शिक्षा की कमी के कारण पिछड़े मुसलमान

आस की कोई किरण न दिखने के कारण मुस्लिम लगातार गरीबी के दुष्चक्र का सामना कर रहे हैं। हाल ही में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) की सर्वे रिपोर्ट में इसे स्पष्ट किया गया है। जबकि एनएसएसओ (68वें दौर) का सर्वेक्षण प्रमुख धार्मिक समुदायों में शिक्षा के स्तर और नौकरी बाजार के संकेतों का अनुमान प्रदान करता है। इसके 71 वें दौर में देश के सभी धार्मिक समुदायों में शिक्षा के स्तर का सर्वे किया गया है।

एनएसएसओ के दो सर्वेक्षणों की रिपोर्ट के अनुसार अन्य समुदायों के मुकाबले मुसलमानों में शैक्षणिक योग्यता सबसे कम है। शहरी इलाकों में हिंदुओं,ईसाईयों और सिखों की तुलना में मुस्लिम स्नातकोत्तर पुरूषों की संख्या प्रति 1000 में 15 है जो अन्य समुदायों के मुकाबले चार गुणा कम है। मुस्लिम महिलाओं की स्थिति भी ऐसी ही है। मुसलमानों में 1000 में से केवल 71 पुरूष ही स्नातक है। यह अन्य समुदायों में प्रति 1000 स्नातकों की संख्या का आधा है। इसी तरह माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर तक शिक्षित मुस्लिम 162 और 90 प्रति 1000 हैं जो अन्य समुदायों की तुलना में कम है।

शिक्षा के उच्च स्तर पर खराब उपलब्धि आंशिक रूप से स्कूली स्तर पर खिक्षा के निम्न स्तर के कारण है। सर्वेक्षण से पता चलता है कि 15 साल से ऊपर की आयु की आधी मुस्लिम आबादी या तो अशिक्षित है या केवल प्राथमिक और माध्यमिक स्तर तक ही पढ़ी है। मुसलमानों में अशिक्षितों की संख्या सबसे अधिक है जो प्रति 1000 में 190 है जबकि हिंदुओं में 84, ईसाईयों में 57 और सिखों में 79 है। मुसलमानों में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा वाले व्यक्तियों की संख्या प्रति 1000 में 257 और 198 है।

शिक्षा के उच्च स्तर पर अन्य समुदायों की तुलना में मुसलमानों का फैलाव बहुत कम है। इसी प्रकार रिपोर्ट बताती है कि मुसलमानों में सभी उम्र समूहों में मौजूदा उपस्थिति की दर सबसे कम है।

शहरी भारत में 5 से 14 साल के मुस्लिम पुरूषों की शैक्षिक संस्थानों में संख्या प्रति 1000 में 869 है, जो सभी धार्मिक समुदायों में सबसे कम है। सबसे ज़्यादा संख्या ईसाईयों की 981 है, सिखों की 971 और हिंदुओं की 955 है। उच्च शिक्षा में मुसलमानों की सबसे कम उपस्थिति दर और शैक्षणिक उपलब्धियां हंै, जो उनके आय के स्तर और माध्यमिक शिक्षा के लिए उच्च लागत के आधार पर तय की जाती हंै। एनएसएसओ के सर्वेक्षण बताते हैं कि मुसलमानों के बीच प्रतिदिन प्रति व्यक्ति खपत व्यय केवल 32.66 है जो कि अन्य सभी धार्मिक समूहों की तुलना में सबसे कम है। यह सिखों में सबसे अधिक 51.43 और हिंदुओं में 37.50 है। सरकारी और निजी संस्थानों में तनकीकी पाठ्यक्रम में कॉलेज की डिग्री के लिए औसतन कोर्स शुल्क 25,783 और 64,442 है जो मुसलमानों के लिए प्रति व्यक्ति आय के साथ वाहन करना कठिन है। 14 साल तक के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार होने के बावजूद औसत कोर्स शुल्क सभी समुदायों के लिए प्रति शैक्षिक सत्र 508 प्रति छात्र है। मुसलमानों में इसका बोझ बहुत अधिक है।

प्राथमिक शिक्षा से ऊपर की शिक्षा के लिए कोर्स शुल्क मुसलमानों में प्रति व्यक्ति आय का 8.5 फीसद , हिंदुओं में 7.4 फीसद, ईसाइयों में 5.4 फीसद और सिखों में 5.03 फीसद है। मुसलमानों की सबसे कम उपस्थिति का बड़ा कारण शिक्षा की लागत का उच्च बोझ है।

