संकट में सोने की लंका

श्रीलंका गम्भीर आर्थिक संकट में, राजपक्षे बंधुओं का विरोध कर रही जनता

आम भारतीय में रामायण की कथा के कारण श्रीलंका की छवि ‘सोने के लंका’ के रूप में अंकित रही है। ऐसा नहीं कि श्रीलंका ग़रीब या आर्थिक रूप से कमज़ोर राष्ट्र रहा है; लेकिन वर्तमान में वो गम्भीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है। इसी 10 अप्रैल को श्रीलंका के सेंट्रल बैंक के गवर्नर ने बेहद कड़े शब्दों में राजपक्षे सरकार को कह दिया कि वह उसके काम में हस्तक्षेप न करे। यह रिपोर्ट लिखे जाने के समय श्रीलंका के ख़ज़ाने में महज़ 5,000 करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा बची थी और ज़रूरत की चीज़ों के बहुत ज़्यादा महँगा होने के कारण जनता सरकार के ख़िलाफ़ सड़कों पर है। श्रीलंका में आर्थिक संकट के कई कारण हैं; लेकिन प्रमुख हैं- चीन के क़र्ज़ के जाल में फँसना, केमिकल फर्टिलाइजर्स को एक झटके में पूरी तरह बैन करना और अपनी चादर से ज़्यादा पाँव पसारना।

श्रीलंका का यह संकट कितना गहरा है? यह इस बात से साबित हो जाता है कि राजपक्षे सरकार को हफ़्ते भर के लिए आर्थिक आपातकाल घोषित करना पड़ा। मार्केट में खाने-पीने की चीज़ों की लूट होने के भय से सेना तैनात करनी पड़ी। विदेशी मुद्रा भण्डार ख़त्म होने के ख़तरे से श्रीलंका सरकार को वैश्विक स्तर पर हाथ पसारने पड़े हैं और उनकी मुद्रा (करेंसी) की क़ीमत रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुँच चुकी है। श्रीलंका की यह हालत अचानक नहीं हुई है; क्योंकि पिछले कुछ साल से इस संकट के संकेत मिलने लगे थे। लेकिन इसके बावजूद क़दम उठाने की जगह मनमर्ज़ी के ख़र्चे किये गये और क़र्ज़ उठाया गया।

दो साल पहले कोरोना महामारी ने जब दुनिया में तबाही मचानी शुरू की, तो श्रीलंका की अर्थ-व्यवस्था जबरदस्त धक्का लगा। इसका कारण यह है कि श्रीलंका की आर्थिकी कृषि के बाद सबसे ज़्यादा पर्यटन पर निर्भर है। श्रीलंका सरकार की वेबसाइट के मुताबिक, पर्यटन श्रीलंका की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 10 फ़ीसदी का योगदान देता है। कोरोना महामारी के इन दो वर्षों ने इस क्षेत्र को पूरी तरह तबाह कर दिया है। श्रीलंका में सबसे ज़्यादा पर्यटक ब्रिटेन, रूस से भारत से आते हैं।

महामारी की पाबंदियों से श्रीलंका में पर्यटकों का आना कमोवेश पूरी तरह बन्द हो गया था। अब जब कुछ समय से महामारी का असर कम हुआ है, श्रीलंका के आर्थिक संकट के कारण वहाँ की सरकार के ख़िलाफ़ जनता के प्रदर्शनों को देखते हुए बहुत से देशों ने अपने नागरिकों को श्रीलंका जाने से बचने की सलाह दे दी। इससे श्रीलंका आने वाले पर्यटकों की संख्या वहीं-की-वहीं है। कनाडा ने तो करेंसी एक्सचेंज की समस्या का हवाला देकर बाक़ायदा एक एडवाइजरी जारी कर दी, जिससे श्रीलंका की आय पर ख़राब असर पड़ा है।

 

