सत्ता के नशे में!

मार्क ट्वेंन लिखते हैं- ‘जब आप स्वयं को बहुमत के नज़दीक पाएँ, तो समझ जाइए कि अब ठहरकर सोचने का समय है।‘

भाजपा देश में केंद्र से लेकर राज्यों तक प्रचण्ड बहुमत के लहर पर सवार है। आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर पार्टी पूर्ण बहुमत का दावा कर रही है। कई बार सफलता की धुन्ध ख़ामियों के मंज़र ढँक देती है। लेकिन इन ख़ामियों का ख़ामियाज़ा अन्तत: भविष्य भुगतता है। एक यूरोपीय विद्वान लिखते हैं- ‘रोम न एक दिन बना था, न एक दिन में में उसका पतन हुआ।‘

अपने राजनीतिक यात्रा के स्वर्णिम दौर से गुज़र रही भाजपा पर सत्ता का गुरूर तारी है। अमूमन देखा गया है कि भाजपा के नेता, विधायक, सांसद और मंत्री कभी भी ग़ुस्से से इतने भर जाते हैं कि किसी से भी अभद्रता कर बैठते हैं, किसी का भी अपमान कर देते हैं? ये लोग भारतीय राजनीति को हम किस दिशा में लेकर जा रहे हैं? क्या ये हमारे जनप्रतिनिधि हैं?

जो सड़कछाप भाषा का इस्तेमाल करते हैं और गुण्डों कि तरह मारपीट पर उतर आते हैं। ये सवाल देश की जनता को किसी दल से नहीं, बल्कि ख़ुद से पूछना है। विषय की गम्भीरता इससे भी बढ़ती है कि ये जनप्रतिनिधि न सिर्फ़ सत्तारूढ़ दल से सम्बन्धित हैं, बल्कि महत्त्वपूर्ण सांविधिक एवं संवैधानिक पदों पर बैठे हैं। यह सम्भवत: इतिहास का नियम ही है कि राजनीति नैतिकता एवं मूल्यविहीन होती ही है। लेकिन भारतीय राजनीति तो लज्जाविहीन होती जा रही है। वैसे राजनीति एवं नेताओं को क्यों दोष दें, जब समाज ही पतनशीलता का शिकार हो। राजनीति समाज का प्रतिबिम्ब है। राजनीति में समाज का अंतस झाँकता है। आधुनिक समय में जिस तरह समाज की नैतिकताएँ, संवेदनाएँ अधोपतन का शिकार हैं। राजनीति भी इससे अछूती नहीं रही है। कह सकते हैं कि पतनशीलता का रोग राजनीति के लिए युगों पुराना है। सत्ता स्वमेव अहंकार को जन्म देती है। रामचरित मानस के बालकाण्ड में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं- ‘नहिं कोउ अस जनमा जग माही, प्रभुता पाइ जाहि मद नाही।‘

कठिन अपवादस्वरूप ही कोई चंद्रगुप्त मौर्य सरिखा होता है, जो सत्ता और शक्ति के शीर्ष पर होते हुए इसका परित्याग कर दे। लेकिन यह भी सत्य है कि चंद्रगुप्त मौर्य बनाने के लिए पितातुल्य गुरु और त्यागी-वैरागी प्रधानमंत्री चाणक्य का होना ज़रूरी है। वैसे वर्तमान भारतीय राजनीति में सत्ता त्याग की परिकल्पना एक अति हास्यास्पद तर्क है। लेकिन थोड़ी कोशिशों से सम्राट अशोक जैसा बना जा सकता है, जो सत्ता एवं वैभव की पराकाष्ठा पर भी विनम्र बना रहे हैं। हालाँकि आधुनिक भारत की राजनीति में भी लाल बहादुर शास्त्री और अब्दुल कलाम जैसे जनसेवक लोग हुए हैं। लेकिन अब के नेताओं में इस सेवाभाव का नितांत अभाव है। कुछेक में अगर यह भाव ज़िन्दा भी है, तो उन्हें राजनीति में टिकने या आगे बढऩे नहीं दिया जाता है।

