सआदत हसन मंटो और लघु कथाओं का साम्राज्य

दिग्गज साहित्यकार सआदत हसन मंटो की 11 मई को 108वीं जयंती मनायी जाएगी। इस अवसर पर पंजाब सरकार इस प्रतिभाशाली लेखक को सलाम करते हुए कई कार्यक्रमों का आयोजन कर रही है। मंटो का जन्म 11 मई, 1912 को पंजाब के लुधियाना शहर में हुआ था। वह अपना लेखन उर्दू भाषा में करते थे। ‘बू’, ‘खोल दो’, ‘ठंडा गोश्त’ उनकी चॢचत लघुकथाओं में से हैं। 18 जनवरी, 1955 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

हर साल सआदत हसन मंटो के जन्मदिन के आसपास मेरे दिमाग में यह बात आती है कि आज अगर वह जीवित होते, तो वर्तमान उथल-पुथल वाले हालात को देखते हुए कैसा अनुभव करते और क्या लिख रहे होते? बेशक, उन्हें तत्कालीन भयावह मानवीय हालात ने कई छोटी और लम्बी कहानियाँ लिखने के लिए मजबूर किया होगा।

मंटो ने लम्बे समय तक एक बेहतर दुनिया की ओर ले जाने वाली रचनाएँ लिखीं। आज भी बहुत से लोग लघु कथाएँ लिख रहे हैं। जहाँ कुछ-कुछ या सब कुछ लघु कथा से जुड़ रहा है। पाठक पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिये बिना सच्ची और अच्छी कहानियों को बयाँ किया जा रहा है।

मुझे इस बात का बिल्कुल एहसास नहीं था कि आज भी ऐसी बहुत-सी लघु कथाएँ लिखी जा रही हैं, जिनको फ्लैश फिक्शन कहा जाता है। वास्तव में इसकी जानकारी तब मिली, जब मार्च के दूसरे सप्ताह में दिल्ली के लेखिका-कवयित्री जयश्री मिश्रा त्रिपाठी द्वारा आयोजित लेखक मण्डली में शामिल होने का मौका मिला। गुडग़ाँव (गुरुग्राम) के लेखक और कवि सहाना अहमद को सुना और उनकी फ्लैश ​फिक्शन-लघु कथाओं के बारे में जानने का अवसर मिला।

अगर सआदत हसन मंटो को लघुकथा का बादशाह कहा जा सकता है, तो मैं सहाना अहमद को फ्लैश फिक्शन की बेगम कह सकती हूँ।

परम्पराओं पर चोट करतीं लघु कथाएँ

जैसा कि मैंने उल्लेख किया है कि हमारे बीच बहुत-सी लघु कथाएँ लिखी जा रही हैं। दिल्ली के लेखिका, कवयित्री मंदिरा घोष की लघु कथाएँ- ‘ब्रोकन वॉल’ (टूटी हुई दीवार) का विमोचन इसी गर्मी में किया जाना था। लेकिन देश भर में चल रहे लॉकडाउन के कारण इसमें देरी हो गयी। उनके इस नवीनतम कहानियों के संग्रह पर कुछ उद्धृत करने के लिए कहा जाए, तो कह सकते हैं कि ‘कहानियाँ सकारात्मकता का संदेश देती हैं। किसी से बैर नहीं करतीं।

एक पराजित महिला का कोई मुकाबला नहीं…दीवार टूट गयी थी और इस तरह पारम्परिक सीमाएँ भी टूट गयीं।’ लघुकथा के इस संग्रह में आधुनिक माँओं को ध्यान में रखकर लिखा गया है। कहानियों में महिलाओं को आँखों से देखा जाता है। कभी-कभी घर में कैद की स्थिति तो इनमें से कुछ दीवार को तोड़ सकती हैं।’

लॉकडाउन से कुछ हफ्ते पहले जयश्री मिश्रा त्रिपाठी की लघुकथाओं के संग्रह- ‘व्हाट नॉट वर्ड्स – शॉर्ट स्टोरीज सेट इन इंडिया एंड द डायस्पोरा’ का विमोचन किया गया। इसकी कहानियाँ देश में और इसके बाहर उनकी यात्रा के इर्द-गिर्द घूमती हैं। उसे उद्धृत करने के लिए मैंने इन कहानियों को घटनाओं की टेपेस्ट्री  पेश करने के लिए लिखा है कि जो मेरी अपनी मातृभूमि भारत सहित विभिन्न संस्कृतियों की यादों के साथ बुनी है… यहाँ तक कि कैथरिस की भावना है; फिर भी उत्तर मायावी है और भविष्य में बदलना चाह रहे हैं। जवाब की तलाश में समय बीतता जाता रहेगा। हम पल भर के लिए रुक जाते हैं।

अब हालिया खबर आ रही है कि लंदन की लेखिका-कवयित्री दिव्या माथुर को अपने लेखन और कार्यों के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से नवाज़ा जा रहा है। मैं लंदन में उनसे पिछली गॢमयों में मिली थी; साथ में मित्र अचला शर्मा और परवेज़ आलम थे।

