सत्ता की शतरंज पर महाराष्ट्र में सियासी ड्रामा

एक पत्रकार होने के नाते किसी भी राजनीतिक चाल या झूठ या किसी भी जाति या दल विशेष का पक्ष न लेते हुए सिर्फ़ सच्चाई का आकलन करके उसे एक आईने के रूप में समाज के सामने रखना ही हमारा कर्तव्य होता है। हालाँकि किसी पत्रकार या बुद्धिजीवी के लिखे का सही आकलन निष्पक्ष ही करते हैं कि उसने सही लिखा या ग़लत। महाराष्ट्र की सत्ता में जो तूफ़ान आया, उसमें कई तरह की अफ़वाहें और सच्चाइयाँ लेखों के टुकड़ों के रूप में पल-पल उड़ती रहीं। देश की जनता, ख़ासतौर पर महाराष्ट्र की जनता इस तमाशे को बड़े ग़ौर से देखती रही।

ज्ञात हो कि महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सत्ता पर पहले भी कई बार पासा फेंका जा चुका है; लेकिन इस बार वे (सरकार गिराने के इच्छुक) सफल हो ही गये। दरअसल यह एक राजनीतिक खेल है, जो महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार के गठन के बाद से चल रहा था। आज राजनीतिक अपरिपक्वता का ढोंग करना भी उतना ही अपरिपक्व खेल है। सवाल यह है कि इस खेल के पीछे कौन है? दिल्ली की ताक़त? या पैसे की ताक़त है? कुछ लोग पूछ रहे हैं कि क्या यह एक राज्य विशेष की ज़रूरत है, जहाँ शिवसेना के विधायकों को सबसे पहले रखा गया था? सबसे अहम सवाल यह है कि क्या शिवसेना में भाजपा विद्रोह की राह देख रही था? वैसे लोग यह मान रहे हैं मायानगरी मुम्बई समेत महाराष्ट्र बड़ा और कमायी वाला राज्य है, जो मराठा शासन से ही शाही माना जाता है। यही वजह है कि जोड़ी नंबर वन इस राज्य पर शुरू से ही क़ब्ज़ा करने का सपना देखती रही है, और चाहती है कि उनका यह सपना हमेशा के लिए साकार हो जाए। इसलिए यह एक राजनीतिक षड्यंत्र माना जा रहा है। लेकिन ज़मीनी स्तर पर लोगों के मन में क्या है? इस बात को समझने की कोशिश न भाजपा कर रही है और न ही उसके समर्थन का राग अलापने वाले विधायक।

समझने की बात यह है कि आज भले ही यह लड़ाई हिन्दुत्व के नाम पर हो रही है; लेकिन यह शुद्ध रूप से हिन्दू हृदय सम्राट बालासाहेब ठाकरे के विचारों का विद्रोह ही है। अब अगर कोई हिन्दुत्व के नाम पर कोहराम मचाकर यह सब कर रहा है, तो यह जनता के साथ शुद्ध रूप से धोखा है। इस घटना में कोई यह न देखे कि शिवसेना टूट-फूट गयी है या तितर-बितर हो गयी है। क्योंकि भाजपा ने इस मामले में बिना कुछ बोले गोटियाँ अपने हक़ में कर लीं, वह भी आख़िर तक यह दिखाकर कि वह कुछ नहीं कर रही है। इस बीच शिवसेना के बाग़ी विधायक भी गुवाहाटी (असम) में रहे। हालाँकि शिवसेना से बाग़ी विधायकों की नाराज़गी का कोई ठोस कारण दिखा। किसी विधायक या मंत्री को पहले क्या मिलता था? और बाद में क्या मिला? या आगे क्या मिलेगा? एकनाथ शिंदे कोई इतने मज़बूत नेता नहीं हैं कि बिना किसी की शह के बग़ावत करने की हिम्मत करते। लेकिन शह मिली, तो वह पूरी कोशिश में हैं कि वह महाराष्ट्र के नाथ बन जाएँ। हालाँकि यह सम्भव नहीं है। भाजपा चाहती थी कि सिंदूर लगाने के लिए एक पत्थर चाहिए, और वह मिल गया। वैसे भाजपा पहले ही पाँच राज्यों में इसी तरह की तिकड़मबाज़ी से सत्ता हासिल कर चुकी है। अगर महाराष्ट्र में ऐसा होता है, तो यह छठा राज्य होगा। हालाँकि इससे पहले एक बार इसी तरह की कोशिश राजस्थान में हो चुकी है; लेकिन वहाँ के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सरकार गिराने वाले तथाकथित चाणक्यों को जिस तरह पटखनी दी, उसे शायद ही वो भुला पाए।