राजनीति के गुणों से हीन नेता कर भी क्या सकते हैं। लखीमपुर खीरी के गाड़ी कांड की ही बात करें, तो नैतिकता के आधार पर तो केंद्रीय गृहराज्य मंत्री को उनके होनहार बेटे की करतूत के बाद ही इस्तीफ़ा दे देना चाहिए था। लेकिन हाल यह है कि उनके लायक बेटे के दोषी सिद्ध होने के बावजूद मंत्री पत्रकार का कालर पकडऩे की हिम्मत करते हैं। वैसे यह वही भाजपा है, जिसके पितृ पुरुष लालकृष्ण आडवाणी ने सन् 1995 में हवालाकांड में शामिल होने का आरोप लगने पर संसद सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया था तथा बाद में आरोप-मुक्त होने पर ही वह सक्रिय राजनीति में लौटे। लेकिन ये नयी सत्ताधारी भाजपा है, तो पुराने दौर की नैतिकता की उम्मीद मूर्खता होगी।

अगर कैसरगंज और लखीमपुर खीरी के सांसदों को देखिए; ये दोनों कई आपराधिक मामलों में अभियुक्त हैं एवं बाहुबली की छवि रखते हैं। यही नहीं, इस समय सबसे ज़्यादा आपराधिक पृष्ठभूमि के विधायक भाजपा से ही आते हैं। समझ नहीं आता भाजपा किसकी गुंडागर्दी से उत्तर प्रदेश को बचाने की बात कर रही है? और किस सुसंस्कृत छवि का दम्भ भरती है? कुछ लोग मखौल उड़ाते हैं कि सम्भवत: भाजपा के पास कोई विशेष शुद्धिकरण यंत्र हैं, जिसमें इधर से अपराधियों, गुण्डे-मवालियों को डालो और उधर से साधु-महात्मा निकलते हैं।

यह ख़ुद को नैतिकता के प्रतिमान स्थापित करने का दावा करने वाली पार्टी विद् डिफरेंस का हाल है। किसान आन्दोलन को ही लें। भाजपा नेताओं ने किसानों के विरुद्ध जिस तरह बयानबाज़ी की, उन्हें ग़लत और देशद्रोही ठहराने की कोशिश की, और जिस तरह उन पर हमले किये, उससे इन सत्ताधीशों का अहंकार ही प्रदर्शित हुआ। पार्टी का नशा यहीं तक सीमित नहीं है। कल तक कांग्रेस पर संविधान की अवमानना का आरोप लगाने वाली भाजपा ख़ुद भी यही कर रही है।

केंद्रीय मंत्रिमंडल में सिविल सर्विस के कर्मचारियों की भीड़ इकट्ठी हो गयी है। नि:सन्देह वर्तमान विदेश मंत्री और आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय के साथ ही पेट्रोलियम मंत्रालय सँभाल रहे मंत्री महोदय योग्य व्यक्ति होंगे। किन्तु न उन्होंने चुनावों में जनता का प्रत्यक्ष सामना किया है और न ही जनता उनके विचारों एवं व्यक्तित्व से परिचित है। ऐसे नौकरशाहों को पिछले दरवाज़े यानी राज्यसभा के माध्यम से सीधे मंत्री पदों पर बैठाना लोकतंत्र को अपमानित करने का एक कुत्सित प्रयास ही माना जाएगा। क्या भाजपा में योग्य नेताओं की कमी है? या अपने ही काडर के प्रति शीर्ष नेतृत्व को भरोसा नहीं है? क्या इस तरह संवैधानिक मूल्यों का अपमान भाजपा का अहंकार नहीं है? अब भाजपा के पास परम्परागत तर्क होगा कि 60 साल में पुरानी कांग्रेस सरकारों ने भी यही ग़लतियाँ की हैं। तो क्या भाजपा को भी उन्हीं ग़लतियों को दोहराना चाहिए?