चीन का क़र्ज़-जाल

चीन का विस्तारवाद आर्थिक दरवाज़े से होकर गुज़रता है। वह दूसरे देशों को पैसे (क़र्ज़) के ज़रिये अपने जाल में फँसाने के लिए बदनाम रहा है। दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के बाद श्रीलंका और नेपाल उसके शिकार हुए हैं। पाकिस्तान अमेरिकी ख़ैरात के सहारे अपना गुज़ारा चलाता रहा है; लेकिन श्रीलंका की हालत ख़राब हो गयी हैं। नेपाल भी आर्थिक संकट के मुहाने पर है। श्रीलंका आज क़र्ज़ के बोझ में दबा पड़ा है और अकेले चीन का ही उस पर पाँच बिलियन डॉलर से ज़्यादा का क़र्ज़ है। भारत और जापान जैसे देशों के अलावा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का भी उस पर क़र्ज़ है।

श्रीलंका से सरकारी आँकड़ों के मुताबिक मार्च, 2022 तक श्रीलंका पर क़रीब 46 बिलियन डॉलर का विदेशी क़र्ज़ था। आर्थिक संकटों से घिरे इस छोटे देश का भारी-भरकम विदेशी क़र्ज़ तो ज्यों-का त्यों ही रहता है; ऊपर से वह जो पैसे जुटाता है, वो क़र्ज़ के ब्याज चुकाने में ही ख़प जाते हैं। इससे उसके हालात और बिगड़े हैं। इसके अलावा हाल के समय में श्रीलंका सरकार ने अचानक केमिकल फर्टिलाइजर्स को एक झटके में पूरी तरह बैन कर 100 फ़ीसदी ऑर्गेनिक खेती की नीति लागू कर दी थी। इस अचानक बदलाव ने श्रीलंका के कृषि क्षेत्र को तबाह करके रख दिया। जानकारों के मुताबिक, सरकार के इस फ़ैसले से श्रीलंका का कृषि उत्पादन घटकर क़रीब आधा रह गया। इसी का नतीजा है कि श्रीलंका में चावल और चीनी की जबरदस्त क़िल्लत पैदा हो गयी है। अनाज की जमाख़ोरी के देश की समस्या को विकराल कर दिया है।

सन् 2021 में श्रीलंका सरकार ने जब सभी उर्वरक आयातों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया और श्रीलंका को रातों-रात 100 फ़ीसदी जैविक खेती वाला देश बनाने की घोषणा की तो रातों-रात जैविक खादों की ओर आगे बढ़ जाने के इस प्रयोग ने खाद्य उत्पादन को गम्भीर रूप से प्रभावित किया। यह इस फ़ैसले का ही असर था कि हाल में श्रीलंका के राष्ट्रपति को बढ़ती खाद्य क़ीमतों, मुद्रा का लगातार मूल्यह्रास और तेज़़ी से घटते विदेशी मुद्रा भण्डार पर नियंत्रण के लिए देश में आर्थिक आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी। इसके अलावा श्रीलंका में भारी बारिशों ने भी किसानों की फ़सलों को बर्बाद कर दिया था, जो अनाज की कमी का एक कारण बना है।

इन सब स्थितियों का असर श्रीलंका के विदेशी मुद्रा भण्डार पर पड़ा है। तीन साल पहले जिस श्रीलंका के पास 7.5 बिलियन डॉलर का विदेशी मुद्रा भण्डार था, वहाँ राजपक्षे सरकार के आने के बाद इसमें इतनी तेज़ गिरावट कि अब यह महज़ 5,000 करोड़ रुपये रह गया है। पिछले साल नवंबर तक यह गिरकर 1.58 बिलियन डॉलर के स्तर पर आ चुका था। श्रीलंका के पास विदेशी क़र्ज़ की क़िस्तें चुकाने लायक भी फॉरेक्स रिजर्व नहीं बचा है। आईएमएफ ने कहा है कि श्रीलंका की अर्थ-व्यवस्था दिवालिया होने के कगार पर है।

