सयुंक्त परिवारों के अस्तित्व पर मँडराता ख़तरा

भारत में आज भी एकल परिवार को सामाजिक मान्यता नहीं है। लेकिन आधुनिकता के चलते संयुक्त परिवारों का बिखरना जारी है। शहरों में यह सिलसिला तेज़ी से जारी है। हालाँकि देश में संयुक्त परिवारों की संख्या आज भी काफ़ी है। ग्रामीण व्यवस्था में आज भी अधिकतर परिवार संयुक्त रूप से बड़ी एकता और प्यार से रहते हैं। लेकिन नयी पीढ़ी में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव भी तेज़ी से पड़ रहा है, जिसके कई कारण हैं।

भारत में अगर संयुक्त परिवार के बिखरने के इन कारणों पर अगर विचार किया जाए, तो उनके अस्तित्व पर मँडराते ख़तरे की सर्वाधिक सम्भावना रोज़गार पाने की आकांक्षा और दूसरों के लिए कुछ न करने की इच्छा, आधुनिकता की चमक-दमक, शहरों में रहने की इच्छा और मोबाइल फोन आदि सबसे ज़्यादा असरकारक कारण हैं।

बढ़ती जनसंख्या तथा घटते रोज़गार के कारण परिवार के सदस्यों को अपनी जीविका चलाने के लिए गाँव से शहर की ओर या छोटे शहर से बड़े शहरों को जाना पड़ता है और इसी कड़ी में विदेश जाने की आवश्यकता पड़ती है। गाँव में परम्परागत कारोबार या खेती-बाड़ी की अपनी सीमाएँ सीमित होती जा रही हैं। अत: हर परिवार को नये आर्थिक स्रोतों की तलाश करनी पड़ती है। युवाओं को जहाँ रोज़गार उपलब्ध होता है, वहीं उन्हें अपना घर बनाना और परिवार बसाना सुविधाजनक होता है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह सम्भव नहीं होता कि वह नित्य रूप से अपने परिवार के मूल स्थान पर जा पाये। संयुक्त परिवार के टूटने का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण लगातार बढ़ता उपभोक्तावाद है। क्योंकि उपभोक्तावाद ने व्यक्ति को अधिक महत्त्वाकांक्षी बना दिया है। अधिक सुविधाएँ पाने की लालसा के कारण पारिवारिक सहनशक्ति समाप्त होती जा रही है और स्वार्थ बढ़ता जा रहा है। अधिकतर लोग अब अपनी ख़ुशियाँ परिवार या परिजनों में नहीं, बल्कि आधुनिक सुख-साधनों में ढूँढते हैं। यही वजह है कि लोग अब अपनी ख़ुशियों के लिए मौक़ों की नहीं, बल्कि संसाधनों की तलाश करते हैं, जिसके चलते संयुक्त परिवार बिखरते जा रहे हैं।

पश्चिमी दुनिया के अधिकतर देशों में संयुक्त परिवार व्यवस्था समाप्ति के कगार पर है। उन्हीं की देखादेखी हमारे यहाँ के अमीर परिवारों के बाद अब कई मध्यम वर्गीय परिवार एकल परिवार की परम्परा को अपनाने लगे हैं। यह स्थिति इतनी गम्भीर होती जा रही है कि कई परिवारों में तो पति-पत्नी तक के पास साथ समय बिताने का समय नहीं है। इससे कुछ हो न हो, लेकिन बच्चों पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। यही वजह है कि आज संयुक्त परिवार की व्यवस्था सिर्फ़ ग्रामीण क्षेत्रों और कम पढ़े-लिखे लोगों में ही दिखायी पड़ती है। शिक्षित और शहरी लोगों में इस प्रकार की मिलजुलकर रहने की धारणा तेज़ी से विलुप्त होती जा रही है। भारत में इसका सबसे अधिक असर सनातन परिवार परम्परा के पतन के रूप में सामने आ रहा है। अगर हम अपने इतिहास को देखें, तो भारत में तमाम लड़ाइयाँ जीतने, सत्ता पर क़ाबिज़ होने और अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए संयुक्त परिवार व्यवस्था को उत्तम माना गया है। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि आज दुनिया में इस्लाम धर्म की मज़बूत पारिवारिक व्यवस्था ही उसे लगातार शक्तिशाली होने में मददगार साबित हो रही है, जिसका ताज़ा उदाहरण अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के रूप में देखा जा सकता है।

