श्रीलंका में राजपक्षे की जीत के मायने

भारत के चीन के साथ सीमा पर तनाव के बीच पड़ोसी मुल्क श्रीलंका में चुनाव के बाद महिंदा राजपक्षे सत्ता में स्थापित हो गये हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बधाई के जवाब में भले उन्होंने भारत के साथ रिश्तों को मित्र और परिवार जैसा बताया। लेकिन एक सच यह भी है कि उन्हें चीन की तरफ झुकाव रखने वाला नेता माना जाता है। यह राजपक्षे ही थे, जिन्होंने अपने पिछले कार्यकाल में चीन के साथ कई बुनियादी संरचना निर्माण सम्बन्धी समझौते किये थे, जिनमें से एक कर्ज़ा चुकाने में असमर्थ रहने पर रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण हंबनटोटा बंदरगाह 99 साल के लिए चीन को दे देना भी शामिल था। इस समझौते ने एशिया ही नहीं, यूरोप में भी चिन्ता पैदा की थी।

चुनाव में राजपक्षे की पार्टी श्रीलंका पोदुजना पेरमुना (सहयोगियों के साथ श्रीलंका पीपुल्स फ्रंट) ने संवैधानिक परिवर्तनों की भी बात की थी। इसके लिए उसे दो-तिहाई बहुमत चाहिए था, जो उसे मिल गया है। महिंदा के भाई गोतबए राजपक्षे पहले से देश के राष्ट्रपति हैं। महिंदा राजपक्षे ने चुनाव में जाते हुए अपनी पार्टी श्रीलंका पोदुजना की तरफ से संविधान में बदलाव की जो बात कही है, उसमें राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के कार्यकाल की संख्या में बढ़ोतरी और पहले से चल रहे कानूनों में बदलाव शामिल हैं।

राजपक्षे कह चुके हैं कि संविधान में बदलाव करके देश को आर्थिक और सैन्य रूप से सुरक्षित और मज़बूत करना चाहते हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि सैन्य स्तर पर बदलावों में चीन का किस हद तक रोल रहता है? उनके पिछले कार्यकाल में चीन का असर साफ दिखा था। राजपक्षे सिंहली हैं और देखना होगा कि तमिल समुदाय को लेकर उनके फैसले कैसे रहते हैं? हाल के वर्षों में श्रीलंका में सिंहली-बौद्ध और मुस्लिम-तमिल समुदायों के बीच कुछ मसले उभरते देखे गये हैं। राजपक्षे के भाई ही थे, जिन्होंने सत्ता में रहते हुए चरमपंथी संगठन एलटीटीई का खात्मा किया था।

हाल के चुनाव प्रचार में यह देखने में आया है कि श्रीलंका में सिंहली राष्ट्रवाद अलग स्तर पर उभरा है। ज़ाहिर है इससे देश के अल्पसंख्यक समुदायों में चिन्ता बढ़ी है। श्रीलंका के मुस्लिम नेता और लोग पिछले साल ईस्टर पर कुछ इस्लामिक चरमपंथियों द्वारा किये गये बम धमाकों के बाद सिंहली समुदाय के गुस्से के निशाने पर रहे हैं। उन धमाकों में 260 से अधिक लोगों की जान चली गयी थी। यही नहीं, राष्ट्रपति गोतबए राजपक्षे, जो पहले प्रधानमंत्री भी रहे हैं; के ऊपर गृह-युद्ध के दौरान मानवाधिकार हनन के गम्भीर आरोप लगे थे। आरोप यह भी लगे कि विरोध के स्वर दबाने के लिए गोतबए ने उन्हें निशाना बनाया। वैसे, राजपक्षे इन तमाम आरोपों को सिरे से खारिज करते रहे हैं।

