संसदीय समितियों में प्रज्ञा और फारूक के नामों पर विवाद

संसदीय समितियों का चयन भले सरकार का विशेषधिकार है, इस बार रक्षा मंत्रालय की समिति में मालेगाँव ब्लास्ट की आरोपी साध्वी प्रज्ञा और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत नज़रबन्द जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता फारूक अब्दुल्ला को सदस्य बनाने पर खासा विवाद पैदा हो गया है।

भाजपा की सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला। इन दो नामों में क्या समानता है? वैसे तो कोर्ई नहीं। एक हिन्दूवादी नेता हैं, तो फारूक जम्मू-कश्मीर की नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रमुख। हाल ही में इन दोनों को संसद की रक्षा समिति में सदस्य बनाया गया, तो इस पर खासा विवाद हो गया। कारण था, साध्वी प्रज्ञा का मालेगाँव ब्लास्ट में आरोपी होना और फारूक का अनुच्छेद-370 खत्म करने के बाद से जम्मू-कश्मीर की जेल में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) के तहत नज़रबंद होना।

बहुत दिलचस्प बात है कि जब साध्वी प्रज्ञा की तरफ से लोकसभा चुनाव और उसके बाद विवादित बयान आये थे, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वे साध्वी प्रज्ञा को इसके लिए कभी माफ नहीं करेंगे। उसके बाद कभी आज तक पीएम मोदी का ऐसा कोई बयान नहीं आया कि उन्होंने प्रज्ञा को माफ कर दिया है।

जैसे ही प्रज्ञा का नाम रक्षा मामलों की समिति के सदस्य के रूप में घोषित हुआ कांग्रेस ने इस पर करारा तंज कसा। कांग्रेस ने कहा – ‘आिखर मोदी ने प्रज्ञा ठाकुर को दिल से माफ कर ही दिया। आतंकवादी हमले की आरोपी को रक्षा मंत्रालय की समिति में जगह देना उन वीर जवानों का अपमान है, जो आतंकवादियों से देश को महफूज़ रखते हैं।’ इस समिति के अध्यक्ष रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह हैं। इक्कीस सदस्यों वाली इस अहम सूची में सांसद साध्वी प्रज्ञा को शामिल करने पर विपक्षी दलों ने कई सवाल उठाये। प्रज्ञा मालेगाँव बम धमाकों की आरोपी हैं।

यह भी सवाल उठता है कि ब्लास्ट मामले की आरोपी को रक्षा मंत्रालय जैसी समीति में लेकर क्या भाजपा ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि विपक्ष चाहे साध्वी प्रज्ञा को लेकर कुछ भी बोले, पार्टी के लिए वह अहम नेता हैं। एक तरह से भाजपा ने साध्वी के विवादों को आत्मसात कर लिया है। विवाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के सुप्रीमो फारूक अब्दुल्ला को लेकर भी है, जिन्हें इसी समिति में जगह दी गयी है। फारूक 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने और अनुच्छेद-370 खत्म होने के बाद से कश्मीर में नज़रबन्द हैं; वह भी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत। इसे लेकर विवाद इसलिए भी है कि यदि सरकार फारूक अब्दुल्ला को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून जैसे कानून के तहत नज़रबंद रखती है, तो कैसे उन्हें रक्षा जैसे अहम मंत्रालय की संसदीय समिति में जगह दे सकती है?

वैसे फारूक को लेकर मामला साध्वी प्रज्ञा के मामले से अलग है। फारूक की नज़रबंदी पर विपक्ष का कहना है कि यदि सरकार उन्हें रक्षा मंत्रालय जैसी संसदीय समिति के लायक मानती है, तो राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत उनकी नज़रबंदी का क्या औचित्य रह जाता है? संसद में भी विपक्ष फारूक की नज़रबंदी पर सवाल उठा चुका है। सीपीएम सदस्य ने शीतकालीन सत्र के पहले दिन प्रश्नकाल शुरू होते ही सवाल पूछा- ‘इस सदन के सदस्य फारूक अब्दुल्ला कहाँ हैं?’

