सड़कों पर घूमता कवि

मैंने लखनऊ में चाय की दुकान पर बैठकर कभी किसी का इतना इंतज़ार नहीं किया, जितना अरविंद चतुर्वेद का किया है। आने से पहले कई बार दिखता है कि वह आ रहे हैं लेकिन वह नहीं आ रहे होते हैं। तब सोचता हूँ, यह आदमी कैसा दिखता है जो मैं ठीक से नहीं देख पा रहा हूँ... और जो अभी-अभी दिखा था, वह कौन है। सबसे ऊपर तो यह कि अपनी इतनी पुरानी रिहाइश वाले शहर में इन दिनों इसी एक आधे आभासी-आधे वास्तविक आदमी से मिलने क्यों चला आता हूँ। मुझे मिलता क्या है? कवि अरविंद कैसे दिखते हैं? दिखाता हूँ आपको।

दुपहरिया ढलान, ऐनक लगा, एक गंजा आदमी दाल-भात, डायबिटीज़ की दवा और आठ-दस अ$खबार खाने के बाद योजना भवन की परली तरफ खलीफा ईदू मार्ग पर पैदल अपनेदफ़्तर की ओर चला आ रहा है। उसके चलने में इत्मीनान है, जो इस सच से पैदा हुआ है कि उस जैसे लोगों के रोज़ी कमाने का सफर अंतहीन है, जो उनके मरने के साथ खत्म होगा।काहे की हड़बड़ी!

उसके झुकते कंधे पर एक रैक्सीन का बैग है, जो कहीं भी रात बिताने की तैयारी के साथ भटकने वाले गुजऱे ज़माने के फक्कड़ लेखकों के रूमान की लाश की तरह फूला और नुचाहुआ है। उसमें हो सकता है एक कंघा हो, जो देर रात लौटकर पी जानेवाली शराब की शीशी के साथ लिव इन में रहता है। उंगलियों में एक सिगरेट है जिसे आग के कटखने फूल कीतरह सावधानी से सहेजा गया है। टेरीकाट की पैंट-कमीज़, पुराकालीन स्लीपर और बीच में ठिठक कर मल्टीस्टोरी इमारतों को ताकने की हरक़त सब चुगली कर रहे हैं कि इसआदमी को खुद को सजाने वाले सामान के विपुल वैविध्य, आसान उपलब्धता और समकालीन फैशन की खबर नहीं है। उसके तबके के बहुतेरे लोग छैला बने दिखते हैं क्योंकि सूखचुकी हसरतों के पूरे होने के अवसर इधर बहुत बढ़े हैं।

वैसे यह किसी एक आदमी की तस्वीर नहीं है। राजनीति, साहित्य, कला, संस्कृति के दायरों में ऐसे पुराने, भौचक और अटपटे इक्का-दुक्का लोग अब भी दिख जाते हैं, जिन्हें किसी स्वप्नसे उठाकर सड़क पर चला दिया गया है। उन्होंने जो स्वप्न ही नहीं, बेचैनी, प्रयोग, मोहभंग का भी ऊबड़-खाबड़ अपारंपरिक जीवन जिया है, उसकी अब कल्पना संभव नहीं रह गयीहै। इकहरे, सनकी, अवसरवादी और महाआत्मकेंद्रित होते जाते ज़माने की नयी पीढ़ी को तो यक़ीन भी दिलाना मुश्किल है कि एक ऐसा भी समय था कि घुटन और शोषण से भरेपुराने ढाँचे को तोड़-ताड़ कर सबके लिए कुछ नया बनाने की दिशा में सोचते हुए उस ऊंचाई तक जाने की आज़ादी थी, जहाँ से गिरकर आदमी ऐसा हो जाता है। इस आदमी कीजवानी की भी एक तस्वीर होगी, लेकिन दिखाने से क्या $फायदा। कोई मानेगा ही नहीं।

उसकी डुबान देखिए। वह किसी और युग में चलते हुए दफ़्तर की ओर आ रहा है और मैं घोड़ा अस्पताल के सामने बरगद के नीचे चाय की दुकान पर उसका इंतज़ार वर्तमान में कररहा हूँ। लग सकता है कि यह आदमी ज्य़ादातर किसी बीते समय में रहता है। उसकी रुचियाँ, आदतें, सड़क पर चलने और जीने का सलीक़ा सब वहीं बने होंगे लेकिन वह बड़े आरामसे वर्तमान, भविष्य और दूसरे अज्ञात समयों में भी ऑटोमैटिक आता-जाता रहता है। उसके ऊपर से पुराने और बेतरतीब लगते व्यक्तित्व में एक करीनापन है। वह खुद से अच्छी तरहसंतुष्ट होकर ही घर से निकला है। उसकी अपने साथ व्यस्तता से जाहिर है कि बिना अप्वाइंटमेंट मुला़कात संभव नहीं है।