श्रीलंका हाल के वर्षों में आयात पर बहुत निर्भर हुआ है, जिसका उसे बहुत नुक़सान उठाना पड़ा है। श्रीलंका चीनी, दाल, अनाज, दवा जैसी ज़रूरी चीज़ों के लिए भी आयात पर निर्भर है। फर्टिलाइजर पर रोक ने इसे ज़्यादा गम्भीर बनाने में मदद की है। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद श्रीलंका की चुनौतियाँ दोगुनी हो गयी हैं। इसका कारण यह है कि पड़ोसी देश चीनी, दलहन और अनाज आदि के मामले में इन दो देशों पर काफ़ी निर्भर हैं। कृषि ज़रूरतों की क़ीमतें भी युद्ध के बाद आसमान छू रही हैं। आयात बिल भरने के लिए श्रीलंका के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा भण्डार बचा ही नहीं है।

 

जब श्रीलंका बेहतर था

सन् 2009 में श्रीलंका जब एलटीटीई के 26 साल के गृहयुद्ध से बाहर निकला था, तब भी उसकी जीडीपी वृद्धि दर 7-8 फ़ीसदी की बेहतर स्थिति में थी। यह क्रम सन् 2012 तक चला, जब उसकी जीडीपी वृद्धि दर 9 फ़ीसदी की उच्चतम स्तर पर थी। हालाँकि इसके बाद वैश्विक उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों में गिरावट, निर्यात की मंदी और आयात में वृद्धि के साथ सन् 2013 के बाद श्रीलंका की औसत जीडीपी वृद्धि दर आश्चर्यजनक तरीक़े से घटकर आधी रह गयी।

ऐसा नहीं कि श्रीलंका में विदेशी मुद्रा भण्डार की कमी आज पहली बार हुई है। सन् 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट का उस पर बहुत ख़राब असर पड़ा था और उसका विदेशी मुद्रा भण्डार लगभग ख़त्म हो गया था। इसका कारण यह भी था कि एलटीटीई के गृहयुद्ध के चलते श्रीलंका का बजट घाटा बहुत ऊँचे स्तर पर पहुँच गया था। इसका नतीजा यह हुआ कि श्रीलंका को सन् 2009 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से 2.6 बिलियन डॉलर का क़र्ज़ लेना पड़ा।

यह सिलसिला चलता रहा और सन् 2016 में श्रीलंका को फिर 1.5 बिलियन डॉलर का क़र्ज़ लेने के लिए आईएमएफ के पास जाना पड़ा; लेकिन उसकी कठोर शर्तों ने श्रीलंका की आर्थिक रूप से कमर तोड़ दी। इसके बाद श्रीलंका ने इससे उबरने की जब कोशिश की तो उसका कोई नतीजा निकलता उससे पहले ही राजधानी कोलंबो के गिरिजाघरों में अप्रैल, 2019 में बम विस्फोटों में 253 लोगों की मौत का देश के पर्यटन पर पड़ा। इसका सबसे बुरा असर उसके विदेशी मुद्रा भण्डार पर पड़ा और फिर इससे उबरना उसके लिए मुश्किल हो गया।

 

राजनीतिक वादों की चोट

सन् 2019 में जब राजपक्षे बंधुओं ने चुनावों में कम दरों पर किसानों के लिए रियायतों का पिटारा खोला उन्हें देश की आर्थिक स्थिति की भलीभाँति जानकारी थी; लेकिन इसके बावजूद सत्ता में आकर जब उन्होंने इसे लागू किया, तो देश पर आर्थिक बोझ पड़ा। इस स्थिति में श्रीलंका को तब और झटका लगा, जब कोरोना महामारी ने उसकी हालत पतली कर दी। पर्यटन के अलावा चाय, रबर, मसालों और कपड़ों के निर्यात को जबरदस्त नुक़सान पहुँचा, जो श्रीलंका की आर्थिकी का सबसे बड़ा सहारा थे। सैलानियों की जबरदस्त कमी और राजस्व की इस गिरावट और सरकार के ख़र्चों में बढ़ोतरी के चलते 2020-21 में श्रीलंका का राजकोषीय घाटा 10 फ़ीसदी से ज़्यादा हो गया और उसका कर-जीडीपी अनुपात सन् 2019 के 94 फ़ीसदी से बढ़कर सन् 2021 में 119 फ़ीसदी हो गया।

 