सत्ता नशें में चूर होने का प्राथमिक लक्षण यही है कि आप अपने संघर्ष के दिनों के साथियों की अनदेखी, यहाँ तक कि निरादर शुरू कर देते हैं। वैसे भाजपा का यह रोग बहुत पुराना है और कहीं-न-कहीं सत्य भी कि वह अपने कार्यकर्ताओं का सम्मान करना नहीं जानती। इसका दुष्परिणाम कैसा होता हैं, इसके लिए सबसे सटीक उदाहरण समाजवादी पार्टी (सपा) का है।

एक समय भारत में सपा के कार्यकर्ताओं से ज़्यादा जुझारू एवं समर्पित कार्यकर्ता किसी भी दल के पास नहीं होते थे। सन् 2003 में इन्हीं कार्यकर्ताओं के संघर्ष से उत्तर प्रदेश में भाजपा-बसपा से सत्ता छीन सपा सत्तारूढ़ हुई। लेकिन सत्ता में आते ही इन्हीं कार्यकर्ताओं की अनदेखी प्रारम्भ हो गयी। तब सपा पर आजमगढ़ के एक राजनीतिक जुगाड़ू नेता का ऐसा प्रभाव था कि शपथ ग्रहण समारोह में दिन-रात पसीना बहाने वाले कार्यकर्ताओं को नीचे दरी पर तथा फ़िल्मी सितारों और व्यवसायियों को मखमली सोफे व कुर्सियों पर बैठाया गया। कार्यकर्ताओं की अनदेखी ने सपा को ज़मीन पर ला पटका। सपा नेतृत्व ने अपनी ग़लती सुधारते हुए जुगाड़ुओं को बाहर का रास्ता दिखाया और अपने कार्यकर्ताओं के दरवाज़े तक मनाने गये। तारीख़ गवाह है कि सन् 2007 की बसपा सरकार के ख़िलाफ़ किसी विपक्षी पार्टी ने सड़क पर उतरकर संघर्ष किया, तो वह सपा ही थी। सपा कार्यकर्ताओं के इस जुझारू संघर्ष ने सन् 2012 में पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार का मार्ग प्रशस्त किया। लेकिन सत्ता का नशा कई बार पुरानी सीख भुला देता है।

जिस राम मन्दिर आन्दोलन ने पार्टी को फ़र्श से अर्श पर पहुँचा दिया। उस दौरान संघ-भाजपा के लिए मुख्य विरोधी सपा सुप्रीमो थे, जिन्हें भाजपा हिन्दुत्व के विरुद्ध खलनायक की तरह प्रस्तुत करती रही है। किन्तु परदे के पीछे उनसे भी सुविधानुसार जुड़ी रही, ऐसी चर्चा निरंतर राजनीतिक गलियारों में चलती रही है। अभी संघ प्रमुख और सपा सुप्रीमो की तस्वीर देखकर भी ऐसी ही चर्चा है।

प्रतीत होता है कि संघीय संस्कारों से पोषित एवं अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहने का दावा करने वाली पार्टी सुविधानुसार संस्कार और सिद्धांत दोनों से समझौते के लिए तैयार रहती है। एक उदाहरण देखिए, बिहार काडर के एक भूतपूर्व आईएएस अधिकारी, जो इस समय बिहार से सांसद एवं केंद्र की भाजपा सरकार में मंत्री हैं; अपने भाजपा विरोधी रूख़ के लिए जाने जाते रहे हैं। लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी के उत्साह को छोडि़ए, यूपीए सरकार में सचिव रहते हुए उन पर हिन्दू आतंकवाद के सिद्धांतकारों में न सिर्फ़ शामिल होने, बल्कि इसके लक्षित आरोपितों की प्रताडऩा का भी आरोप भाजपा के नेता लगाते रहे थे। लेकिन अब वह विशुद्ध भाजपाई हैं।

अक्टूबर, 1952 को आंग्ल भाषी पत्रिका ‘हितवाद’ में लिखित अपने लेख में तत्कालीन संघ प्रमुख एम.एस. गोलवलकर लिखते हैं- ‘उन तमाम चिह्नों और प्रतीकों को ख़त्म कर दें, जो हमें हमारे अतीत की ग़ुलामी और अपमान की याद दिलाते हैं।‘

यह वक्तव्य ज़रूर दूसरे सन्दर्भ में है; लेकिन यह निश्चित है कि भाजपा नेता अपने आदर्श पुरुषों को भी नहीं पढ़ते। अगर ऐसा होता, तो यह महाशय भाजपा के सांसद एवं केंद्र सरकार में राज्य मंत्री न होते। वैसे उन महानुभाव के कृत्यों की पड़ताल आलेख का विषय नहीं है। साथ ही यह पार्टी का निजी निर्णय है कि वह किसे चुने। परन्तु एक पत्रकार का ध्येय जनता के सामने सत्य उजागर करना है कि नैतिकता के बड़े दावे करने वाले आसानी से समझौते भी करते हैं; बस फ़ायदा दिखना चाहिए।