लीजिए वह खरामा-खरामा आ पहुँचे। देख लिया है, लेकिन जो भाव आँखों में आना चाहिए, वह हाथ की तरफ भेज दिया गया है जिसके कारण वह हल्का-सा हिला है, ‘क्या हाल है यार,केतनी देर से बइठे हैं? ‘

निराशा होती है। ‘मान लीजिए, आप जान लें कि मैंने ठीक कितनी देर आपका इंतज़ार किया तो…क्या करेंगे? ‘ इस जानकारी का इस्तेमाल अपने उपेक्षित खस्ता अस्तित्व को संतोषऔर खुशी का जऱा-सा चारा खिलाने के सिवा और क्या किया जाएगा!

मुझसे पहले अपनी बेकरारी का इज़हार करने के लिए अचानक एक पिल्ला बेंचों के नीचे से होता हुआ आगे आ जाता है और उनके चारों ओर मंडराने लगता है। ‘अच्छा, तुम भी यहींजमे हो! ‘  वह चाय की दुकान में रखे मर्तबान से एक बिस्कुट निकाल कर उसे देते हैं। वह नहीं खाता, सूंघकर एक ओर चल देता है। वह कहते हैं, ‘जाओ बच्चू! जब तुमको बड़े कुत्तेझोरेंगे तब इस बिस्कुट की याद आएगी।’

वह हैरानी के साथ पूछते हैं, ‘का हो, यह बताइए, क्या आजकल के बच्चे भी अपने बाथरूम के लिए लड़ते हैं? ‘

क्या मतलब है इस बात का!

इतनी देर में वह स्मृति की बस पकड़ कर सोनभद्र जिले के मुख्यालय रापटगंज पहुँचते हैं और वहाँ से पैदल अपने गाँव की ओर चल पड़ते हैं। निहायत औपचारिक ढंग से अपनेमतलब की तफसीलों पर जोर देते हुए एक बहुत पुराना कि़स्सा शुरू होता है… हम लोग छोटे थे। बच्चे ही कहिए। प्राइमरी में पड़ते थे, तो क्या कहिएगा। हाँ, बच्चा तो हुए ही। तब कीबात कर रहा हूँ। हमारे गाँव चरकोनवां के बगल से एक नदी बहती थी। उसे मैं बच्चा नदी कहता हूँ। ऐसी कोई बड़ी या गहरी नहीं थी कि कोई नहाने जाए तो डूब जाए। पठार कीछिछली नदी समझिए। उसके कारण स्कूल में बड़ी लड़ाई होती थी। हम लोग कहते थे कि वह हमारी नदी है। दूसरे गाँव के बच्चे कहते थे, हमारी है। क्योंकि वही नदी तो उनके गाँव केपास से भी जाती है और वे उसके किनारे खेलते हैं, तो वह हम लोगों की नदी कैसे हुई। हम लोग कहते थे कि भाई, वह सब ठीक है कि वह तुम लोगों के गाँव के पास से भी जाती है।नदी है, तो जाएगी ही। लेकिन है वह हमारी ही नदी। पहले हमारे गाँव आती है, तब न तुम लोगों की तरफ और उससे भी आगे जाती है!

ऐसे तो पहिले की दुलहिनें भी अपने गाँव के लिए लड़ती थीं। जब ससुराल में कोई ताना मारे कि उसकी तरफ के लोग भतहा; ज्य़ादा चावल खाने वाले, पनहग्गा; बाढ़ के दिनों में पानी मेंशौच करने वाले या छेरिहा; बकरी पालने वाले हैं लेकिन बच्चे…बच्चों का क्या कहा जाए। अपार्टमेंट में रहने वाले बच्चों का अपना बाथरूम है। उस पर उनके माँ-बाप का कानूनीमालिकाना हक़ है लेकिन नदी जैसा अधिकार महसूस नहीं होता। नदी की तरह आदमी भी प्रकृति का जि़ंदा हिस्सा है इसलिए नदी, पेड़ और तारों पर नानी-दादी जैसा अधिकारमहसूस हुआ करता था। लेकिन यह खूब पढ़ा-लिखा आदमी इतना तो जानता ही होगा कि बस्तियाँ नदियों के किनारे सिंचाई-प्यास-पूजा और परिवहन के लिए बसीं लेकिन असलीसभ्यता तो नदियों और पेड़ों से दूर जाने का नाम है। यह प्रकृति से छिटक कर उसे मनमाफक पालने, नष्ट करने और  भर लोगों के खज़ाने को और भारी करने की प्रक्रिया है। मालूम हैकि ऐसा नहीं हो सकता, फिर भी यह आदमी बच्चों को फिर से असभ्य बनाकर किसी बीते समय में ले जाना चाहता है ताकि उन्हें प्लास्टिक और कल्पना की परछाई से बने वीडियोप्लेयर के बजाय नदी और जंगली घास के फूलों से अपना संबंध महसूस होने लगे।

