री एक दम कजऱ् माफ करें या फिर अपने खिलाफ कार्रवाई के लिए तैयार रहें। 28 मई को भाजपा ने राज्य में बंद का आह्वान किया था पर कुछ हिस्सों को छोड़ बंद विफल ही रहा।

सवाल यह है कि क्या कुमारस्वामी कजऱ् माफ कर सकते हैं, और फिर इस बोझ को कौन ढोएगा? कांग्रेस शासित पंजाब में मुख्यमंत्री के उम्मीदवार कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी किसानों से कजऱ् माफ करने का वादा किया पर केंद्र ने हाथ पीछे खीच लिए। उधर भाजपा ने भी कजऱ् माफी की घोषणा की थी। जैसा कि उत्तरप्रदेश में। योगी आदित्यनाथ ने बहुत तामझाम के साथ किसानों के कजऱ् माफी की योजना की शुरूआत की थी, पर धरातल पर यह एक मज़ाक ही बन गया क्योंकि किसानों को चंद रुपयों के चेक ही मिले। यहां एक किसान ऐसा भी है जिसे मात्र 19 पैसे का चेक मिला। इससे योगी सरकार की कजऱ् माफी योजना की असलीयत पता चलती है।

बाकी दलों की सरकारों की भी स्थिति ऐसी ही है। हर राज्य में यह एक ही तरह से चल रहा है। असल में नौकरशाही ने इसे सिस्टम में इस तरह डाल दिया है कि राजनेताओं की घोषणाएं केवल हवा में ही लगती हैं। पर फिर भी किसानों पर राजनीति लगातार जारी है क्योंकि ये लोग एक बहुत बड़ा वोट बैंक हैं, और हर राजनैतिक दल इसका लाभ उठाना चाहता है।

तो यदि भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार येदियुरप्पा किसानों की कजऱ् माफी की बात करते हैं तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। इसका लाभ असल में कुमारस्वामी ने उठाया और वह कांग्रेस की सहायता से मुख्यमंत्री बन गया।

ग्रामीण कर्नाटक में सूखा और किसानों की आत्महत्या मुख्य मुद्दे हैं इसी कारण कजऱ् माफी का मुद्दा चुनावों में उठा और उसके बाद भी उठ रहा है। पर किसानों के लिए कहीं राहत नहीं चाहे वह कर्नाटक हो या भाजपा शासित प्रदेश। किसानों की मुसीबतें बढ़ती जा रही हैं और वे लोग आत्महात्यायें करते जा रहे हैं। हर राजनैतिक दल उनसे वादे करता है केवल तोडऩे के लिए।

किसान उस समय बहुत प्रसन्न हुए थे। जब प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने किसानों को न्यूनतम कीमत स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के आधार पर देने की घोषणा की थी। पर चार साल बीत जाने के बाद आज तक नरेंद्र मोदी के वादे पूरे नहीं हुए। इक्का-दुक्का स्थानों पर इन वादों पर कुछ काम हुआ लेकिन ज़्यादातर स्थानों पर नहीं। इससे देश भर के किसानों में आक्रोश व्याप्त हो गया है।

तमिलनाडु के किसान कई महीनों तक दिल्ली में आंदोलन चलाते रहे लेकिन एक मिनट के लिए भी प्रधानमंत्री का ध्यान अपनी ओर नहीं खींच पाए। यह राजनेताओं की गद्दी पर आसीन होने के बाद किसानों की अनदेखी की जि़ंदा मिसाल है। राहुल गांधी की तरह जब सत्ता से बाहर होते हंै तो वही भाषा बोलते है जो किसानों के हक की हो लेकिन सत्ता पर काबिज होते ही उनकी बोली बदल जाती है।

ऐसा नहीं कि अपने सलाहकारों से सलाह लेने वाले ये नेता किसानों के सवालों के जवाब नहीं दे सकते पर ये लोग किसानों की परवाह नहीं करते। उनके लिए किसानों का गुस्सा भी दूसरी समस्याओं में से एक है।