यदि याद करें, तो अपने पिछले कार्यकाल में राजपक्षे ने चीन समर्थक रुख ज़ाहिर किया था। कुछ जानकार तो यहाँ तक कहते हैं कि यह राजपक्षे ही हैं, जिन्होंने श्रीलंका को एक तरह से चीन के उपनि‍वेश के रूप में बदल दिया था। उसके बाद भी राजपक्षे के जो बयान आते रहे हैं, उन्हें देखकर नहीं लगता कि राजपक्षे के विचारों और नीतियों में कोई परिवर्तन दिखा हो। अब चूँकि वह प्रधानमंत्री बन गये हैं, तो चीन के प्रति उनका झुकाव इस क्षेत्र में भारत के लिए चिन्ताजनक माना जाएगा।

चीन भारत के साथ तो सीमा पर तनाव में उलझा ही है, उसने नेपाल जैसे देश को भी भारत के खिलाफ कर दिया है। नेपाल ने पिछले कुछ महीनों में खुले रूप से भारत विरोधी रुख दिखाया है। यही नहीं, हाल के महीनों में हमारे मित्र देश माने जाने वाले बांग्लादेश तक का रुख भी बदला है और वह चीन के करीब जाता दिख रहा है। बांग्लादेश पिछले कुछ समय में भारत के कुछ बयानों के कारण नाराज़ दिखा है। पाकिस्तान तो पहले ही चीन की गोद में बैठा है।

ऐसे में श्रीलंका में भी चीन समर्थक राजपक्षे के आने से भारत की दक्षिण एशिया क्षेत्र में चिन्ता निश्चित ही बढ़ेगी। भारत के सेनाध्यक्ष नरवणे अगस्त के पहले पखबाड़े सेना को हर स्थिति के लिए तैयार रहने को कह चुके हैं। चीन को लेकर बहुत-से विशेषज्ञ यह आशंका जाता रहे हैं कि वह सर्दियों में कुछ खुराफात कर सकता है। ऐसे में पड़ोस में चीन समर्थक सत्ताओं का जमाबड़ा भारत के लिए चिन्ता पैदा करने वाला तो माना ही जाएगा, भले अमेरिका और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी से निजी मित्रता के कारण दोस्ती निभाने का इज़हार कर चुके हों।

श्रीलंका में राजपक्षे की प्रधानमंत्री के तौर जीत को लेकर विदेशी मामलों के जानकारों में अलग-अलग राय रही है। अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार डॉ. रहीस सिंह का साफ तौर पर कहना है कि राजपक्षे की जीत से चीन की रणनीति सफल हुई है। इससे भारत को घेरने की उसकी स्ट्रिंग ऑफ पल्र्स नीति को मज़बूत मिली है और निश्चित ही वह राजपक्षे के सत्ता में आने के बाद अब मलक्‍का-जि‍बूती के बीच ‍यू मेरिटाइम रूट नीति को आगे बढ़ाने की कोशिश करेगा। यह भारत के खिलाफ चीन की एक तरह से दोहरी साज़िश जैसा है। सिंह मानते हैं कि दुनिया में अब मनोवैज्ञानिक बढ़त की नीति अपनायी जाने लगी है और भारत को बदलकर आक्रामक रुख अपनाना होगा।

वैसे श्रीलंका में महिंदा राजपक्षे की जीत के बाद उन्हें बधाई देने वाले नरेंद्र मोदी पहले  विदेशी नेताओं में से एक हैं और इसके जवाब में राजपक्षे ने एक ट्वीट के ज़रिये प्रधानमंत्री मोदी का शुक्रिया अदा किया। राजपक्षे ने लिखा- ‘श्रीलंका के लोगों के समर्थन के साथ, दोनों देशों के बीच लम्बे समय से चले आ रहे सहयोग को और आगे बढ़ाने के लिए आपके साथ मिलकर काम करने को उत्साहित हूँ। श्रीलंका और भारत अच्छे मित्र और सहयोगी हैं।’ राजपक्षे ने यह भी कहा कि दोनों पक्ष सभी क्षेत्रों में द्विपक्षीय सम्बन्धों को आगे बढ़ाने और विशेष सम्बन्धों को कोई नयी ऊँचाई पर ले जाने के लिए काम करेंगे। यह देखना दिलचस्प होगा कि राजपक्षे का यह बयान ज़मीनी स्तर पर कितना सही उतरता है? या महज़ औपचारिक ही बनकर रह जाता है?