ओहो! तभी सभ्य लोगों ने अपने बच्चों को बचाने के लिए इसका यह हाल किया है।

अब यह आदमी आज की तुलना में अपने काफी जंगली बचपन की याद करने और तब से अब तक के विकास के गलत हो जाने की शिकायत करने के अलावा कुछ और नहीं करसकता। हो न हो, कहीं यह एक कवि तो नहीं है!

कोई सत्रह साल पहले, पहली मुलाकात बनारस में हुई थी। तब भी कवि कलकत्ते से रापटगंज के रास्ते में था।

सुशील पंडित साथ लेकर आये थे। वह एक बंद हो चुके काफी पुराने अखबार ‘कैमूर समाचार’ का फिर से रजि़स्ट्रेशन कराना चाहते थे। कुछ इस तरह परिचय कराया था- ये कलकत्ता’जनसत्ता’ में फीचर एडीटर हैं। जल्दी ही वीआरएस लेकर यहीं रहेंगे। तब मजा आयी राजा! ये आ जाएं, तो हम लोग बनारस के राजनीतिक-सांस्कृतिक जीवन में कचाका हस्तक्षेपकिया जाएगा।

सुशील पंडित हमारी आत्मा पर लगे पैबंदों को छिपाने के लिए या मिस्कीन हालत को कुर्बानी की गरिमा देने के लिए कभी अचानक लोहिया युग के अदरकी सोशलिस्टों की तरह बोलनेलगते थेए जबकि ज़न्नत की हक़ीक़त सबको मालूम थी।

मैं बनारस में ‘हिन्दुस्तान’ अखबार का घुमंतू संवाददाता था जो कई दिनों से एक पुराने कवि विनय श्रीकर की जासूसी करने में लगा हुआ था। लहुराबीर के पिछवाड़े महामंडल नगर कीएक गली में मद्रास हाउस की छत पर बने अकेले बड़े से कमरे में रहता था, जिसमें ताला लगाने की नौबत दो-चार महीने में एक बार आती थी। नीचे लोहे के दरवाज़े, ग्रिल, कंडाल,कड़ाही बनाने का कारखाना था। बीच की मंजिल पर खराद मशीन की शक्ल वाले कुछ सेल्समैन, छात्र और पत्रकार किराये पर आ बसे थे। कमरे में मेज़ पर एक हीटर, कुकर, कुछआलू, चावल का कनस्तर और आलमारी में आधा-पौना रम की बोतल हमेशा उपलब्ध रहते थे। किसी रिपोर्टिंग असाइनमेंट से लौटने के बाद बाहर से आया कोई दोस्त या परिचितअक्सर आबाद मिलता था। अरविंद चतुर्वेद भी कलकत्ते से आये और अपना बैग रखकर तहरी के लिए मटर छीलने लगे। कमरे की हालत का मुआयना करते हुए उन्होंने कहा,काधिक बार मैंने भी च्यवनप्राश के साथ रोटी खायी है।

हाँ, कोई खास बात नहीं है। कवियों के साथ कभी-कभार ऐसा हो जाता है। उन्हें पता नहीं चलता कि कब सारी दुकानें बंद हो गयीं, शहर सो गया। तब जो मिले, उसी से काम चलानापड़ता है।

शाम उतर आयी। आठ-साढ़े आठ का समय होगा। कुछ ऐसा हुआ कि मटर की छीमियों में सड़कें बन गयीं, जिनके किनारे विक्टोरिया युग के लैपपोस्ट थे, ढलवां लोहे की लंगड़ी बेन्चेंथीं। छिलकों में कलकत्ते के कीचड़-कादो से लथपथ ऊबड़-खाबड़, हरे बदरंग मोहल्ले दिखाई देने लगे, जिनके बीच में कहीं-कहीं खपरैल वाले मकान थे। थाली में लुढ़कते दानों मेंएक पीली छत वाली एम्बैसडर टैक्सी चल रही थी जिसमें नवारुण भट्टाचार्य और अरविंद चतुर्वेद बैठे थे। किसी गोष्ठी से लौट रहे होंगे। अरविंद ने कहा, नवारुण दा, ऐसा करते हैं किकिसी बार में दो-दो पेग रम पीकर तब घर जाते हैं।