ख़ैर, महाराष्ट्र में सरकार गिराने को ऑपरेशन लोटस कहा जा रहा है। कहा जा रहा है कि ऑपरेशन लोटस का मक़सद सिर्फ़ सरकार हथियाना ही नहीं था, बल्कि शिवसेना पर भी क़ब्ज़ा करना भी है। ऑपरेशन लोटस के बारे में कहा जा रहा है कि इसकी कुल लागत 2,500 करोड़ रुपये से 3,000 करोड़ रुपये के बीच बतायी गयी। इसमें विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त और उनकी मेहमाननवाज़ी से लेकर बिचौलियों तक का बजट शामिल था। बेशक इस लागत को गम्भीरता से लेने का जनता के पास कोई ख़ास कारण नहीं है, क्योंकि कुछ लोगों को लगेगा कि यह सब हवा-हवाई बातें हैं। लेकिन भाजपा स्वयं ही कहती है कि वह दुनिया की सबसे बड़ी और अमीर राजनीतिक पार्टी है। ज़ाहिर है कि सत्ता हाथ में हो, तो यह कोई बड़ी रक़म नहीं है, क्योंकि सत्ता में आने के बाद इतना पैसा रातों-रात मुम्बई से ही वसूल किया जा सकता है।

बता दें कि मुम्बई में नगर निगम के चुनाव में सिर्फ़ दो महीने से भी कम समय है। मुम्बई नगर निगम का चुनाव अब तक शिवसेना का समीकरण रहा है। इसलिए शिवसेना, भाजपा, कांग्रेस और एनसीपी को कुछ ही घंटों में अपने फ़ैसले ख़ुद लेने होंगे। क्योंकि सरकार बचने या गिरने की ख़बर कब आ जाए, किसी को कुछ नहीं पता। आज के शिवसेना में विद्रोह करने और महाराष्ट्र को सत्ता बदलाव के नाम पर मैं वापस आऊँगा की सोच वाले देवेंद्र फडणवीस के पक्ष में जन समर्थन का कोई सवाल ही नहीं है। एक साधारण राजनीति का ज्ञान रखने वाले भी आज निश्चित रूप से जानते हैं कि इस राजनीति का असली मास्टरमाइंड कौन है? भले ही एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फडणवीस की दोस्ती समृद्धि मार्ग भ्रष्टाचार तक क्यों न परिचित हो। लेकिन बात बिगडऩे की कहानी सिर्फ़ इतनी है कि इस समृद्धि मार्ग के भ्रष्टाचार की फाइल खोलने की शिवसेना कोशिश कर रही थी, उस समय एकनाथ शिंदे कैबिनेट मंत्री थे।

राजनीतिक हलक़ों में कहा जाता है कि एकनाथ शिंदे की शक्ति और धन समानांतर रूप से बढ़ गये थे, इसलिए ईडी वास्तव में उनके लिए एक समस्या बन चुकी थी। लेकिन उनके पीछे खड़े 35 से 40 विधायकों का क्या? एकनाथ शिंदे पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और शरद पवार से नाख़ुश थे और अब भी हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने उनके ढाई साल के वित्तीय बैकलॉग को भर दिया और शिंदे को विद्रोहियों के नेता के रूप में छोड़कर उनके पीछे विधायकों खड़ा कर दिया। इनमें से ज़्यादातर विधायक ग्रामीण क्षेत्रों से हैं; और उनके ठाणे निर्वाचन क्षेत्र से चुने गये एकनाथ शिंदे के पीछे खड़े होने का कोई और कारण नहीं है।
बेशक यह पहली बार नहीं है, जब शिवसेना में इस तरह का विद्रोह हुआ हो। छगन भुजबल, नारायण राणे, गणेश नाईक, राज ठाकरे, ये सभी नेता शिवसेना से विद्रोह कर बाहर चले गये। उसके बाद भी विधायकों की संख्या का हिसाब लगाया गया और शिवसेना डटी रही। स्थापित रही। लेकिन अब ढाई साल बाद इन एकनाथ शिंदे और उनके पीछे खड़े बाग़ी विधायक हिन्दू हृदय सम्राट बालासाहेब ठाकरे के सिपाही बनकर जागे, इसका क्या मतलब है?