बहुत से लोगों का मानना है कि फारूक अब्दुल्ला जैसे नेता को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में नज़रबन्द करना मोदी सरकार की एक बड़ी भूल है। इसका कारण यह है कि वे हमेशा भारत के साथ खड़े रहे हैं। आतंकवाद को लेकर वे पाकिस्तान को भी खरी-खोटी सुनाने में पीछे नहीं रहते हैं। उनके विपरीत साध्वी प्रज्ञा के िखलाफ बम विस्फोट का आरोप है, जिसे आतंकवादी घटना माना जाता है।

भाजपा सदस्यों का कहना है कि साध्वी प्रज्ञा के िखलाफ सिर्फ आरोप हैं और किसी अदालत ने उन्हें दोषी नहीं ठहराया है। भाजपा के मुताबिक, एक सांसद के नाते साध्वी प्रज्ञा का किसी भी संसदीय समिति में चुना जाना उनका अधिकार है।

जहाँ तक प्रज्ञा ठाकुर की बात है, तो वे मालेगाँव बम धमाकों की मुख्य आरोपी हैं। बॉम्बे हाई कोर्ट ने मौज़ूदा भाजपा सांसद साध्वी प्रज्ञा को अप्रैल, 2017 में खराब स्वास्थ्य के आधार पर जमानत दे दी थी। इससे पहले एनआईए ने प्रज्ञा पर महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गेनाइज्ड क्राइम एक्ट के तहत आरोप दर्ज किए थे। जमानत पर रिहा होने के बाद भोपाल से प्रज्ञा ठाकुर लोकसभा चुनाव में भोपाल से भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरी थीं और जीत हासिल की थी।

यही नहीं जमानत पर रिहा होने के बाद भी प्रज्ञा लगातार विवादों में घिरी रहीं। लोकसभा में उनके शपथ लेने के समय विवाद खड़ा हो गया था। उन्होंने अपना नाम साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर पूर्णचेतनानंद अवधेशानंद गिरी बोला था। कांग्रेस समेत लोकसभा सदस्यों ने उनके नाम पर आपत्ति जताई थी। बाद में स्पीकर के हस्तक्षेप के बाद यह मामला शान्त हुआ था।

इससे पहले लोक सभा चुनाव प्रचार के दौरान प्रज्ञा ने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त बता दिया था। जिस पर खासा बबाल मच गया था और उनकी निन्दा हुई थी। साध्वी प्रज्ञा ने चुनाव प्रचार के ही दौरान मुम्बई हमले में शहीद पूर्व एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे के बारे में कहा था कि करकरे को संन्यासियों का शाप लगा था। प्रज्ञा ने कहा – ‘मैंने कहा तेरा (हेमंत करकरे का) सर्वनाश होगा। ठीक सवा महीने में सूतक लगता है। जिस दिन मैं गई थी, उस दिन उसे सूतक लग गया था और ठीक सवा महीने में  आतंकवादियों ने उसको मारा और उसका अंत हो गया।’

करकरे मुंबई में 26 नवंबर, 2008 में हुए हमले में आतंकवादियों से बहादुरी से लड़ते हुए शहीद हो गये थे। हेमंत करकरे ने मालेगाँव बम धमाकों के मामले में सबूत इकट्ठे किये थे और इसके बाद साध्वी प्रज्ञा के िखलाफ मुकदमा चलाया गया था। साध्वी प्रज्ञा मालेगाँव बम धमाकों के मामले में लंबे समय तक जेल में रह चुकी हैं। हालाँकि इस बयान पर बवाल होने के बाद साध्वी प्रज्ञा ने अपना बयान वापस ले लिया था।

यही नहीं साध्वी प्रज्ञा ने लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान बाबरी मस्जिद विध्वंस में अपनी भूमिका पर गर्व करते हुए बयान दिया था- ‘मैं ढाँचे को तोडऩे के लिए इसकी सबसे ज़्यादा ऊँचाई पर चढ़ी थी। मुझे इस बात पर गर्व है कि भगवान ने मुझे यह मौका दिया और इस काम को करने के लिए ताकत दी, तभी मैं यह काम कर पायी। हमने देश पर लगे कलंक को खत्म कर दिया। अब हम वहीं राम मंदिर बनाएँगे।’

