संदेह के घेरे में कोरोना-टीका

प्रधानमंत्री नरेंद मोदी ने 4 दिसंबर को सर्वदलीय बैठक में संकेत दिया कि देश में कोरोना-टीका (वैक्सीन) कुछ सप्ताह में तैयार हो सकता है और वैज्ञानिकों की हरी झण्डी मिलते ही देश में कोविड-19 टीकाकरण अभियान शुरू हो जाएगा। लेकिन 5 दिसंबर को ही टीवी चैनलों व सोशल मीडिया में हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री व गृहमंत्री अनिल विज की कोरोना-टीका लगवाने के बाद संक्रमित होने वाली खबर तेज़ी से देश-विदेश में चर्चा का विषय बन गयी। इस खबर से पहले चेन्नई में कोविशील्ड वैक्सीन की खुराक लेने वाले एक प्रतिभागी ने न केवल वैक्सीन के दुष्प्रभावी होने के आरोप लगाये, बल्कि पाँच करोड़ रुपये का हर्ज़ाना भी माँगा है। इसके साथ ही प्रतिभागी ने टीके के परीक्षण, उत्पादन और वितरण पर तत्काल रोक लगाने की भी माँग की है।

याद रखना होगा कि इस कोविशील्ड वैक्सीन का निर्माण पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में हो रहा है और इसे ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनका ने मिलकर विकसित किया है। प्रधानमंत्री ने बीते दिनों कोविड-19 वैक्सीन की तैयारियों के बाबत जिन तीन कम्पनियों का दौरा किया था, उनमें पुणे की सीआईआई भी शमिल है। अब ऐसी खबरों के बाद कोविड-19 टीके से जुड़ी चर्चा में अहम बिन्दु टीकों के असर और सुरक्षा पर केंद्रित हो गया है। मंत्री के परीक्षण टीका लगवाने के बावजूद संक्रमित होने पर सम्भावित टीकों के असरदार होने पर सवालिया निशान उठने लगे हैं। शोध पर फंडिग करने वाले व निर्माता कम्पनियों ने कई वैज्ञानिकों को इस सन्दर्भ में कई तरह के स्पष्टीकरण के काम पर लगा दिया है। दरअसल मेडिकल की दुनिया के अधिकतर लोगों को भी कोविड-19 वैक्सीन बनाने की पूर्ण प्रक्रिया व नतीजों के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं है। टीका तैयार करने के आखरी चरण में पहुँच चुकी कई नामी कम्पनियाँ अपनी दवा 90 से 95 फीसदी तक प्रभावशाली होने का दावा कर रही हैं। वैसे अभी ऐसी कोई स्वतंत्र शोध सामने नहीं आयी है, जिसमें यह कहा गया हो कि टीका 50 फीसदी से अधिक कारगार होगा। किसी भी टीके का प्रयोग इंसानों पर होने से पहले जानवरों पर होता है। उनमें एंटीबॉडी विकसित की जाती है कि वह कितना सफल हुआ? इस शोध पर वैज्ञानिक काम करते हैं। उसके बाद जानवरों व इंसानों पर परीक्षण किया जाता है। परीक्षण के नतीजे सम्बन्धित शोध संस्थानों व सरकारी विभागों के साथ साझा किये जाते हैं। जब इंसानों पर परीक्षण किये जाते हैं, तो बहुत-सी सावधानियाँ बरती जाती हैं। कई निगरानी समूह बनाये जाते हैं। सबसे पहले कोविड-19 टीका बनाने की प्रतिस्पर्धा और राष्ट्रवाद की भावना वाले माहौल में उसके निर्माण में क्या हुआ तथा क्या हो रहा है? इस बारे में विस्तृत ब्यौरा देने, पारदर्शिता पर सवाल उठ रहे हैं।