नवारुण ने जतीन दास पार्क के मेट्रो स्टेशन के सामने टैक्सी रुकवाई। गाजा पार्क के बगल में सड़क के मुहाने पर एक पुरानी धूसर इमारत के दूसरे तल्ले पर एक बिना साइनबोर्ड काबार था। बालकनी से होकर गुजऱते एक संकरे गलियारे में ऊंघते दरवाज़े के पीछे एक बूढ़ा जर्जर हॉल था। बल्ब की पीली मटमैली रोशनी। बहुत पुरानी नाटे क़द की चौड़ी मेज़ें औरउधड़े गद्दों वाली सो$फानुमा कुर्सियाँ। कम से कम दो पीढ़ी पुराना बार होगा। खालीपन के एक नुकीले कोने में दो बुजुर्ग व्हिस्की पी रहे थे। नवारुण ने दो नहीं, तीन पेग पीने के बादपनीली आँखों से देखते हुए गाजा पार्क की ओर हाथ उठाया, इसी बगल के पार्क में मेरा बचपन गुजऱा है। हम यहीं माँ-बाबा के साथ पास में रहते थे। एक सुबह पार्क में आया, तो देखताहूँ बेंच पर काकू; फिल्मकार ऋत्विक घटक, जो महाश्वेता देवी से उम्र में थोड़े ही बड़े थे मगर उनके काका थे, बैठे हैं। वे रात भर उसी बेंच पर सोये रह गये थे। उन्होंने पास बुलाया,मुझसे एक चाय और बंद मंगाकर खाया। उन्हें भूख लगी थी। कहा, माँ-बाबा को बताना मत।

टैक्सी दोनों को लेकर कहीं चली गयी। अब महाश्वेता देवी कंधे पर बड़ा-सा थैला टांगे बाँट रही थीं। वे पोस्टमैन थीं। एक दिन घर आये अरविंद को धमका रही थीं, आजकल नवारुण केसाथ ज्य़ादा दोस्ती हो रही है। देखना, तुमको भी डायबिटीज़ हो जाएगी। फिर देखा, एक तौलिया भिगोकर अरविंद के सिर पर रगड़ रही थीं। कह रही थीं, जब मैं बहुत थक जाती हूँ, तोऐसा ही करती हूँ। वह आदिवासियों का एक वाकय़ा सुनाने के बाद कह रही थीं, इसे तुम लोग लिख मत देना। यह मेरा अपना प्लाट है। भूल न जाऊं, इसलिए सुना दिया।

अचानक अरविंद चतुर्वेद ने कहा, आपके पास कुछ कविताएं होनी चाहिए!

मुझे थाली में पहली बार मटर के दानों के गिरने की टंकार सुनाई दी। मैंने काफी दिन पहले कविता जैसा कुछ बनाया तो था लेकिन लगता है यह आदमी नारियल घुमाकर कविताखोजने निकला है क्या। बचपन में एक ऐसे आदमी को देखा था जिसे कुआं खोदने का संकल्प कर लेने के बाद धरती के नीचे भरपूर पानी वाली जगह खोजने के लिए बुलाया जाता था।वह मंत्र से पवित्र किये गये सूत में बंधा नारियल झुलाते हुए खेतों में घूमता था। जिस जगह नारियल नाचने लगता था, निशान लगा दिया जाता था। उसका कहना था कि नारियल केभीतर का पानी ज़मीन के पानी को पहचान लेता है।

मैंने थोड़ी ही देर पहले एक स्वयंभू संपादक का जि़क्र किया था, जिसने अपनी पत्रिका का पहला अंक भेजा था और अब समीक्षा लिखने के लिए एसएमएस भेजकर चरस किये हुए था।कविताएं घटिया थीं, कहानियाँ अपठनीयता की हद तक लद्धड़, लेख पुराने और संपादक के आत्मप्रचार के नमूने पन्नों पर बेशर्मी से बिखरे हुए थे। मैंने बिना पढ़े ही एक कोने में फेंकदिया था। अरविंद चतुर्वेद ने गंभीरता में इतने गहरे धंसी कि न दिखने वाली शरारत से कहा था- जवाब दे दीजिए : प्रयास अच्छा है। आप जैसे विद्वान से और सुधार अपेक्षित है।शुभकामनाएं। सेट लैंग्वेज है। ऐसे ही कहा जाता है।