दिलचस्प यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी प्रज्ञा की निन्दा करते हुए कहा था कि वे साध्वी प्रज्ञा को इसके लिए कभी मन से माफ नहीं करेंगे। विवादों में फँसता देख भाजपा ने नोटिस जारी कर प्रज्ञा ठाकुर से बयानों के लिए माफी माँगने के लिए कहा था।

बाद में जब भाजपा के कुछ बड़े नेताओं का अचानक निधन हो गया, तो फिर साध्वी प्रज्ञा ने अपने बयान से हंगामा मचा दिया। पूर्व वित्त मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता अरुण जेटली के निधन पर प्रज्ञा ठाकुर ने दावा कर दिया कि भाजपा नेताओं पर विपक्षी दल के सदस्य मारक शक्तियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्होंने दावा किया था कि एक संन्यासी ने उनसे ऐसा कहा है कि भाजपा नेताओं की असमय मृत्यु का कारण विपक्षी दलों का मारक शक्ति का प्रयोग है।

प्रज्ञा से जुड़े विवाद

करीब 12 साल पुरानी बात है। फरवरी, 2007 में दिल्ली से अटारी (पाकिस्तान) जा रही समझौता एक्सप्रेस में हरियाणा के पानीपत के दिवाना रेलवे स्टेशन के पास विस्फोट हुआ था। पुलिस को घटनास्थल से दो सूटकेस बम मिले। जुलाई, 2010 में समझौता ब्लास्ट की जाँच एनआईए को सौंपने के बाद आठ लोगों के िखलाफ चार्जशीट दायर की गयी, जिनमें केवल चार पर मुकदमा चला। यह चार कमल चौहान, राजिन्दर चौधरी, लोकेश शर्मा और असीमानंद हैं। मार्च में एनआईए की विशेष अदालत ने इन सभी को बरी कर दिया था। अभियुक्तों में से एक सुनील जोशी की दिसंबर, 2007 में हत्या कर दी गयी, जबकि तीन रामचंद्र कलसांगरा, संदीप डांगे और अमित चौहान फरार चल रहे हैं।

असीमानंद को एनआईए ने नवंबर, 2010 में गिरफ्तार किया और उन्होंने एक महीने बाद मजिस्ट्रेट के सामने इकबालिया बयान दिया, इसमें उसने मालेगाँव, मक्का मस्जिद, अजमेर शरीफ और समझौता एक्सप्रेस, सभी में शामिल होने की बात कबूल ली। दिलचस्प यह है कि असीमानंद ने धमाके करने की योजना में मुख्य रूप से आरएसएस के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार, सुनील जोशी, साध्वी प्रज्ञा सिंह के शामिल होने का दावा किया था। इसके एक महीने बाद असीमानंद के वकील ने कोर्ट में दावा किया कि एनआईए ने यह बयान दबाव डालकर दिलवाया है। कुछ समय बाद असीमानंद ने बयान वापस ले लिया। इसके अलावा अजमेर स्थित ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में अक्टूबर, 2007 में बम विस्फोट हुआ। इस ब्लास्ट में साध्वी प्रज्ञा का नाम सामने आया। मामले की जाँच राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (एनआईए) को सौंपी गयी, जिसने अप्रैल, 2017 में प्रज्ञा और अन्य को क्लीन चिट दे दी। साल 2007 में ही संघ प्रचारक सुनीज जोशी की दिसंबर में मध्य प्रदेश के देवास •िाले में उनके घर के पास हत्या कर दी गयी। इस मामले में भी प्रज्ञा का नाम सामने आया।  करीब नौ साल तक विभिन्न एजेंसियों की जाँच हुई; लेकिन 2017 में अदालत ने प्रज्ञा समेत सभी अभियुक्तों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि उनके िखलाफ पर्याप्त सबूत नहीं मिले। जब यह फैसला आया जब एक अभियुक्त लोकेश शर्मा के पास से हत्या में इस्तेमाल किये दोनों हथियार बरामद हो चुके थे।