इस परिप्रेक्ष्य में कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि शायद राजपक्षे भारत को नाराज़ करने से बचने की नीति अपनाएँ। अंतर्राष्‍ट्रीय मामलों के जाने-माने विशेषज्ञ कमर आगा ने श्रीलंका चुनाव नतीजों के बाद कहा कि श्रीलंका अपने स्तर पर चतुराई की नीति पर काम करता है। वह चीन ही नहीं भारत से भी अपने हित के लाभ लेता है। यह देखा गया है कि श्रीलंका ने जहाँ अपनी कुछ परियोजनाएँ चीन को दी हैं, वहीं भारत को भी दी हैं। आगा मानते हैं कि महिंदा राजपक्षे शायद भारत के साथ सम्बन्ध खराब नहीं करना चाहेंगे। ऐसा इसलिए भी, ताकि चीन का उस पर असर एक सीमित स्तर तक ही रहे।

आगा साफ तौर पर मानते हैं कि राजपक्षे की नीति चीन के साथ अच्छे सम्बन्ध रखते हुए भी भारत से रिश्‍ते बनाये रखने की है। श्रीलंका को पता है कि भारत से बेवजह की दुश्‍मनी उसके गले की फाँस भी बन सकती है।

आगा के मुताबिक, नई दिल्ली की राजपक्षे से सम्भवत: सबसे बड़ी यही अपेक्षा रहेगी कि उनका देश चीन को अपने यहाँ सैन्य गतिविधियों की किसी भी सूरत में इजाज़त न दे। इसके अलावा एक बेहतर पक्ष यह भी है कि श्रीलंका के सिंहली और तमिल परस्पर विरोधी समुदाय होने के बावजूद एक मामले में एकजुट हैं कि भारत के साथ श्रीलंका के रिश्‍ते खराब न रहें। राजपक्षे को उनकी इस सोच के एकदम उलट जाना उतना आसान नहीं होगा।

लेकिन इन सब पक्षों के बावजूद यह एक बड़ा सच यह है कि राजपक्षे की पार्टी आरम्भ से ही चीन की करीबी मानी जाती रही है। इसका एक कारण श्रीलंका की आर्थिक स्थिति को मज़बूती प्रदान करने के लिए हाल के वर्षों में चीन का श्रीलंका में बड़े पैमाने पर किया जाता रहा निवेश है। यह दिलचस्प है कि चीन के इस निवेश को राजपक्षे चुनाव प्रचार में अपने विकास मॉडल के रूप में प्रचारित करते रहे हैं। उनका कहना रहा कि इस निवेश का श्रीलंका को फायदा है और जनता ने उन्हें वोट देकर उनकी इस बात पर भरोसा जताया है।

याद रहे चीन ने बंदरगाहों के ज़रिये श्रीलंका में निवेश बढ़ाया है। चीन के इस निवेश के प्रति राजपक्षे परिवार के नेताओं का ज़बरदस्त मोह रहा है। एक समय यह भी आया कि श्रीलंका ने चीन के इस निवेश के चलते भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका की कई परियोजनाओं से खुद को अलग कर लिया। यही नहीं, उसने चीन को हिन्द महासागर में अपने क्षेत्र से आने की मंज़ूरी दी। श्रीलंका का सबसे कमज़ोर पक्ष आर्थिक ढाँचे का बहुत कमज़ोर होना है, जिसका चीन ने हाल के वर्षों में भरपूर फायदा उठाया है। श्रीलंका कर्ज़ में डूबा है और चीन इसका लाभ उठा रहा है। श्रीलंका के कुल कर्ज़ का करीब 12 फीसदी चीन से है, जिससे ज़मीनी स्थिति को समझा जा सकता है।