अगली शाम कवि ज्ञानेंद्रपति आये। मुझे कविता से कहीं बहुत अधिक उनकी जि़ंदगी आकर्षित करती रही है। उन्होंने बहुत पहले नौकरी-दुनियादारी छोड़कर बनारस में सिर्फ एककवि बने रहना चुन ही नहीं लिया था, इसे संभव भी कर दिखाया। मैं उनसे पूछा करता था, मैं ऐसी जि़ंदगी कब जी पाऊंगा? वह हैरान करने वाली उदासीनता में छिपे चुप्पे आत्मविश्वाससे कहते थे- हो जाएगा, सब पहले भीतर होता है।

हम लोग मलदहिया के एक देसी ठेके पर जा बैठे, जहां जाली के भीतर बोतलों के आगे एक लंगोट सूख रहा था। शोर, सौजन्य, बांग्ला कवियों, कलकत्ता के अड्डों और चेतना पारीख परबातचीत के बीच अचानक मैंने विनय श्रीकर को देखा, जो कुछ दूरी पर अकेले बैठे नमक के साथ पी रहे थे। नशा लगभग हिरन ही हो गया क्योंकि मेरी एक आँख उनकी हरक़तों सेचिपक गयी थी। मामला ही कुछ ऐसा था कि वह निकलने लगे, तो मैं भी चुपचाप उठकर पीछे लग लिया। बाद में अरविंद चतुर्वेद ने बताया, ज्ञानेंद्रपति को लगा था कि मैं किसी बात सेदुखी होकर चला गया हूँ। दोनों ने काफी देर मेरा इंतज़ार किया, आसपास खोजा और लौट गये।

अगले साल अरविंद चतुर्वेद फिर बनारस आये। इस बार साज़ोसामान के साथ। जगतगंज में अपने बालसखा भोला यानी जीतेंद्र मोहन तिवारी के घर के सामने एक कमरा किराये परलेकर रहने लगे। कलकत्ते में रहने के औचित्य बहुत थे। एक दशक से भी अधिक पुराने संपर्कों-संबंधों का जाल था, जो उन्हें जनसत्ता से वीआरएस लेने के बाद बड़े आराम से थामसकता था और वह उस समय नवारुण भट्टाचार्य की पत्रिका ‘भाषाबंधन’ में संपादक थे, जो बांग्ला में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य की साझा पत्रिका थी। लेकिनकलकत्ते का ही औचित्य शायद नहीं रह गया था क्योंकि उनकी गर्लफ्रेंड मुनमुन सरकार की मृत्यु हो गयी थी। मुनमुन ने तसलीमा नसरीन की लज्जा समेत छह किताबों का बांग्ला सेहिन्दी में अच्छा अनुवाद किया है और नवारुण के प्रसिद्ध उपन्यास हरबर्ट का भी।

अब उनकी खबर भोला से मिलती थी।

कबीरचौरा अस्पताल के सामने से गुजऱो, तो अपने मेडिकल स्टोर के काउंटर पर आधे से अधिक बाहर लटके भोला पान की पीक मारते हुए चिल्लाते थे- काहो अरविंदवा से भेंटभयल?

-काहे!

-अरे, हमसे बाल फिर से जमाने वाली दवाई माँग रहा था। और कोई बात नहीं है।

अरविंद चतुर्वेद में अपने वक़्त यानी सत्तर के दशक का बनारस भूसे की तरह भरा हुआ था।

बीएचयू कैम्पस की व्यवस्थित हरियाली पार कर लेने के बाद लंका का मद्रास कैफ़े था, जिसके आगे लंवगलता-लस्सी की दुकान थी, फिर कभी-कभार साइकिल का पैडिल मारने परभी काम चला देने वाली अस्सी तक की ढलान थी।

साइकिल पर बैठने के पहले के समय में एक जगह थी, जहाँ नया भारत बनाने के लिए कसमसाता प्रगतिशील कि़स्म का राष्ट्रवाद था, नेहरू के घर में अखंड आशावाद की कलारी थी,जिसका माल किसी भी किस्म के समाजवाद के साथ मिलाकर पीने पर नशा कर्रा होता था लेकिन हैंगओवर बहुत बुरा था। किसी गरीब को कुछ मनहर गानों के अलावा कुछ नहींमिला था और नेहरू मर गये। मरते समय उन्होंने अपनी राख हवाई जहाज से देश पर बिखराने को कहा था। वह जहाँ-जहाँ गिरी, वहाँ जो जऱा रूमानी और आधुनिक था और अधिकहरा हो रहा था। सफर में नीम की दातुन का गड्डा और पान का चौघड़ा लेकर चलने वाले देहाती काशीनाथ सिंह तब जीन्स पहनने लगे थे। जीन्स का ही झोला लटका, लाल रंग कीसाइकिल से बीएचयू के हिन्दी विभाग आते थे, जो गुलमोहर के नीचे खड़ी होती थी। पालि की क्लास के बाद अपने चैंबर में अरविंद को बुलाकर कहते थे, आर्य, अब आप सिगरेट पीएंऔर मुझे भी एक पान खिलाएं। उन्होंने तब ‘अपना मोर्चा’ उपन्यास लिखा था, जिसका अब कोई नाम भी नहीं लेता।