भारत और श्रीलंका के रिश्ते

वर्तमान में श्रीलंका में मुद्रास्फीति की दर 20 फ़ीसदी से अधिक हो चुकी है। इससे श्रीलंका में ग़रीबों और आम आदमी की हालत ख़राब है। लोग बड़े पैमाने पर सड़कों पर हैं। विशेषज्ञ आशंका जता रहे हैं कि आवश्यक वस्तुओं की कमी देश को और संकट में पहुँचाएगी। संकट की इस स्थिति में भारत ने अपने पड़ोसी की तरफ़ मदद का हाथ बढ़ाया है, जो हाल के तीन वर्षों में चीन के प्रभाव में रहा है।

भारत ने इस साल जनवरी से श्रीलंका को काफ़ी आर्थिक मदद जारी की है। यह मदद उदार शर्तों पर आधारित है। अभी तक भारत पड़ोसी देश को 1.4 बिलियन डॉलर से अधिक की मदद दे चुका है। इसमें 400 डॉलर का करेंसी स्वैप, 500 डॉलर का ऋण स्थगन और ईंधन आयात के लिए 500 डॉलर का लाइन ऑफ क्रेडिट शामिल है। इसके अलावा श्रीलंका की मदद के लिए भारत ने उसे एक बिलियन डॉलर की राशि शॉर्ट टर्म रियायती क़र्ज़ के रूप में दी है। भारत की मदद से श्रीलंका की जनता में अच्छा सन्देश गया है, जो राजपक्षे सरकार के चीन से मदद को लेकर अब नाराज़ है; क्योंकि उन्हें लगता है कि चीन ने उन्हें मदद के नाम पर जाल में फँसाया है। भारत की मदद से श्रीलंका में कैसा सकारात्मक सन्देश गया है, वह क्रिकेटर से राजनीतिक बने सनथ जयसूर्या के बयान से ज़ाहिर होता है, जिन्होंने अप्रैल के पहले हफ़्ते भारत की जमकर तारीफ़ करते हुए कहा कि गम्भीर आर्थिक संकट से गुज़र रहे उनके देश की मदद कर भारत ने ‘बड़े भाई’ की भूमिका अदा की है। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की भी सराहना की।

जयसूर्या का यह बयान काफ़ी अहम कहा जा सकता है; क्योंकि श्रीलंका में चीन और वर्तमान शासकों राजपक्षे बंधुओं के प्रति नाराज़गी चरम पर है। श्रीलंका में लोग महसूस कर रहे हैं कि उनके देश की यह हालत चीन के कारण हुई है। भारत ने अकेले एक दिन में श्रीलंका को 76,000 टन ईंधन भेजा, जबकि अंतरराष्ट्रीय कारणों से भारत में भी पेट्रोलियम रेट लगातार बढ़ रहे थे। श्रीलंका में ईंधन, रसोई गैस के लिए लम्बी क़तारें हैं, जबकि यही हाल पेट्रोल पम्पों पर है। ज़रूरी वस्तुओं का अकाल-सा पड़ गया है और हर रोज़ बिजली की घंटों कटौती से जनता गम्भीर परेशानी झेल रही है।

राजपक्षे बंधुओं के सत्ता में आने के बाद उनके देश का चीन के प्रति लगातार झुकाव बढ़ा और उसने कुछ परियोजनाओं में श्रीलंका को बड़े स्तर पर क़र्ज़ दिया। लेकिन श्रीलंका में महसूस किया जा रहा है कि देश के गम्भीर आर्थिक संकट में फँसने का असल कारण यही है। जयसूर्या का कहना है कि श्रीलंका में जीवन काफ़ी कठिन हो गया है और भारत और अन्य देशों की मदद से हम इस संकट से बाहर आने की उम्मीद कर रहे हैं।