दुनिया के मशहूर लेखक डेविड सेलबॉर्न ने अपनी किताब ‘दि लूजिंग बैटल विद इस्लाम’ लेखक ने किताब में साफ़ संकेत दिया है कि पश्चिमी दुनिया इस्लाम से हार रही है। लेखक ने हार के कई कारण गिनाये हैं, जिनमें इस्लाम की मज़बूत पारिवारिक व्यवस्था को सबसे बड़ा कारण बताया है। पश्चिमी दुनिया में पारिवारिक व्यवस्था तबाह हो चुकी है। आज अपने आपको पढ़े-लिखे और शिक्षित मानने वाले लोग शादी करना ही पसन्द नहीं करते। समलैंगिकता, अवैध सम्बन्ध, लिव इन रिलेशन (बिना शादी के या शादी से पहले महिला-पुरुष के साथ रहने) जैसी कुरीतियों के आम होने के कारण दुनिया में पारिवारिक व्यवस्था टूटने के कगार पर पहुँच चुकी है। दिन-ब-दिन ऐसे बच्चों की तादाद बढ़ती जा रही है, जिन्हें मालूम नहीं होता कि उनका पिता कौन है? ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत तेज़ी से बढ़ रही है, जो अपने बूढ़े माँ-बाप को घर में नहीं रखना चाहते। देश में वृद्ध आश्रम (ओल्ड ऐज होम) की संख्या में तेज़ी से इज़ाफ़ा हो रहा है। इतने पर भी इन वृद्ध आश्रमों में नये बेसहारा बुज़ुर्गों को रखने की जगह कम पड़ रही है। इस बात की हैरानी होती है कि भारत में ब्रिटिश-काल में एक भी वृद्ध आश्रम नहीं था; लेकिन आज पूरे देश में हज़ारों वृद्ध आश्रम हैं। एक अनुमान के अनुसार, भारत में क़रीब सात करोड़ बुज़ुर्ग वृद्ध आश्रमों में रहने को मज़बूर हैं और क़रीब 32 फ़ीसदी बुज़ुर्ग घरों में प्रताडऩा तथा अनदेखी के शिकार हैं। माना जाता है कि आने वाले समय में यह संख्या बढ़ेगी।

पश्चिमी समाज में कुछ ऐसे सामाजिक परिवर्तन आ चुके हैं, जिससे पूरा पश्चिमी समाज तबाह होने के कगार पर पहुँच चुका है। अगर समय रहते संयुक्त टूटने के रिवाज़ को भारत में नहीं रोका गया, तो यहाँ भी यह स्थिति आ सकती है। आज देश के तमाम राजनीतिक दल परिवार को बचाने का वादा अपने चुनाव घोषणा-पत्र में करने लगे हैं। लेकिन सत्ता में आते ही यह दावे जुमलों में तब्दील हो जाते हैं।

विकसित देश ऑस्ट्रेलिया में तो ‘फैमिली फस्र्ट’ के नाम से एक सियासी पार्टी तक बना ली गयी है। पारिवारिक व्यवस्था को बचाना पश्चिमी देशों का सबसे बड़ा मुद्दा है। क्योंकि परिवार  नहीं बचा, तो समाज को भी देर-सवेर ध्वस्त होने की स्थिति में पहुँचना पड़ेगा। यही वजह है कि डेविड सेलबॉर्न और बिल वार्नर जैसे लेखक यह कहने पर मजबूर हो चुके हैं कि इस्लाम धर्म में मज़बूत पारिवारिक व्यवस्था की वजह से उससे देर-सवेर पश्चिम  हार जाएगा।