वास्तव में यह हमारे लिए खुशी की बात थी कि दिव्या माथुर से मुलाकात हुई, जो बेहद विनम्र और बेदाग छवि की हैं; जिन्होंने साहित्य के लिए काफी योगदान दिया है। बेशक उनके लेखन और पुस्तकों के विशाल संग्रह से इतर यह भी तथ्य है कि उन्होंने लंदन में एक साहित्यिक मंच स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी, जहाँ पर कवि और लेखक जुटते हैं।

मैं उनकी रचनाओं और साहित्यिक दुनिया में उनके योगदान को लेकर विस्तार से लिखना चाहती हूँ। लेकिन समय के अभाव में ऐसा सम्भव नहीं हो पा रहा है। इसलिए उनको उद्धृत करना सबसे अच्छा है। मुझे वेबसाइट से उनकी ये पंक्तियाँ मिलीं- ‘मैं एक कवयित्री, कहानीकार और एक उपन्यासकार हूँ; मैंने 17 पुस्तकों का प्रकाशन या सम्पादन किया है। रॉयल सोसायटी ऑफ आट्र्स की एक नामांकित फेलो; मेरा मकसद भारतीय समुदाय की सांस्कृतिक आकांक्षाओं और विचारों के स्तर पर भारत-ब्रिटिश संवाद को वातायन : पोएट्री ऑफ साउथ बैंक के ज़रिये बढ़ावा देना और दूसरों तक पहुँचाना है; जिसकी स्थापना मैंने 2003 में की थी।’

लघु कथा

हम बम्बई छोड़ रहे हैं

हम बम्बई छोड़ रहे हैं। अब हम यहाँ किराया नहीं दे सकते। मकान मालकिन इस महीने फिर 10 प्रतिशत का इजाफा कर रही है। वह ब्लॉन्डी पहनती है और बार-बार डाॄलग जैसे तमाम शब्दों का इस्तेमाल करती है। वह बेइंतहा झूठ बोलती है। यहाँ तक कि हमसे वादा किया था कि हम दरवाज़े पर नेमप्लेट नहीं लगाएँगे।

अहमद और मैं इस पर राज़ी भी थे; क्योंकि यहाँ हमें कोई भी नहीं जानता था कि इस फ्लैट में हम रहते हैं। यहाँ तक कि टॉवर्स में भी कोई नहीं जानता था।

दक्षिण बम्बई में रहना कभी आसान नहीं होता। मुझे पता है कि यह शहर ही सब है। लेकिन मानसून में यहाँ सब कुछ जलमग्न हो जाता है और इधर काम वाली बाई को रखना भी महँगा पड़ता है। मेरे चार बच्चे हैं और वे बीमार पड़ते रहते हैं। …और वह (नौकरानी) हमसे पैसे उधार लेती रहती है। मैंने उससे पूछा कि क्या उसका पति एक रसोइया है? क्योंकि ज़्यादातर नेपाली पुरुष यही काम करते हैं।

‘नहीं, वह पढ़ा-लिखा है!’ -उसने (नौकरानी ने) मुझे झिड़कते हुए अंदाज़ में कहा।

‘उसके पास एक बढिय़ा-सी फार्मेसी की नौकरी है। लेकिन कोई भी रात में दो बजे एक फार्मेसी वाले को पैसे नहीं देता है। है ना!’

वह बोली- ‘एक नौकरानी के काम के अपने भत्ते होते हैं।’

मैं कभी-कभी उसकी ओर देखती हूँ और सोचती हूँ कि वह अपना नाम तक लिखना नहीं जानती है; लेकिन वह पैसे कमाती है, और मैं ऐसा नहीं कर पाती। अहमद मुझसे कहता है कि खुद पर इतना ज़्यादा सख्त होना अच्छा नहीं है।

मैंने उस नौकरानी को इसलिए काम पर रखा, क्योंकि उसने ज़ोर देकर कहा था कि ज़िन्दगी में उसने कभी धूम्रपान नहीं किया है। हालाँकि उसने उस दिन ब्रा तक नहीं पहनी हुई थी। वह नेपाल से है; लेकिन चीनी महिलाओं की तरह दिखती नहीं है। मैंने उससे कभी नहीं पूछा कि उसकी जाति क्या है? और मैंने उसे अपने ही गिलास से कभी पानी पीने से भी मना नहीं किया। लेकिन कल उसने मुझसे पूछा कि क्या यह सच है कि आप मुस्लिम हैं?

‘क्यों इससे कोई दिक्कत है क्या?’

‘नहीं, यह सिर्फ इतना है कि आप बािकयों जैसे नहीं दिखेंगी।’

‘क्यों? आप भी तो एक नेपाली की तरह नहीं दिखती हो।’

इससे वह बेहद खुश लगी। मुझे शक है कि वह काले जादू में है। लेकिन यह मेरे किसी काम का नहीं है। हम बम्बई छोड़ रहे हैं!