समलैंगिकता अब अपराध नहीं

उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला, धारा ३७७ निरस्त

समलैंगिकता अब अपराध नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध बताने वाली धारा ३७७ को निरस्त कर दिया है। गौरतलब है इस मसले पर कोर्ट ने जुलाई में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था और इसपर अपना निर्णय सुनाया।
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय खंडपीठ ने समलैंगिकता को अपराध बतानेवाली धारा को खत्म करने का गुरूवार को फैसला सुनाया है। इस फैसले के बाद अब समलैंगिकता अपराध नहीं रहेगी।  देश भर इस मसले पर चर्चा रही है।  जहाँ कुछ लोग इसे अनैतिक बताते रहे हैं वहीं कुछ इसे लोगों की मर्जी पर छोड़ देने के हक़ में रहे थे।  अब कोर्ट का फैसला आने के बाद साफ़ हो गया है कि कानूनन सलैंगिकता अपराध नहीं माना जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते कहा कि एकांत में सहमति से बने संबंध अपराध नहीं है, लेकिन धारा 377 के अंतर्गत पशु से संभोग अपराध बना रहेगा। सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने संमलैंगिकता को अपराध करार देने वाली धारा 377 को अपराधमुक्त करार दिया। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने फैसला सुनाते हुए कहा कि हर किसी को अपनी जिंदगी अपनी मर्जी से जीने का अधिरकार है।
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने अपना और जस्टिस खानविलकर का फैसला पढ़ा। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने फैसला सुनाते हुए कहा, ”मैं जैसा हूँ, उसे वैसा ही स्वीकार किया जाए, आभिव्यक्ति और अपने बारे में फैसले लेने का अधिकार सबको है।” चीफ जस्टिस ने कहा, ”समय के साथ बदलाव ज़रूरी है, संविधान में बदलाव करने की ज़रूरत इस वजह से भी है जिससे कि समाज मे बदलाव लाया जा सके। नैतिकता का सिद्धांत कई बार बहुमतवाद से प्रभावित होता है लेकिन छोटे तबके को बहुमत के तरीके से जीने को विवश नहीं किया जा सकता।”
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ”हर व्यक्ति को गरिमा से जीने का हक है, सेक्सुअल रुझान प्राकृतिक है। इस आधार पर भेद भाव नहीं हो सकता। हर व्यक्ति को गरिमा से जीने का हक है। सेक्सुअल रुझान प्राकृतिक है। इस आधार पर भेद भाव नहीं हो सकतानिजता का अधिकार मौलिक अधिकार है, 377 इसका हनन करता है।”
चीफ जस्टिस ने कहा, ”देश में सबको समानता और सम्मान से जीने का अधिकार सबको हासिल है। कुछ लोग समाज से बहिष्कार की स्थिति झेलते हैं। पहले हुई गलती को सुधारना ज़रूरी है। जो प्राकृतिक है उसको गलत कैसे ठहराया जा सकता है। समाज की सोच बदलने की ज़रूरत है।
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए धारा 377 को बहाल कर दिया था। हाईकोर्ट ने 2009 में नाज फाउंडेशन की याचिका पर धारा 377 को हल्का कर दिया था। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ कई समीक्षा याचिकाएं दायर की गईं, जिन्हें बाद में रिट याचिकाओं में तब्दील कर दिया गया और मामला संविधान पीठ को सौंप दिया गया था।
पांच जजों की संविधान पीठ यह तय करेगी कि सहमति से दो व्यस्कों के बीच बने यौन संबंध अपराध की श्रेणी में आएंगे या नहीं। संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं।
शुरुआत में संविधान पीठ ने कहा था कि वो जांच करेंगे कि क्या जीने के मौलिक अधिकार में ‘यौन आजादी का अधिकार’ शामिल है, विशेष रूप से 9-न्यायाधीश बेंच के फैसले के बाद कि ‘निजता का अधिकार’ एक मौलिक अधिकार है।
इससे पहले 17 जुलाई को मुख्या न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान ने धारा-377 की वैधता को चुनौती वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए यह साफ किया था कि इस कानून को पूरी तरह से निरस्त नहीं किया जाएगा। कोर्ट ने कहा था कि यह दो समलैंगिक वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन संबंध तक ही सीमित रहेगा। पीठ ने कहा कि अगर धारा-377 को पूरी तरह निरस्त कर दिया जाएगा तो आरजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। हम सिर्फ दो समलैंगिक वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन संबंध पर विचार कर रहे हैं. यहां सहमति ही अहम बिन्दु है।
पीठ ने कहा था कि आप बिना दूसरे की सहमति से अपने यौन झुकाव को नहीं थोप सकते। पीठ ने यह भी कहा कि अगर कोई भी कानून मौलिक अधिकारों को हनन करता है तो हम कानून को संशोधित या निरस्त करने के लिए बहुमत वाली सरकार के निर्णय का इंतजार नहीं कर सकते। पीठ ने कहा, ‘मौलिक अधिकारों का पूरा उद्देश्य है कि यह अदालत को निरस्त करने का अधिकार देता है। हम बहुमत वाली सरकार द्वारा कानून को निरस्त करने का इंतजार नहीं कर सकते. अगर कानून असंवैधानिक है तो उस कानून को निरस्त करना अदालत का कर्तव्य है।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर 2013 को सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिकता को अपराध माना था। दो जुलाई, २००९ को दिल्ली हाईकोर्ट ने धारा 377 को अंसवैधानिक करार दिया था। इस मामले में पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी थी और फिलहाल पांच जजों के सामने क्यूरेटिव बेंच में मामला लंबित है। अब इस पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से समलैंगिकता को अपराध नहीं माना जाएगा।