आजकल भारतीय राजनीति का यह नया चलन है कि राजनीति शौक़ और ऐश-परस्ती का विषय बन गया है; त्याग, समर्पण और सेवा का नहीं। विशेषकर तीन वर्ग सेवानिवृत्ति का आनंद उठाने के ध्येय से नौकरशाह, शौबीज़ यानी सिनेमा, गीत-संगीत से जुड़े लोग एवं आर्थिक लाभ तलाशने वाले व्यवसायी आजकल राजनीति में एकदम से व्यापित होकर उसका गम्भीरता का मखौल उड़ा रहे हैं। ऐसे लोगों का सबसे बड़ा ठिकाना इस समय कोई दल है, तो वह भाजपा है। ऐसे लोग पार्टी से टिकट लेते हैं और दल में विभिन्न पदों पर आसीन होते हैं तथा पार्टी के लिए ज़मीन पर संघर्ष करने वाले कार्यकर्ता हासिये पर धकेल दिये जाते हैं। ऐसे उदाहरणों की सूची लम्बी है।

एक प्रख्यात अभिनेता, जो बिहारी बाबू के उपनाम से जाने जाते थे; भाजपा से तब जुड़े, जब वह दो संसद सदस्यों वाली पार्टी हुआ करती थी तथा भारतीय राजनीति में अपना वजूद बनाने के प्रयास में थी। तब इस अभिनेता ने लगातार पार्टी के लिए चुनाव प्रचार किया, स्वयं भी पटना साहिब से सांसद रहे। यहाँ तक कि जब भाजपा सन् 2004 से 2014 तक एक दशक में पतन की ओर थी, तब भी यह अभिनेता पार्टी के लिए समर्पित रहा। लेकिन सन् 2014 में सत्ता में सुदृढ़ होते ही, उन्हें कूड़े की तरह किनारे कर दिया गया। बाद में उन्होंने पार्टी ही छोड़ दी। वहीं हिन्दी सिनेमा की 80 और 90 के दशक की एक अभिनेत्री को सन् 2018 में भाजपा ने सीधे मुम्बई भाजपा का उपाध्यक्ष बना दिया। पद ग्रहण के साथ ही महोदया ने यह गूढ़ ज्ञान भी दिया कि ‘मुझे लगता है देश केवल उन लोगों की ज़रूरत है, जो देश के लिए समर्पित होना चाहते हैं। ऐसे लोगों की नहीं, जो केवल भविष्य बनाने के लिए राजनीति में हैं।‘ लगे हाथ उन्होंने यह भी बताया कि वह 2004 से ही भाजपा में थीं। लेकिन उनके बच्चे छोटे थे, इसलिए उनके पास समय नहीं था। हालाँकि उसके बाद में सिनेमा और टीवी शो में नज़र आयीं; लेकिन भाजपा के किसी आन्दोलन या चुनावी सभा में नहीं दिखीं।

तीन भोजपुरी के अभिनेता, जो भाजपा विरोधी दलों में सक्रिय रहे, वहाँ से लाभ न मिलता देख तुरन्त पाला बदल भाजपाई हो गये। पार्टी ने टिकट भी दे दिया। इनमें दो दिल्ली और गोरखपुर से सांसद हैं तथा तीसरे आज़मगढ़ से चुनाव हार गये। बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है, भाजपा के निर्वाचित सांसद और विधायकों में एक बड़ी सूची करोड़पतियों की है। सन् 2019 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं की अनदेखी करते हुए आदमपुर सीट से एक टिकटॉक स्टार को प्रत्याशी बनाया गया और वह चुनाव हार गयी। यह पार्टी का अहंकार ही है, जो जनता को अपनी जागीर समझ बैठी है कि वह जिसे टिकट देगी, जनता उसे चुन लेगी। मध्य-काल में सिकंदर लोदी को भी यही अहंकार था, जो अपने जूते सरदारों के यहाँ भेजकर उनसे उसके सामने कोर्निंश करने को कहता था। इस अपमान का दुष्परिणाम उसके बेटे इब्राहिम लोदी ने भुगता, जब कई अफ़ग़ान सरदार बाबर के विरुद्ध उसकी सहायता करने के बजाय दुश्मन से जा मिले। ये संकेत हैं कि कहीं कार्यकर्ताओं का अपमान उन्हें विरोधी ख़ेमे का सहयोगी न बना दे।