पच्चीस साल बाद मैंने देखा, धवल धोतीधारी काशीनाथ सिंह ‘हंस’ में ‘देख तमाशा लकड़ी का’ और ‘काशी का अस्सी’ छपने के बाद गद्गद आत्मीयता से स्वीकार कर रहे थे- अहिरा;राजेंद्र यादव ने हमको अमर कर दिया।

नक्सलबाड़ी कुचला जाकर फ्लाप हो चुका था लेकिन वसंत के वज्रनाद की गूँज़ हवा में थी। जवान रीढ़ों में झुरझुरी थी- हो सकता है, हो सकता है। रूस, चीन से आई किताबें खासतौरसे उपन्यास बेहद सस्ते थे। अभी क्रांतिकारियों की जात देखकर भी नहीं देखी जा रही थी लेकिन कहाँ चूक हुई, इसके लिए एक जटिल तकनीकी भाषा में मूल्यांकन चल रहा था।लोफर लौंडे भी जानते थे कि एक क़दम आगे दो क़दम पीछे का क्या मतलब है। समाज बदलने के अधिक वैज्ञानिक तरीकों की खोज़ की जा रही थी, इसलिए दुर्गाकुंड पर सर्वहाराक्रांति के लिए वाजि़ब साहित्य व अन्य संस्कृतिकर्म की रचना को लेकर डॉ. रामनारायण शुक्ल, जलेश्वर उफऱ् टुन्ना, ओमप्रकाश द्विवेदी, श्रीकांत पांडेय, राजशेखर के साथ की जानेवाली लंबी बहसें थीं। बगल में रवींद्रपुरी से लगी, जो मेहतर बस्ती थी उसके वर्गीय चरित्र की व्याख्या सर्वहारा मानकर की जा रही थी। यह अंदाज़ा लगाना असंभव था कि वे सब भविष्यकी मायावती यानी दौलत की बेटी के वोट थे। टेम्पर इतना था कि तभी अरविंद ने बनारस शहर में बने रहने के लिए ‘आज’ अखबार की नौकरी कर ली और उन्हें पूँजीवाद का  घोषितकर दिया गया।

इंदिरा ने इमरज़ेंसी लगा दी थी तो क्या हुआ, पीठियाठोंक जेपी आंदोलन भी था। गोदौलिया पर ‘द रेस्टोरेंट’ और तांगा स्टैंड था जहाँ विरोध सभाएं हुआ करती थीं। कुछ नौजवानों कोबर्दाश्त नहीं था कि आदमी आदमी को खींचे, इसलिए वे रिक्शे पर नहीं बैठने का काम किया करते थे। अभी मुसलमान होना पाप नहीं बना था। चौराहों पर ऐसी बिरहा सुनी जा सकतीथी, जिसमें हनुमान जी अमेरिका जाते हैं और किसी डिपार्टमेंटल स्टोर में बहुत छोटे, अजनबी कपड़ों में सजी मेनिक्विन को सीता माता समझ कर चकित होते हैं।

भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद था लेकिन विद्रोही चिंतन और घर के भीतर प्रतिपक्ष भी था। कोई ज़रूरी नहीं था कि बाप अगर बेईमानी करके बेटे को रेस जिता दे, वह उसे पूजनीय भीमानने लगे। हिन्दी विभाग में सिफऱ् दो कारें थीं। एक महाप्रतापी प्रोफेसर विजयपाल सिंह की, दूसरी सेकेंड हैंड टाइप कमलिनी मेहता के पास। विजयपाल सिंह के लड़के ने एम. ए. मेंगोल्डमेडल लाने वाले नामवर सिंह और शिव प्रसाद सिंह दोनों का रिकार्ड एक साथ तोड़ा था और जे.एन.यू. से लौटकर एम.ए. को पत्रकारिता का वह विशेष प्रश्न पत्र पढ़ाने लगा था, जोछात्र व्याखाता के तौर पर अरविंद पढ़ाया करते थे। आता-जाता कुछ था नहीं, क्लास में भयभीत वन्यपशु की तरह बचता फिरता था। जिस रोज़ कोई लड़का सवाल पूछ दे, तो घरलौटकर विजयपाल सिंह को केहुनाठय केहुनाठ मारता था- वहाँ रोज़ मेरा मज़ाक उड़ता है। बेइज्ज़ती कराने के लिए लेक्चरर बनवा दिये हो!