हाल के दशकों की बात करें, तो भारत श्रीलंका का बड़ा सहयोगी रहा है। भंडारनायके और इंदिरा गाँधी के ज़माने से लेकर हाल के वर्षों तक भारत ने श्रीलंका की तरफ़ हमेशा सहयोगी रुख़ रखा है। लेकिन क़रीब एक दशक से और दो साल पहले जब राजपक्षे बंधु सत्ता में आये, तो उनका भारत की बजाय चीन की तरफ़ झुकाव बढ़ गया। भारत के साथ रहते हुए कभी भी श्रीलंका के सामने आज जैसा गम्भीर संकट नहीं आया। श्रीलंका के सामने विदेशी मुद्रा का भयंकर संकट आने से खाद्य और ईंधन आयात करने की उसकी क्षमता पर असर पड़ा है। बिजली कटौती भी लम्बी खिंच रही है। श्रीलंका के जानकार मानते हैं कि चीनी निवेश के आगे घुटने टेकना देश को बहुत भारी पड़ा है। आँकड़ों के मुताबिक, श्रीलंका पर मार्च, 2022 के आख़िर तक क़रीब सात बिलियन डॉलर का विदेशी क़र्ज़ है। बड़ा चीनी निवेश श्रीलंका को बेहतर करने की जगह इतिहास के सबसे गम्भीर आर्थिक संकट में खींच लाया है।

इस साल जनवरी में जब चीन के विदेश मंत्री वांग यी जब श्रीलंका आये थे, तब श्रीलंका के राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे ने उनसे क़र्ज़ चुकाने के लिए सॉफ्ट नीति का आग्रह किया था। मार्च में श्रीलंका में चीनी राजदूत क्यूई जेनहोंग ने कहा था कि चीन एक अरब डॉलर के क़र्ज़ और 1.5 अरब डॉलर की क्रेडिट लाइन के लिए श्रीलंका के आग्रह पर विचार कर रहा है। चीन पहले ही श्रीलंका को कोरोना महामारी के दौरान 2.8 अरब डॉलर की मदद दे चुका है।

हालाँकि वर्तमान माहौल में श्रीलंका की जनता में चीन के प्रति विश्वसनीयता में कमी आयी है। वहाँ महसूस किया जा रहा है कि चीन ने सहयोगी से ज़्यादा विस्तारवादी नीति वाले देश की भूमिका निभायी है और श्रीलंका को गहरे संकट में डाल दिया है।

 

भारत के लिए सबक़

श्रीलंका का संकट भारत के लिए भी सबक़ है। हाल के वर्षों में राजनीतिक दलों की तरफ़ से जनता को मु$फ्त बिजली, पानी, स्कूटी, लैपटॉप आदि देने का प्रचलन बहुत तेज़ी से बढ़ा है। यह तरीक़ा भले तात्कालिक राजनीतिक फ़ायदा दे देता हो; लेकिन अर्थ-व्यवस्था की सेहत के लिहाज़ से यह ख़तरनाक है। प्रदेशों का क़र्ज़ा ख़तरनाक स्तर पर पहुँच चुका है। हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बैठक में वरिष्ठ अधिकारियों ने भारत के श्रीलंका जैसे आर्थिक संकट में फँसे के ख़तरे से उन्हें आगाह किया था।

यदि हम देश के ऊपर चढ़े क़र्ज़ की बात करें, तो भारत के वित्त मंत्रालय की तरफ़ से 7 अप्रैल को दी गयी जानकारी के मुताबिक, देश का विदेशी स्रोतों से लिया गया क़र्ज़ दिसंबर, 2021 को ख़त्म हुई तिमाही में 11.5 अरब डॉलर बढ़कर 614.9 अरब डॉलर पर पहुँच गया था। जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) अनुपात के रूप में विदेशी क़र्ज़ पिछले साल दिसंबर के अन्त में 20 फ़ीसदी रहा, जो सितंबर, 2021 में 20.3 फ़ीसदी था। दिसंबर, 2021 को समाप्त तिमाही के लिए भारत के विदेशी क़र्ज़ पर रिपोर्ट के अनुसार, देश का बाह्य क़र्ज़ यानी विदेशी स्रोतों से लिया गया क़र्ज़ सितंबर, 2021 को समाप्त तिमाही के मुक़ाबले 11.5 अरब डॉलर बढ़कर 614.9 अरब डॉलर पर पहुँच गया।

इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत का विदेशी ऋण सतत और सूझबूझ के साथ प्रबन्धित है। मूल्यांकन लाभ का कारण यूरो, येन और विशेष आहरण अधिकार (एसडीआर) की तुलना में अमेरिकी डॉलर की विनिमय दर में वृद्धि है। यह लाभ क़रीब 1.7 अरब डॉलर रहा। रिपोर्ट बताती है कि मूल्यांकन प्रभाव को अगर छोड़ दिया जाए, तो विदेशी क़र्ज़ दिसंबर, 2021 को समाप्त तिमाही में इससे पिछली तिमाही के मुक़ाबले 11.5 अरब डॉलर के बजाय 13.2 अरब डॉलर बढ़ता।

विदेशी क़र्ज़ में वाणिज्यिक क़र्ज़ की हिस्सेदारी सबसे अधिक 36.8 फ़ीसदी रही। उसके बाद प्रवासी जमा (23.1 फ़ीसदी) और अल्पकालीन व्यापार क़र्ज़ का स्थान रहा। दिसंबर, 2021 के अन्त में एक साल से अधिक समय में परिपक्व होने वाला दीर्घकालीन क़र्ज़ 500.3 अरब डॉलर रहा। यह सितंबर, 2021 के मुक़ाबले 1.7 अरब डॉलर बढ़कर 500.3 अरब डॉलर रहा। एक साल तक की परिपक्वता अवधि वाले अल्पकालीन क़र्ज़ की बाह्य ऋण में हिस्सेदारी बढ़कर 18.6 फ़ीसदी हो गयी, जो सितंबर, 2021 के अन्त में 17.4 फ़ीसदी थी।

रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के विदेशी क़र्ज़ में अमेरिकी डॉलर में लिये गये क़र्ज़ का हिस्सा उपरोक्त तिमाही में सबसे ज़्यादा 52 फ़ीसदी रहा। इसके बाद भारतीय रुपये (32 फ़ीसदी), विशेष आहरण अधिकार (6.7 फ़ीसदी), येन (5.3 फ़ीसदी) और यूरो (3.1 फ़ीसदी) का स्थान रहा। सरकार का बक़ाया विदेशी क़र्ज़ दिसंबर, 2021 को ख़त्म हुई तिमाही के दौरान पिछली तिमाही के मुक़ाबले मामूली कम हुआ, जबकि ग़ैर-सरकारी क्षेत्र का ऋण बढ़ा है। साथ ही मूल राशि की अदायगी के साथ ब्याज भुगतान आलोच्य तिमाही में बढ़कर 4.9 फ़ीसदी हो गया, जो सितंबर, 2021 को समाप्त तिमाही में 4.7 फ़ीसदी था।

अब राज्यों के क़र्ज़ों की बात करें, तो पता चलता है कि विभिन्न राज्यों के बजट अनुमानों के मुताबिक, वित्त वर्ष 2020-21 में सभी राज्यों का क़र्ज़ का कुल बोझ 15 वर्षों के उच्च स्तर पर पहुँच चुका है। राज्यों का औसत क़र्ज़ उनके जीडीपी के 31.3 फ़ीसदी पर पहुँच गया है। सभी राज्यों का कुल राजस्व घाटा 17 वर्षों के उच्चतम स्तर 4.2 फ़ीसदी पर पहुँच गया है। वित्त वर्ष 2021-22 में क़र्ज़ और जीएसडीपी (ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट) का अनुपात सबसे ज़्यादा पंजाब का 53.3 फ़ीसदी रहा।

पंजाब का जितना जीडीपी है, उसका क़रीब 53.3 फ़ीसदी हिस्सा क़र्ज़ है। इसी तरह राजस्थान का अनुपात 39.8 फ़ीसदी, पश्चिम बंगाल का 38.8 फ़ीसदी, केरल का 38.3 फ़ीसदी और आंध्र प्रदेश का क़र्ज़-जीएसडीपी अनुपात 37.6 फ़ीसदी है। इन सभी राज्यों को राजस्व घाटा का अनुदान केंद्र सरकार से मिलता है। महाराष्ट्र और गुज़रात जैसे आर्थिक रूप से मज़बूत राज्यों पर भी क़र्ज़ का बोझ कम नहीं है। गुज़रात का क़र्ज़-जीएसडीपी अनुपात 23 फ़ीसदी, तो महाराष्ट्र का 20 फ़ीसदी है।