भारत में तेज़ी से हिन्दू संयुक्त परिवार परम्परा का पतन होना प्रारम्भ हो चुका है। ख़ून के पाँच क़रीबी रिश्ते समाप्त होने के कगार पर हैं। ताऊ, चाचा, बुआ, मामा, मौसी जैसे रिश्ते आने वाले समय में देखने सुनने को नहीं मिलने वाले हैं। एक बच्चा (सिंगल चाइल्ड) परिवार को अपनी तीसरी पीढ़ी यानी माँ-बाप, दादा-दादी बनने पर इन रिश्तों को बुरी तरह समाप्त करने की स्थिति पर प्रभावित करेगा। जिस दादा को मूल से अधिक ब्याज यानी बेटे से अधिक पोता प्यारा होता है, उसका मूलधन भी समाप्त हो जाएगा। इसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी होगा।

इसलिए दम्पत्ति को एक बच्चा योजना के अतार्किक निर्णय पर गम्भीरता से विचार करना होगा। यह मैं नहीं, इस लिहाज़ से बेतरतीब घटती आबादी के आँकड़े बोल रहे हैं। यह विश्लेषण सरकारी आँकड़ों के अध्ययन से आ रहा है।

विचार कीजिए कि अगर आपने ऐसा किया, तो आने वाले समय में आपका पौत्र या प्रपौत्र इस संसार में अकेला खड़ा होगा; और जब उसे अपने रक्त के रिश्ते की आवश्यकता होगी, तो इस पूरे ब्रह्माण्ड में उसका अपना कोई नहीं होगा। यह अत्यंत सोचनीय विषय है। इससे न केवल हमारे बच्चों को एकाकी जीवन जीने को मजबूर होना पड़ेगा, बल्कि हमारी सनातन परिवार सभ्यता को ही नष्ट कर देगा। हम जो हिन्दू एकता की बात करते हैं, यह भी कम घातक नहीं है। क्योंकि भेदभाव की गहरी खाई इसके पीछे खोदी जा रही है, जिसके चलते वास्तव में सनातन सभ्यता, जो अब हिन्दू सभ्यता मान ली गयी है; समाप्त हो जाएगी। और इस सबके लिए हमारी वर्तमान पीढ़ी के वाहक उत्तरदायी होंगे।

संयुक्त परिवार के लाभ के विषय में विचार करने पर पता चलता है कि परिवार पर या परिवार के किसी सदस्य पर विपत्ति के समय अथवा किसी सदस्य गम्भीर रूप से बीमार होने पर पूरे परिवार के सहयोग से विपत्ति से आसानी से पार पाया जा सकता है। जीवन के सभी कष्ट सबके सहयोग से बिना किसी को विचलित किये दूर हो जाते हैं। अगर कभी आर्थिक संकट या रोज़गार चले जाने की समस्या उत्पन्न नहीं होती, तो भी सभी के सहयोग से उसे हल करना आसान होता है। इसके अलावा एक सदस्य की अनुपस्थिति में अन्य परिजन सहयोग दे देते हैं। संयुक्त परिवार में सभी सदस्य एक-दूसरे के आचार-व्यवहार पर निरंतर निगरानी रखते हैं, किसी की अवांछनीय गतिविधि पर अंकुश लगा रहता है, जिससे परिवार का हर एक सदस्य चरित्रवान बना रहता है। किसी समस्या के समय सभी परिजन एक-दूसरे का साथ देते हैं। साथ ही परिवार के हर सदस्य पर सामूहिक दबाव भी पड़ता है और कोई भी सदस्य असामाजिक कार्य नहीं कर पाता। गाँव या परिवार के बुज़ुर्गों के भय के कारण शराब, जुआ या अन्य किसी बुराई से भी बच्चे और युवा बचे रहते हैं। आज ज़रूरी है कि हम सब घर-परिवार में, रिश्तेदारों में, दोस्तों में, सम है कि हम विभिन्न सामाजिक आयोजनों और बैठकों में इस विषय पर बातचीत करें और अपनी सभ्यता, संस्कार तथा पीढिय़ों को बचाएँ।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)