स्वाधीन ढंग से सोचने वाले, वर्जनाएं तोडऩे वाले, अपनी जि़ंदगियों के साथ निर्मम प्रयोग करने वाली स्वाधीन युवा आत्माओं की कमी नहीं थी। रीवा कोठी छात्रावास की खिड़की थी,जहाँ से खाली दोपहरी में पंडों की लंगड़ी छतरियाँ और नदी में हिलती छूँछी नावें दिखाई देती थीं।

एक दिन मैंने देखा कि वह नखलऊ में एक अखबार में संपादक लगे थे और अब जीवन के केंद्र में नौकरी आ गयी थी। बीच के बीते दिनों का निचोड़ कहने लगे- भौगोलिक नहीं, समयकी दूरी मायने रखती है। साला, बनारस में अब सिफऱ् पुराना साइनबोर्ड बचा है। मैंने पाया कि गोदौलिया पर मक्खियाँ बहुत बढ़ गयी हैं, ठंडाई पर हरी काई जमी है, भीड़ भयावह है,परमसुपरिचित जगहों पर भी जा पाना दुरूह, टेलर मास्टरों के गले में हमेशा लटकने वाला फीता उतर चुका है, अब सब कुछ रेडिमेड है, हर जगह विज्ञापन के बोर्ड हैं, जो भी आत्मीयऔर पहचाना थाए वह जादू के जोर से गायब हो चुका है। सब ओर पलस्तर झर रहा है। इंतज़ार किया जाए तो जो दिखता है, वही बदरंग और कुरूप निकलता है। शंख घोष की कवितायाद आती है-

एकला हए दांडि़ए आछी

तोमार जन्य गलिर कोने

भाबी आमार मुख देखाबो

मुख ढेके जाय विज्ञापने।

एकटा दूटा सहज कथा

बोलबो भाबी चोखेर आड़े

जौलूशे ता झलसे उठे

विज्ञापने रंगबाहारे।

(तुम्हारे इंतजार में अकेला खड़ा हूँ। गली के मोड़ पर। सोचता हूँ दिखाऊंगा अपना मुखड़ा। चेहरा ढँक जाता है विज्ञापन से। सोचता हूँ सहज ही एक-दो बातें करूँगा नज़रों की ओट से।लेकिन भीड़ में विज्ञापन की रंगीनियों में वह चौंधिया रहा है।)

भूल गया था, इसी बीच में उदारीकरण हुआ और दुनिया एक गाँव भी तो बन गयी थी। घोड़ा अस्पताल पर बरगद के नीचे चाय की दुकान पर मिलने जाओ, तो लगता था जैसे कोईकिलनी चिपकी हुई है। एक चाय, एक सिगरेट और आधा गाल बतकही के बाद धागा खट्ट से टूट जाता था, ‘चलें यार, दफ़्तर में बहुत काम है।’

मैं नकली हैरानी और खांटी उपेक्षा से देखता था, ‘ऐसा क्या काम है।’

‘है यार, आप समझ नहीं रहे हैं। आदमी कम हैं। अभी जो स्थिति है, उसी में दफ़्तर से निकलते-निकलते बारह बज जाता है।’

मैं यह सोचकर उनकी उपस्थिति से ही कपट अनजान हो जाता था कि उपेक्षा का असर पड़ेगा और वे थोड़ी देर और बैठेंगे लेकिन वे तो सचमुच पछताते हुए क़दमों से दफ़्तर की ओरचल देते थे। मैं सोचता था कि आदमी सदा से किरानी रहा होगा या इन दिनों बदल कर ऐसा कामी हो गया है।

आखिरकार एक दिन मैं यह देखने दफ़्तर के भीतर गया कि यह आदमी काम कैसे करता है। मैंने पाया कि किसी कॉपी को एडिट करने या लेख पर हेडिंग लगाने के बाद कम्यूटर केकी-बोर्ड पर इतनी जोर से हाथ मारता है कि लगता है, वह टूट जाएगा। क्या उसे पता नहीं है कि हल्का-सा कमांड पाने के बाद $फाइल अपने आप जहाँ भेजी जा रही है, साइबर स्पेसमें तैरती हुई पहुँच जाएगी। पता था, लेकिन यक़ीन नहीं…कम्प्यूटर छकड़ा था, यह आदमी पल्लेदार की तरह पूरी ताकत लगाकर खबरों और लेखों में भरे अक्षरों के वजन का अनुमानलगाते हुए वाजि़ब डेस्कों और प्रिंटर तक पहुँचा रहा था, जिससे अक्सर सांस उखड़ जाती थी। प्रिंटर से निकलते कागजों पर असुरक्षा भी छपी होती थी लेकिन कोई उसे देख नहीं पाताथा क्योंकि सभी उसके नजऱबंद में काम कर रहे थे।