एक बात समझ में नहीं आ रही कि किसानों के लिए भली-भांति तैयार एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट देश की दो प्रमुख राजनैतिक दलों के शासन काल में धूल क्यों चाटती रही है। उस पर न तो कांगे्रस सरकार ने अमल किया और न ही अब भाजपा की सरकार कर रही है। इस बीच हरित क्रांति के जन्मदाता इस रिपोर्ट के लिखने वाले स्वामीनाथन का कहना है कि विवेकपूर्ण तरीेके से किसान की उपज की कीमत तय करके ही उसकी आय को बढ़ाया जा सकता है। उन्हें अभी भी उम्मीद है कि सरकार किसानों के लिए कीमत निर्धारण की नई नीति लाएगी जिससे उनकी आय दुगनी हो जाए। स्वामीनाथन के पास 2022 तक किसानों की आय दुगनी करने की खास योजना है, जिस का खुलासा वे कई बार कर चुके हैं, लेकिन उस पर अभी तक अमल नहीं हुआ है।

देश के सभी किसानों ने शायद स्वामीनाथन से न तो मुलाकात की होगी और न ही उन्हें सुना होगा लेकिन 2014 के चुनावों में भाजपा ने उनका नाम घर-घर तक पहुंचा दिया। सरकार ने स्वामीनाथन की सिफारिशों को लागू करने का कोई प्रयास नहीं किया। सिफारिशों में मोटे तौर पर कहा गया है कि फसल पर आई किसान की कुल लागत में 50 फीसद जोड़ कर फसल का न्यूनतम मूल्य तय किया जाए। सबसे पहले 2007 में ‘नेशनल कमीशन फॉर फारमर्सÓ के तहत बने ‘पैनलÓ के प्रमुख स्वामीनाथन ही थे। उन्होंने उस समय इस तरह फसल की कीमत तय करने की सिफारिश की थी।

सत्ताधारी भाजपा ने 2014 के चुनावों में अपने घोषणापत्र में स्वामीनाथन फार्मूले को लागू करने की बात कही थी, पर आज तक इस पर कोई काम नहीं हुआ। 2017-19 की रबी की फसल के लिए जो न्यूनतम मूल्य तय किया गया है वह किसान के औसत खर्च के 40 फीसद से भी कम है। इसके अलावा स्वामीनाथन की और भीे कई सिफारिशे नहीं मानी गई हैं। स्वामीनाथन ने कृषि भूमि को उद्योपतियों के हाथ में जाने से रोकने के लिए विशेष कृषि ज़ोन की सिफारिश की थी, जो आज ठंडे बस्ते में पड़ी है। उद्योगपतियों को इस बारे में कोई पूछता नहीं क्योंकि वे एक संगठित क्षेत्र के लोग हैं, जबकि किसान एक संगठन में नहीं हैं। यही कारण है कि बैंक के अधिकारी जो कजऱ् वसूली के लिए उद्योगपतियों से बात तक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते वे कजऱ् की एक किश्त टूटने पर ही किसाल का ट्रेक्टर अपने कब्जे में ले लेते हैं। यह सही है कि कई किसानों की तरफ कजऱ् की राशि बकाया है। पर प्रश्न यह है कि उद्योग और कृषि को लेकर बैंकों की दोहरी नीति क्यों है?

इस कारण किसान गैर औपचारिक बैंकिंग चैनलों से कजऱ् लेने को मज़बूर हो जाता है। खासतौर पर वह साहूकारों से कजऱ् उठाता है। वहां प्रक्रिया आसान है पर ब्याज बहुत ज़्यादा। इस तरह से किसान कजऱ् के मकड़ जाल में फंसता जाता है और उससे बाहर न निकल पाने की स्थिति में अपनी जान दे देता है।

हमें यह मानना होगा कि सरकारों ने स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को उसकी भावना के अनुरूप लागू नहीं किया है। यदि ऐसा हो जाए तो किसान का जीवन सुखद हो जाएगा।