भारत की ही बात करें, तो तमिलनाडु के 40 साल के एक प्रतिभागी ने आरोप लगाया कि कोविशील्ड की टीका लगाने के बाद से उसे वर्चुअल न्यूरोलॉजिकल ब्रेकडाउन की समस्या हुई है और उसके सोचने-समझने की क्षमता कमज़ोर हो गयी है। प्रतिभागी ने एक नोटिस भेजकर कोविशील्ड टीके के परीक्षण, उत्पादन व वितरण पर तत्काल रोक लगाने की भी माँग की है। बेशक सीआईआई, जिसने ऑक्सफोर्ड के टीके को बनाने के लिए एस्ट्राजेनेका के साथ हिस्सेदारी की है; ने इस आरोप को दुर्भावनापूर्ण और गलत कहकर खारिज कर दिया, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चेन्नई वाला मामला अपनी तरह का पहला मामला नहीं है। प्रतिभागी के आरोप से पहले भी जॉनसन एंड जॉनसन के टीके के तीसरे चरण के परीक्षण में एक प्रतिभागी में अज्ञात बीमारी सामने आने के बाद जॉनसन एंड जॉनसन टीके का नैदानिक परीक्षण रोका गया था। लेकिन भारत में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया। रूस और चीन द्वारा तैयार हो रहे वैक्सीन के दुष्प्रभाव की भी खबरें सामने आयीं। यानी वैक्सीन की सुरक्षा वाला मसला एक गम्भीर मुद्दा है। विश्व भर में जिन कोविड-19 वैक्सीन की चर्चा हो रही है, उनमें फाइज़र, माडर्ना, ऑक्सफोर्ड की कोविशील्ड, रूस की स्पुतनिक-5, जॉनसन एंड जॉनसन, भारत बायोटैक की कोवैक्सिन, चीन की सिनोवैक आदि हैं। अमेरिकी कम्पनी फाइज़र ने अपनी वैक्सीन को 90 फीसदी कारगर होने का दावा किया है और इसके तीसरे चरण के परीक्षण में अमेरिका व यूरोपीय यूनियन के 44 हज़ार लोगों पर परीक्षण किया गया।

इसी तरह अमेरिका की ही दवा कम्पनी मॉडर्ना ने अपनेटीके को 94.5 फीसदी प्रभावशाली बताया है। इसके तीसरे चरण में अमेरिका, जापान व यूरोपीय यूनियन के 30 हज़ार लोगों को शामिल किया गया। भारत में बन रही ऑक्सफोर्ड की कोविशील्ड टीके का करीब 20 हज़ार लोगों पर तीसरे चरण का परीक्षण भारत तथा ब्रिटेन में चल रहा है। तमिलनाडु के एक प्रतिभागी के द्वारा आरोप लगाये जाने के बाद यह चर्चा में है। कोरोना-टीका बनाने वाली कम्पनियाँ प्रेस विज्ञप्ति के ज़रिये चुनिंदा आँकड़े जारी कर रही हैं। यहाँ पर विश्व स्वास्थ्य संगठन को कुछ ठोस व्यवस्था करनी चाहिए। कम्पनियों द्वारा जारी आँकड़ों और असर की वैज्ञानिक तौर पर दोबारा जाँच होनी चाहिए। कोरोना-टीका  के आने की अहम खबर के साथ-साथ अब यह बिन्दु भी केंद्र में आने लगे हैं कि क्या टीका लगवाने के बाद कोविड-19 संक्रमण अपनी जद में तो नहीं लेगा। लोगों की अक्सर यही धारणा बना दी जाती है कि कोरोना-टीका लगवाने से आप बीमार नहीं पड़ेंगे।

हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज को 20 नवंबर को कोवैक्सिन, जिसे भारत बायोटेक कम्पनी व आईसीएमआर मिलकर विकसित कर रहे हैं; परीक्षण के अन्तिम चरण में लगवायी थी। लेकिन 5 दिसंबर को उन्होंने खुद को कोरोना संक्रमित होने की जानकारी दी और इस खबर ने लोगों को हैरत में डाल दिया।

मंत्री का टीका लगवाने के बावजूद संक्रमित होने पर सम्भावित टीकों के असरदार होने पर सवालिया निशान लगा दिया है। अब लोगों की हैरानी को शान्त करने के लिए कोरोना-टीका  बनाने वाली कम्पनियों के आला अधिकारी व शीर्ष सरकारी अधिकारी बचाव की भूमिका में नज़र आ रहे हैं। भारत बायोटेक ने बयान जारी कर कहा कि कोवैक्सिन की दो खुराक 28 दिन में दी जानी है। दो खुराक के बाद ही यह प्रभावी होगी। वैसे कोवैक्सिन के 60 फीसदी प्रभावशाली होने की बात कही जा रही है।