मैं एक रात उन्हें दफ़्तर से उठाकर त्रिपुर सुंदरी का लॉन दिखाने ले गया। यह बरसात के दिनों में ला मार्टिनियर कॉलेज और अंबेडकर पार्क के बीच की बढिय़ाई गोमती नदी थी,जिसके दोनों किनारों पर ऊपर सड़क तक बोल्डर जड़ दिये गये थे। रात में जब गोमती नगर को जाने वाले पुल, अंबेडकर पार्क के आगे नदी के पुश्ते पर लगे लैंपपोस्टों की रोशनियाँपानी पर पड़ती थीं और दूसरे छोर पर दिलकुशा के पास अंधेरे में कोई रेलगाड़ी नदी पार कर रही हो, तो खुशी और उदासी का अज़ीब सा मेल होता महसूस होता था। पुरवाई से पानीमें लहरें उठती थीं, तब नदी का पाट रोशनियों के वन में बदल जाता था। प्रकाश का यह जादू अँधेरे और हल्के नशे में ही चलता था वरना दिन में तो किसी रेगिस्तानी किले जैसाअम्बेडकर स्मारक था, किलोमीटरों तक चिलचिलाते बोल्डर थे, जिन पर सूखते गू से बचकर चलना पड़ता था। नदी में प्लास्टिक की पन्नियाँ, रसायनों का झाग और शहर का कचराभरा था। दुर्गंध के भभके बेचैन किये रहते थे। हम दोनों काफी देर तक बोल्डरों पर बैठे साथ में लाए तरल की चुस्कियाँ लेते सौंदर्य पर मुग्ध होते रहे। मोटरसाइकिल से वापस लौटते हुएख्याल आया, क्या कविता और साहित्य की दुनिया इस त्रिपुर सुंदरी के लॉन जैसी ही नहीं है जिसमें हम लोग रहते हैं?

-हाँ यार बात तो कुछ ऐसी ही है लेकिन किया क्या जाए!

सोशलिस्टों ने कुछ किया हो या नहीं, भाषा को कुछ शब्द बहुत सटीक दिये हैं। ऐसे ही एक पद ‘निराशा के कर्तव्य’ की याद बेसाख्ता आयी, जब देखा कि अरविंद चतुर्वेद फेसबुक परइस फ्यूजऩ के ज़माने में खालिस दोहे लिख रहे हैं और हर दोहे में जो कहा जा रहा है, उसका पहला श्रोता बांकेलाल है।

मैंने उसे पहचान लिया। उसका असली नाम कुछ और है लेकिन उस पर हिक़ारत की इतनी धूल पड़ी है कि कोई उसके नाम से पुकारे, तो वह चौंक कर किसी और को देखने लगेगा।मूर्ख समझे जाने की हद तक लटक कर भी हमेशा मुस्काने वाला बांकेलाल चरकोनवां का रहने वाला है। उसके दो ही शौक हैं महुए की शराब और मछली। मछली तो वह गाँव केतालाब से बंसी डालकर पा लेता है लेकिन महुए के लिए काम करना पड़ता है। कभी उसका पुलिस से सीधा पाला नहीं पड़ा लेकिन उसे खाकी वर्दी से बहुत डर लगता है। यह डरगाजर-मूली लोगों को ही नहीं, पुलिस वालों को भी पुलिस वालों से लगता है। वह अपने बेटे के विवाह के मंडप से एक वर्दी में आये होमगार्ड को देखकर पेशाब करने के बहाने भागखड़ा हुआ था, जो दरअसल दुलहिन का मामा था। प्रधानी और विधायकी के चुनाव में मतदान के दिन वह छिपकर बैठ जाता है क्योंकि उस दिन पोलिंग बूथ पर पुलिस वाले तैनात होतेहैं। उससे वोट डलवाने के लिए उम्मीदवारों को बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है, पुलिस वालों को जऱा देर के लिए इधर-उधर हटाना पड़ता है। ये दोहे निराशा के कर्तव्य के पालन मेंउसी बांकेलाल से कहे गये हैं।