असैन्य परमाणु समझौता

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के एक साल के भीतर पड़ोसी देशों से सम्बन्ध सुधारने की अपनी नीति के तहत 2015 में श्रीलंका के साथ एक असैन्य परमाणु समझौते पर दस्तखत किये थे। उस दौरान रक्षा और सुरक्षा सहयोग बढ़ाने पर भी सहमति बनी थी। मोदी और श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना के बीच यह समझौता हुआ था। तब मोदी ने कहा था कि असैन्य परमाणु सहयोग पर द्विपक्षीय समझौता हमारे आपसी विश्वास की एक और अभिव्यक्ति है।

दिलचस्प यह भी था कि श्रीलंका की तरफ से  हस्ताक्षरित अपनी तरह का यह पहला समझौता था। यह सिरीसेना ही थे, जिन्होंने श्रीलंका का राष्ट्रपति बनने के बाद अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भारत को चुना था। तब राष्ट्रपति चुनाव में सिरीसेना ने महिंदा राजपक्षे को ही मात दी थी, जो अब प्रधानमंत्री बने हैं। हालाँकि उसके बाद दोनों देशों में रिश्तों को लेकर कुछ खास नहीं हुआ है। महिंदा राजपक्षे के चीन के निकट होने के कारण आने वाले समय में भारत के साथ उनके रिश्तों को लेकर पूरे एशिया ही नहीं पश्चिम में भी विशेषज्ञों की नज़र रहेगी।

चुनावी नतीजे

राजपक्षे की पार्टी के नेतृत्व वाले गठबन्धन श्रीलंका पीपल्स फ्रंट ने इस चुनाव में कुल 225 में से 145 सीटें जीतीं। पाँच सीटें उनकी सहयोगी पार्टियों को मिलीं। याद रहे श्रीलंका में एसएलपीपी ने 9 महीने पहले राष्ट्रपति चुनाव भी जीता था, जिसके बाद गोतबए राजपक्षे ने 18 नवंबर को राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी।

महिंदा राजपक्षे सन् 2005 से 2015 तक राष्ट्रपति भी रहे। इसके अलावा वह 2002-2004 और 2018-2019 में विपक्ष के नेता भी रहे हैं। नतीजों से ज़ाहिर होता है कि श्रीलंका में पूर्व राष्ट्रपति रणसिंघे प्रेमदासा के पुत्र सजित प्रेमदासा के नेतृत्व में बना नया गठबन्धन अब श्रीलंका में मुख्य विपक्षी दल के तौर पर उभरकर आया है।

राजपक्षे को देश की सिंहली आबादी में खासी लोकप्रियता हासिल है। वह खुद इसी समुदाय से हैं। श्रीलंका में सिंहली कुल आबादी का करीब 26 फीसदी हैं। यह समुदाय राजपक्षे का इसलिए भी बड़ा समर्थक है, क्योंकि सन् 2009 में अलगाववादी संगठन तमिल लिबरेशन टाइगर्स इलम (एलटीटीई) को खत्म करने का बड़ा श्रेय उन्हें दिया जाता है। श्रीलंका की जनता कोरोना महामारी के वक्त महिंदा के बतौर अंतरिम प्रधानमंत्री रहते प्रदर्शन से भी खुश है। महिंदा 2005 से 2015 तक राष्ट्रपति रहे, जिस दौरान उन्होंने अपनी स्थिति मज़बूत की। उनके इस कार्यकाल के दौरान संविधान संशोधन किया गया और उनके तीसरी बार राष्ट्रपति बनने की राह साफ हुई। एक तरह से इसने उनके परिवार को श्रीलंका की सियासत में स्थापित कर दिया। हालाँकि सन् 2014 में महँगाई और भ्रष्टाचार के आरोपों से महिंदा राजपक्षे की लोकप्रियता को झटका लगा। उन्होंने समय से पहले 2015 में चुनाव करा लिये, जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा।

