समस्या धर्म नहीं, घृणा है

पिछले कई साल से देखने में आ रहा है कि कई सनातनी और इस्लामिक त्योहार एक साथ पड़ रहे हैं। इससे पहले भी कई बार ऐसा हुआ ही होगा। जबसे विभिन्न धर्मों में त्योहार मनाने की परम्परा शुरू हुई होगी, तबसे न जाने कितने ही त्योहार एक साथ आये और मनाये गये होंगे। होली, जन्माष्टमी, दीपावली, दशहरा, लोहड़ी, वैशाखी, गुरु पर्व, मुहर्रम, ईद, क्रिसमस, गुड फ्राइडे, ईस्टर और भी कई छोटे-बड़े त्योहार कितनी ही बार एक साथ अथवा थोड़े-बहुत आगे-पीछे आये होंगे। ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं, जो एक-दूसरे को अपने त्योहारों पर निमंत्रण और बधाई, मुबारकबाद भेजते हैं। मैंने दर्ज़नों मुस्लिम समुदाय के लोगों को दीपावली, होली, जन्माष्टमी मनाते देखा है। मन्दिरों का प्रसाद खाते देखा है। वहीं सनातनधर्मियों को ईद मनाते देखा है, ताजिया उठाते देखा है। कोई भेदभाव नहीं। कोई बैर नहीं। कोई धर्मवाद नहीं। सब एक जैसे दिखे हैं। किसी ने किसी से नहीं कहा कि यह तुम्हारा त्योहार नहीं है, तो क्यों मना रहे हो? बल्कि ख़ुश होकर दूसरे धर्म वालों का स्वागत किया है।

दरअसल यह भारत की परम्परा रही है कि दुश्मन को भी प्यार दो। फिर यहाँ बसने वाले तो अपने हैं। यहाँ जिस धर्म के भी लोग आये, उन पर यहाँ की अतिथि देवो भव: संस्कृति का इतना गहरा असर हुआ कि उन्होंने न केवल यहाँ की इस परम्परा को अपनाया, वरन् एकता के महत्त्व को भी समझा। भारत में इन दिनों क़रीब सात धर्म और दर्ज़नों पन्थ हैं। इनमें सनातन धर्म में क़रीब 23, इसाई धर्म में नौ, इस्लाम धर्म में पाँच, बौद्ध धर्म में पाँच, जैन धर्म में चार और सिख धर्म में तीन पन्थ हैं। मतभेद और झगड़े की जड़ यहीं से शुरू होती है। इसी की आड़ लेकर हर धर्म से गहरे जुड़े कुछ पाखण्डी धर्माचारियों ने धर्मों को लोगों में फूट डालने का हथियार बना लिया।

इन लोगों की बातों में लोग इसलिए आते गये, क्योंकि लोगों को हमेशा अपने-अपने धर्म से मोह रहा है, जिसके चलते धर्माचारियों की हर बात उन्हें धर्म पर चलने जैसी लगती है और वे उस पर आँख बन्द करके अमल करते हैं। यही वजह है कि जैसे ही धर्म के चंद तथाकथित ठेकेदार उन्हें उकसाते हैं, लोग आँख बन्द करके बिना सोचे-समझे आपस में मरने-मारने पर आमादा हो जाते हैं। आज यही हालात बने हुए हैं। जिधर देखो नफ़रत की आग धधक रही है। अन्दर-ही-अन्दर नफ़रत की विषबेल दिमाग़ों में उग रही है। यह तब है, जब सब एक ही हवा में साँस ले रहे हैं। एक ही सूरज से धूप और प्रकाश ले रहे हैं। एक चंद्रमा की चाँदनी में नहाते हैं। एक ही धरती पर रहते हैं और इसी पर निर्भर हैं। फिर भी लड़ते हैं। लेकिन जिनके बहकाने पर लड़ते हैं, वे कभी नहीं लड़ते। बल्कि जिस दिन कहीं दो धर्मों के मूर्खों में दंगे होते हैं, उस दिन उन दोनों धर्मों के लोग रात को एक साथ जश्न मना रहे होते हैं। उसके कुछ दिन बाद जब मामला शान्त हो जाता है, तब धर्म संसद में बैठकर शान्ति का उपदेश देते हैं। एक-दूसरे के धर्म की तारीफ़ करते हैं। लडऩे वाले नफ़रत से ऊपर कभी नहीं निकल पाते। दरअसल यह कमी धर्मों की नहीं है, वरन् धर्मों को समझे बग़ैर मूर्ख बनने वालों की है। अर्थात् समस्या धर्म नहीं हैं, बल्कि समस्या घृणा है, जो धर्मों को न समझने के चलते पनपती है। इस घृणा को निकाल फेंकना होगा। आज धर्म को जानने वालों का अभाव है। किसी के पास किताबी ज्ञान के सिवाय कुछ नहीं है। एक ईश्वर को ही बाँटकर देखते हैं।

लोग तो इतने मूर्ख हैं कि जब सन्त कबीरदास उन्हें समझाते थे, तो वे उन पर ही हमलावर हो जाते थे। कई बार लोगों ने सन्त कबीरदास पर हमले किये, उनका सिर फोड़ा। धीरे-धीरे लाखों लोग उनके अनुयायी बने और उनकी बातें मानने लगे। लेकिन हैरानी की बात देखिए कि जब सन्त कबीरदास अपनी अन्तिम साँसे ले रहे थे, तब उन्हीं के अनुयायी इस बात पर झगड़ रहे थे कि कबीर का धर्म क्या है? सनातनी कह रहे थे कि कबीर सानतनधर्मी हैं और मुस्लिम कह रहे थे कि कबीर मुसलमान हैं। जिन लोगों को उम्र भर एक महान् सन्त सीधे रास्ते पर लाने का प्रयास करते रहे, वही लोग उनके शरीर के अन्तिम संस्कार को लेकर झगड़ रहे थे। जब उनके बेटे कमाल ने उन लोगों को समझाने के लिए पिता के पास से उठना चाहा, तो सन्त कबीरदास ने उनका हाथ पकड़ लिया और बोले- ‘रहने दो, मत समझाओ! ये नहीं समझेंगे। इन्हें मैं जीवन भर यही समझाता रहा कि सब एक ही ईश्वर की सन्तानें हैं। बाहरी धर्म आडम्बर और मिथ्या हैं। अगर ये इस छोटी-सी बात को समझ गये होते, तो आज झगड़ा क्यों कर रहे होते? इस बारे में मेरा एक शेर है-

कबीरा ज़ात से क्या था, बहस इस बात की थी।

सगे दो भाइयों ने ख़ून आपस में बहाया।।“