भारतीय राजनीति में आंतरिक दलीय व्यवस्था के मामले मात्र दो ही दल थे- भाजपा और वामदल; जो लोकतंत्र के मूल्यों को पूर्ण करते थे। ये दोनों ही व्यक्तिवादी पार्टियों से भिन्न काडर आधारित दल थे। हालाँकि वामदल इन दिनों हासिये पर हैं। परन्तु अपना आधार बढ़ाने के लिए अपने सिद्धांतों को नहीं छोड़ा। वे आज भी अपने काडर को ही अहमियत देते हैं और उन्हीं की नियुक्ति महत्त्वपूर्ण पदों पर करते हैं। किन्तु भाजपा सत्ता के मद में अपने काडर की अनदेखी करती है। स्थिति यह है कि भाजपा न सिर्फ़ परिवारवादी, बल्कि व्यक्तिवादी दल भी बनती जा रही है।

गुज़रात काडर के एक आईएएस अधिकारी को सीधे उत्तर प्रदेश भाजपा इकाई का उपाध्यक्ष बना दिया गया। इनकी सबसे बड़ी योग्यता है- ‘डेढ़ दशक तक तत्कालीन गुज़रात के मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री के प्रति समर्पण।‘

इसके अतिरिक्त किसी को इन महाशय की ऐसी किसी योग्यता का ज्ञान नहीं कि उन्हें पार्टी के संघर्षशील कार्यकर्ताओं की अनदेखी करते हुए शीर्ष पद पर बैठा दिया जाए।

सत्ता की लहर में सम्भवत: भाजपा के कार्यकर्ता एवं नेता पार्टी में शीर्ष पर उभरे इस सिण्डिकेट को देख नहीं पा रहे, जो सरकार और पार्टी में तानाशाही पर अमादा है। इस स्थिति की तुलना इतिहास के उस दौर से की जा सकती है, जब प्रचार माध्यमों के द्वारा ब्रिटेन की महानता का इतना बड़ा मिथक खड़ा कर दिया गया था कि जिन ग़रीबों की कोठरियों में ठीक से सूरज की रोशनी भी नहीं आती थी, वे भी इस भ्रम में गुम हो गये थे कि ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज कभी अस्त नहीं होगा।

इस दुनिया में न कुछ भी स्थिर है, और न ही स्थायी। व$क्त अपने न्याय में बड़ा निर्दयी हैं। वह किसी को नहीं बख़्शता। एक दल के रूप में अपनी सफलता को अपनी स्थायी नियति समझना भाजपा की भूल होगी। कांग्रेस के उत्थान और पतन का उदाहरण सामने ही है। देखना होगा कि हिन्दुत्व की दुंदुभी के शोर में यह सब कब तक ढका रहता है? यह भी देखना है कि जब यह शोर थमेगा, तब कितने शोकगीत सुनायी देंगे? वे, जो इन नेताओं में अपना ईश्वर देख रहे हैं; कब तक इस भ्रम में रहते हैं? नीत्शे लिखते हैं- ‘इन्हीं बीमार लोगों ने ईश्वर की कामना की है और इतने भर से ख़ुश हैं कि उनके लिए सन्देह करना पाप करना है। वे चाहते हैं कि उनका यह विश्वास सभी ओढ़ें।‘

लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसे स्वयंभू ईश्वरों को जनता ने बहुत समय तक बर्दाश्त नहीं किया है। आज की जनता तो इतनी परिपक्व है कि उसने इन्हें नकारना शुरू भी कर दिया है और लगता है कि वह बहुत समय तक इन स्वयंभू ईश्वरों को बर्दाश्त नहीं करेगी।

(लेखक इतिहास और राजनीति के जानकार हैं और उपरोक्त उनके अपने विचार हैं।)