उस राष्ट्रपति चुनाव में महिंदा राजपक्षे को अपने ही सहयोगी रहे मैत्रीपाला सिरीसेना से हार झेलनी पड़ी। उसी साल संसद ने 2015 में एक व्यक्ति के दो बार ही राष्ट्रपति रहने से सम्बन्धित संवैधानिक सीमा को बहाल कर दिया। इससे महिंदा फिर राष्ट्रपति चुनाव नहीं लड़ पाये। तीन साल बाद 2018 में तत्कालीन राष्ट्रपति सिरीसेना ने अचानक प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को हटाकर महिंदा राजपक्षे को कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। बाद में महिंदा और संसद में उनके समर्थकों ने सत्तारूढ़ पार्टी को छोडक़र एलएसपीपी का दामन थाम लिया, जिसके बाद वह नेता प्रतिपक्ष चुने गये। साल 2019 में उनके छोटे भाई गोतबए देश के राष्ट्रपति चुन लिये गये।

मछुआरों को लेकर रहा है तनाव

भारत और श्रीलंका के बीच मछुआरों का मसला काफी समय से रहा है। श्रीलंका के नौसैनिकों ने कुछ साल पहले जब तमिलनाडु के मछुआरों को गिरफ्तार कर लिया था, तब इस पर खासा बवाल मचा था। तब भारत सरकार ने सख्त एतराज़ जताया था। यही नहीं, इससे तमिलनाडु में भी खासा आक्रोश देखने को मिला था। सन् 2015 में जब प्रधानमंत्री मोदी और श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला श्रीसेना के बीच परमाणु सन्धि हुई थी, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मछुआरों के मुद्दे पर कहा था कि उन्होंने और सिरीसेना ने इसे सर्वोच्च महत्त्व दिया है। यह दोनों पक्षों के लोगों की आजीविका को प्रभावित करता है। हम इस बात पर सहमत हुए कि इस मुद्दे पर एक रचनात्मक और मानवीय रवैया अपनाया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि हम दोनों पक्षों के मछुआरों के संघों को जल्द मिलने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। उन्हें एक ऐसा समाधान निकालना चाहिए, जिसे दोनों सरकारें आगे बढ़ा सकें। लेकिन उसके बाद स्थितियाँ कई बार जटिल हुई हैं। मछुआरों की जब बात आती है, तो श्रीलंका के काछाथीवू द्वीप का ज़िक्र भी होता है।

रामेश्वरम से तकरीबन 10 मील दूर भारत और श्रीलंका के बीच पाक जलडमरू मध्य में स्थित 280 एकड़ का यह बंजर द्वीप एक समय भारतीय क्षेत्र में शामिल था। काछाथीवू सरकारी दस्तावेज़ों में भारत का हिस्सा बना रहा और यह स्थिति 1974 तक रही। तब श्रीलंका में श्रीमाओ भंडारनायके प्रधानमंत्री थीं और अपने राजनीतिक जीवन के मुश्किल दौर में थीं। सन् 1974 में जब वह भारत की यात्रा पर आयीं, तब उन्हें इंदिरा गाँधी का करीबी माना जाता था। उस समय काछाथीवू को विवादित क्षेत्र मानते हुए एक समझौते के तहत इसे श्रीलंका को सौंपा गया, जिससे भंडारनायके को अपनी राजनीतिक ज़मीन दोबारा पाने में मदद मिली। इंदिरा सरकार की सोच थी कि इससे दोनों देशों के रिश्ते मज़बूत होंगे। समझौते में प्रावधान था कि तमिलनाडु के मछुआरे काछाथीवू के आसपास आगे भी बेरोकटोक मछली पकडऩे आ सकते हैं। लेकिन सन् 1976 में भारत और श्रीलंका के बीच समुद्री सीमा तय करने के लिए एक और समझौता हुआ, जिसमें प्रावधान था कि श्रीलंका समुद्र के विशेष आर्थिक क्षेत्र में भारतीय मछुआरों को मछली पकडऩे की अनुमति नहीं होगी। समझौते के बाद भी तमिलनाडु के मछुआरे काछाथीवू के आस-पास मछली पकडऩे का काम करते रहे।  कुछ साल पहले श्रीलंका की नौसेना ने इस पर आपत्ति जताते हुए कई भारतीय मछुआरों को हिरासत में ले लिया था। कुछ नौसेना की गोलीबारी में मारे गये, जिससे दोनों देशों में तनाव भी बढ़ा। तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि ने तो सन् 2008 में इसके खिलाफ बाकायदा सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल की, जिसमें काछाथीवू द्वीप को श्रीलंका से वापस लेने की माँग थी। हालाँकि अभी तक यथास्थिति बनी हुई है। देखना यह है कि महिंदा राजपक्षे की नयी सरकार का मछुआरों को लेकर क्या रुख रहता है।