एक साल बाद सितंबर, 2008 में महाराष्ट्र के मालेगाँव में बम धमाके हुए। इन धमाकों में 6 लोगों की जान चली गयी और 100 से ज़्यादा घायल हुए। ये धमाके एक मोटरसाइकिल के ज़रिये किये गये थे जिसे साध्वी प्रज्ञा ने अपने एक करीबी रामचंद्र उर्फ रामजी कलसांगरा को दिलवाया था। कलसांगरा पर बाइक में बम लगाने का आरोप है। जाँच में मोटरसाइकिल में लगे रजिस्ट्रेशन नम्बर प्लेट में लिखा नम्बर एमएच-15पी-4572 भी नकली था। अभिनव भारत के सह-संस्थापक लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित ने साध्वी प्रज्ञा को ही मालेगाँव धमाकों का •िाम्मेदार बताया था। इस मामले की जाँच के बाद साध्वी प्रज्ञा को गिरफ्तार कर लिया गया और वह लगभग 9 साल तक जेल में रहीं। साल 2017 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने साध्वी प्रज्ञा को सशर्त जमानत दे दी।

कांग्रेस ने किया विरोध

साध्वी प्रज्ञा को रक्षा मंत्रालय की समिति में जगह मिलने पर कांग्रेस ने सरकार की जमकर निन्दा की। कांग्रेस नेता जयवीर शेरगिल ने ट्वीट किया-  ‘भाजपा सरकार ने राष्ट्रवाद को नया मॉडल दिया है। बम ब्लास्ट मामले में ट्रायल पर चल रहीं नेता को डिफेन्स मामलों की कमेटी में शामिल किया गया। चिंता की कोर्ई बात नहीं, भारत माता की जय। कुछ महीने पहले पीएम ने साध्वी प्रज्ञा को कभी माफ न करने की बात कही थी; लेकिन अब संदेश साफ है कि नाथूराम गोडसे के भक्तों के अच्छे दिन आ गये हैं।’  पार्टी के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने ट्वीट कर कहा – ‘यह देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आतंक फैलाने का आरोप झेल रही सांसद को रक्षा सम्बन्धी समिति का सदस्य बना दिया। मोदी जी इन्हें मन से माफ नहीं कर पाए लेकिन देश की सुरक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर •िाम्मेदारी दे दी। इसीलिए तो कहा है- मोदी है तो मुमकिन है।’

क्या होती हैं संसदीय समितियाँ?

संसदीय समितियाँ दो प्रकार की होती हैं- स्‍थायी समितियाँ और तदर्थ समितियाँ। स्‍थायी समितियाँ स्‍थायी और नियमित समितियाँ हैं, जिनका गठन समय-समय पर संसद के अधिनियम के उपबन्धों अथवा लोक सभा के प्रक्रिया और कार्य-संचालन नियम के आधार पर किया जाता है। वित्तीय समितियाँ, विभागों से सम्बद्ध स्‍थायी समितियाँ और कुछ अन्‍य समितियाँ स्‍थायी समितियों की श्रेणी के तहत आती हैं। तदर्थ समितियाँ किसी विशिष्‍ट प्रयोजन के लिए नियुक्‍त की जाती हैं और जब वे अपना काम समाप्‍त कर लेती हैं और अपना प्रतिवेदन प्रस्‍तुत कर देती हैं, तब उनका अस्‍तित्‍व खत्म हो जाता है। प्रमुख तदर्थ समितियाँ विधेयकों सम्बन्धी प्रवर और संयुक्‍त समितियाँ हैं। रेल अभिसमय समिति, संसद भवन परिसर में खाद्य प्रबन्धन सम्बन्धी संयुक्‍त समिति इत्‍यादि‍ भी तदर्थ समितियों की श्रेणी में आती हैं। मोटे तौर पर संसदीय समितियों के नि‍म्‍नलि‍खि‍त श्रेणियों में रखा जाता है – वित्‍तीय समितियाँ, विभागों से सम्बद्ध स्‍थायी समितियाँ, अन्‍य संसदीय स्‍थायी समितियाँ और तदर्थ समितियाँ। रक्षा समिति विभागीय समिति मानी जाती है और इसे विभागों से संबद्ध स्‍थायी समिति कहा जाता है। संसद का बहुत-सा काम इन समितियों द्वारा निपटाया जाता है, जिन्‍हें संसदीय समितियाँ कहते हैं। संसदीय समिति अपना प्रतिवेदन सदन या अध्‍यक्ष को प्रस्‍तुत करती है। समिति का सचिवालय लोक सभा सचिवालय से उपलब्‍घ कराया जाता है।