मुसलमानों के बीच निरक्षता का उच्च स्तर और सामान्य शिक्षा का उनका निम्न स्तर यह सुनिश्चित करता है कि वे गरीबी के दुष्चक्र में फंसे हंै। उच्च शिक्षा की कमी उनके काम को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है, क्योंकि श्रम बाजार की गतिशीलता काफी हद तक ज्ञान और कौशल की डिग्री का विषय है। श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) की परिभाषा अनुसार कार्यरत व्यक्तियों की संख्या और नौकरियों की तलाश शैक्षिक योग्यता पर निर्भर है। रोजगार की गुणवत्ता शिक्षा के स्तर और कौशल से जुड़ी है। मुसलमान शिक्षा की कमी, गरीबी और पिछड़ेपन से तब तक बाहर नहीं आ सकते जब तक कि केंद्र और राज्य स्तर पर सरकार का हस्तेक्षप न हो।

भारतीय मुसलमानों के गहरी गरीबी में जकड़े जाने के प्रत्यक्ष संकेत उनके कम खपत व्यय, एलएफपीआर सहित रोज़गार की स्थिति और कार्यरत जनसंख्या के अनुपात के रूप में दिखाई दे रहे हैं। एनएसएसओ कें डेटा के अनुसार मुसलमानों में एलएफपीआर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में 342 और 336 प्रति 1000 है, जो अन्य सभी धार्मिक समुदायों से कम है। जिसका अर्थ है कि भारत के शहरों में मुसलमानों में केवल 342 व्यक्तिय कार्यरत है या काम के लिए उपलब्ध हैं। इसी तरह मुस्लिम महिलाओं में एलएफपीआर अन्य धार्मिक समूहों की महिलाओं की तुलना में सबसे खराब है। यह देखते हुए कि मुसलमान अन्य गरीब समुदायों के विपरीत शहरी क्षेत्रों में मुख्य रूप से रहते हैं, ऐसा कम एलएफपीआर मुसलमानों की शिक्षा के निम्न स्तर के कारण है।

श्रमिक भागीदारी अनुपात (डब्ल्यूपीआर) जिसे प्रति 1000 कार्यरत व्यक्तियों की संख्या के रूप में परिभाषित किया गया है, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में मुसलमानों के बीच बहुत कम है। शहरी पुरूषों में नियमित नौकरियों में कार्यरत मुस्लिम पुरूषों की संख्या 1000 कार्यरत व्यक्तियों में केवल 288 है जबकि शहरी मुस्लिम महिलाओं से संबंधित आंकड़ों में 249 हंै जो कि अन्य सभी समुदायों में सबसे कम है। नियमित कर्मचारियों की संख्या ईसाइयों में सबसे ज़्यादा प्रति 1000 व्यक्तियों में 495 शहरी पुरूष और 647 शहरी महिलाएं हैं। इसके बाद हिंदुओं में 463 और 43 और सिखों में 418 और 482 है। इसी प्रकार नियमित रूप से वेतनभोगी नौकरियों से आय का प्रमुख स्त्रोत मुसलमानों में सबसे कम है।

एनएसएसओ सर्वेक्षणों द्वारा मुसलमानों के सुधार के लिए सुझाए गए उपायों में यह है कि केंद्रीय और राज्य सरकारें गरीबी के दुष्चक्र से बाहर निकलने में उनकी मदद के लिए ठोस कदम उठाएं, विशेष प्रोत्साहन राशि प्रदान करेें और स्कूल जाने वाले बच्चों को अपनी उच्च शिक्षा जारी रखने के लिए सब्सिडी वाली उच्च शिक्षा प्रदान करें,जो बच्चे नौंवी कक्षा से आगे उच्च शिक्षा जारी नहीं रख सकें उन्हें व्यावसायिक शिक्षा दें।

एनएसएसओ के सर्वेक्षणों ने संघ परिवार द्वारा नियमित रूप से उठाए गए ”मुस्लिम तुष्टीकरण” के मिथक को ध्रुवीकरण की राजनीति द्वारा समाज को विभाजित करने के लिए शातिर प्रचार, हशिए की राजनीति, बहिष्कार की राजनीति और घृणा की राजनीति, स्पष्ट रूप से समावेशी विकास के बहाने, केवल राजनीतिक लाभ के लिए बताया है। नतीजन भारत के मुसलमान गरीबी, पिछडेपन, पृथक्करण और बड़े पैमाने पर भेदभाव से असुरक्षित और डरे हुए हैं।