श्रीलंका की राजनीति में राजपक्षे परिवार

महिंदा राजपक्षे : राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगा के शासनकाल में 1994 से 2001 और 1997 से 2001 में मंत्री रहे। कुमारतुंगा ने अप्रैल, 2004 के आम चुनाव के बाद उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया। महिंदा को साल 2005 में श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के राष्ट्रपति उम्मीदवार बने और जीते, जिसके बाद उन्होंने लिट्टे को खत्म करने के अभियान को तेज़ी दी। साल 2009 में लिट्टे के करीब 30 साल के खूनी संघर्ष को खत्म करके महिंदा सिंहली बौद्ध समुदाय में एक तरह हीरो बन गये और 2010 के चुनाव में वह एक बार फिर राष्ट्रपति चुने गये।

गोतबए राजपक्षे : गोतबए महिंदा के छोटे भाई हैं और अप्रैल, 2019 को ईस्टर पर हुए बम धमाकों के बाद श्रीलंका की राजनीति में उन्हें एसएलपीपी ने राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बना दिया और वह जीत गये। वैसे गोतबए लिट्टे के खिलाफ असैन्य संघर्ष के दौरान देश के रक्षा सचिव और 1992 में अमेरिका जाने से पहले श्रीलंका सेना में कर्नल के पद पर थे।

बासिल राजपक्षे : महिंदा के छोटे भाई हैं। श्रीलंका के संसदीय चुनाव में बासिल ने ही रणनीति पर काम किया था। बासिल एसएलपीपी के राष्ट्रीय संयोजक हैं और महिंदा के शासनकाल में आर्थिक विकास मंत्री रह चुके हैं। उन्हें एक चतुर राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में जाना जाता है।

चमाल राजपक्षे : महिंदा के बड़े भाई। उनके राष्ट्रपति शासनकाल (2010-15 ) के दौरान चमाल श्रीलंका संसद के स्पीकर रहे। सन् 2019 में गोतबए के राष्ट्रपति बनने के बाद नयी सरकार में चमाल को कृषि और ग्रामीण विकास मंत्रालय दिया गया। वह रक्षा राज्य मंत्री और अन्य महकमों के भी मंत्री रहे।

नमल राजपक्षे : महिंदा के सबसे बड़े पुत्र। करीब 34 साल के नमल पेशे से वकील हैं। हालाँकि उन्हें परिवार का उत्तराधिकारी माना जाता है। वह संसदीय चुनाव में हम्बनटोटा से विजयी रहे हैं। नमल को सत्ता में प्रभावशाली माना जाता है। फिलहाल उनके पास कोई पद नहीं है। हाँ, उन पर धनशोधन के आरोप ज़रूर लग चुके हैं। इसके लिए वह मुकदमा भी झेल रहे हैं। जानकार मानते हैं कि महिंदा के इसी शासनकाल में उन्हें बड़ी ज़िम्मेदारी मिल सकती है, जिसमें राष्ट्रपति का पद भी शामिल है।