एक साथ कारगर नहीं होते टीके

एम्स के पूर्व निदेशक एम.सी. मिश्रा का कहना है कि 15 दिन में कोई भी टीका कारगर नहीं होता। ऐसे में अभी टीके पर सवाल उठाना ठीक नहीं। अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक, टीका लगवाने के बाद प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने में कुछ हफ्तों का वक्त लग सकता है। टीके के बाद संक्रमण फैलेगा या नहीं? यह सवाल हरेक जानना चाहता है, और वैज्ञानिकों का मानना है कि इस सवाल के जवाब के लिए अध्ययन करना होगा। यानी इंतज़ार करना होगा। अमेरिकी दवा कम्पनी फाइज़र, जिसने फाइज़र नाम से टीका बनाया है; उसके चेयरमैन अल्बर्ट बोरला ने कहा कि यह स्पष्ट नहीं है कि जिन लोगों को कम्पनी की तरफ से परीक्षण के तौर पर टीका लगाया गया है, वे अभी भी दूसरों को वायरस फैला सकते हैं या नहीं। अभी इस बाबत और अधिक अध्ययन करने की ज़रूरत है। एक रिपोर्ट के अनुसार, टीके के विकास से जुड़े शोधकर्ताओं का कहना है कि कम्पनी के परीक्षणों ने यह आकलन नहीं किया है कि यह टीका वायरस को कैसे प्रभावित करता है। यानी हमें याद रखना होगा कि कोविड-19 वैक्सीन की रिसर्च का काम अभी पूरा नहीं हुआ है। विशेषज्ञों का कहना है कि कोई भी टीका 100 फीसदी सुरक्षा की गारंटी नहीं देता, मगर आम जनता इस भ्रम में रहती है कि टीका लगने का मतलब 100 फीसदी बीमारी से निजात।

दरअसल कोविड-19 के टीका कम्पनियों के शेयर बाज़ार में ऊँचाई छू रहे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय यूनियन के देशों ने अरबों खुराकों की एंडवास बुंकिग करवा ली है। इन खुराकों के लिए कोल्ड स्टोर, वितरण की रूपरेखा पर काम हो रहा है। ऐसे में कोरोना-टीके से जुड़ी कोई भी नकारात्मक, विवादास्पद खबर जब सुर्खी बनने लगती है, तो दवा कम्पनियाँ, सरकारें अति सक्रिय वाली भूमिका में सामने आ जाती हैं। यह सवाल आज भी बरकरार है कि पहले किसी बीमारी के टीके को बनने में कई साल लगते थे, आज एक साल के भीतर ही कोरोना-टीका कैसे विकसित हो गया। सवाल यह भी है कि एचआईवी, जिसका पता 1980 में लग गया था; का टीका 40 साल बाद भी हम क्यों नहीं विकसित कर पाये। चेचक, हैजा और प्लेग जैसी महामारियों के टीके ईज़ाद करने में बहुत वक्त लगा।

टीकों के विकास के इतिहास में जाने पर वैज्ञानिक व अन्य विशेषज्ञ दलील देते हैं कि कम्प्यूटर व नयी तकनीक ने जल्दी टीका विकसित करने में खास मदद की है। लिहाज़ा जो सवाल इस बाबत उठाये जा रहे हैं, वो इस महामारी को रोकने की दिशा में किये जा रहे प्रयासों में रुकावट ही डालने का काम करने वाले हैं। विज्ञान प्रगति की ओर अग्रसर है और नयी तकनीक इसमें मददगार साबित हो रही है। बहरहाल समझदार, अनुभवी लोग यही कह रहे हैं कि टीके से अधिक उम्मीद नहीं पालनी चाहिए; यह कोई जादू की छड़ी नहीं है। कोविड-19 का कौन-सा टीका लगने के बाद मानव शरीर में क्या सम्भावित दुष्प्रभाव हो सकते हैं? इस बाबत विस्तार से नहीं पता। क्या ऐसे टीकों पर यह जानकारी मोटे अक्षरों में लिखित रूप में ऐसी भाषा में होगी, जिसे इस्तेमालकर्ता आसानी से समझ ले। वास्तविकता यह है कि कोविड-19 संक्रमण को रोकने के लिए टीका विकसित करने वाली कम्पनियाँ अपने टीकों की सफलता का चाहे जितना भी दावा पेश करें, लेकिन वैक्सीन के प्रदर्शन और उसके प्रभावोत्पादकता का सही आकलन आने वाला समय में ही हो सकेगा।