ध्यान रहे कि पिछले कार्यकाल में राज्य में शिवसेना-भाजपा की सरकार थी, जिसमें शिंदे कैबिनेट मंत्री थे। शिंदे एक बार के मध्यस्थ हैं, जो आज भाजपा का हिस्सा बन गये हैं। उनका आरोप है कि गठबंधन सरकार में हमारा काम नहीं हो रहा है। लेकिन सवाल यह है कि अगर शिवसेना उनके कहने पर या दबाव में आकर भाजपा से साथ सरकार बना भी लेती है, तो भी तो महाराष्ट्र को एक गठबंधन सरकार ही मिलेगी; तब उनका काम कैसे होगा? ऐसा कहने वाले विधायक कि फिर से बालासाहेब के हिन्दुत्व के लिए भाजपा के साथ गठबंधन ज़रूरी है, आख़िर वे क्या सिद्ध करना चाहते हैं। उद्धव ठाकरे भी भाजपा के साथ फिर से गठबंधन करने के लिए तैयार नहीं हैं। कहा जा रहा है कि भाजपा ने इस बीचौलिये (शिंदे) को अपना बना डाला, वह भी गर्दन मरोड़ देने वाला ईडी के भूत का डर दिखाकर। बाक़ी बड़े-बड़े वादे और आश्वासन की कला भाजपा माहिर है, जिसमें शिकार आ ही जाते हैं।

अगर शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे (बाल ठाकरे) होते, तो यह नंबर नहीं आता। अभी भी बहुत लोगों को लग रहा है कि उद्धव ठाकरे और राकांपा सुप्रीमो शरद पवार रिमोट कंट्रोल से अपनी पार्टी की कमान सँभाल सकते हैं। क्योंकि वह (शरद पंवार) राजनीति में परिपक्व हैं और शिंदे व फणनवीस अपरिवक्व। राज ठाकरे, गणेश नाईक, नारायण राणे भी ऐसा ही सपना लेकर उछले थे। लेकिन आज वे कहाँ हैं? सवाल यह भी है कि अगर एकनाथ शिंदे बालासाहेब ठाकरे के सिपाही हैं, तो वह महाराष्ट्र छोड़कर सूरत और गुवाहाटी में क्यों भटक रहे हैं? लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर कल हक़ीक़त सदन में मतदान का समय आता है, तो क्या ये 35 से 40 विधायक अपने विद्रोह पर अडिग रह सकेंगे? कुछ लोग कह रहे हैं कि कुछ भी हो अब कमान भाजपा को ही मिलेगी। ऐसे में आज भाजपा के शीर्ष नेता सोच सकते हैं कि वे शिवसेना को तोडऩे में कामयाब हो गये हैं। शिव सेना के हिन्दू मत को अपने वश में करने में सफल रहे। लेकिन हिन्दुओं का मत है कि यह महाराष्ट्र है, जो शिवसैनिकों का है। विधायकों का नहीं। यहाँ देशद्रोहियों को माफ़ करने की कोई परम्परा नहीं है। उद्धव ठाकरे ने अभी तो सिर्फ़ वर्षा बांगला छोड़ा है और उन पर फूलों की बारिश हो रही है। लेकिन कल क्या होगा, जब नगरपालिका चुनाव में वह मुम्बई वालों के सामने जाएँगे? उससे भी पहले जब भविष्य में इन बागियों की अग्नि परीक्षा होगी, तो एकनाथ शिंदे क्या करेंगे? फ़िलहाल एकनाथ शिंदे बाला साहेब के नाम पर खेल करके हुए नयी अलग पार्टी की घोषणा कर चुके हैं और नाटक जारी है। बहरहाल, संजय राउत बोले, तो उनके ख़िलाफ़ ईडी का समन पहुँच गया।