शिक्षा का दबाव बढ़ा रहा तनाव

बेरोज़गारी, शिक्षा में आ रही परेशानियों के चलते बढ़ रहे आत्महत्या के मामले

किसी समय विश्व गुरु के नाम से मशहूर भारत आज शिक्षा के उस दौर से गुज़र रहा है, जब पीढिय़ों के अनपढ़ रहने का ख़तरा मँडराता नज़र आ रहा है। इसकी एक वजह कोरोना महामारी के चलते पढ़ाई का ठप होना है, तो दूसरी वजह महँगी होती शिक्षा है। हाल ही में रूस और यूक्रेन में छिड़े भीषण युद्ध के चलते यूक्रेन में फँसे भारतीय छात्रों की पीड़ा सुनकर किसका दिल नहीं पसीजा होगा? लेकिन केंद्र की मोदी सरकार ने कुछ विद्यार्थियों को देरी करते हुए वहाँ से निकाला भी, तो उसे चुनावों में भुनाने का मौक़ा नहीं गँवाया। सवाल यह है कि यूक्रेन में फँसे विद्यार्थियों और जो जैसे-तैसे निकलकर आ गये हैं, उनकी भविष्य की चिन्ता के तनाव को कितने लोग समझ सकेंगे?

पिछले दो साल में देखा गया है कि लाखों छात्रों की पढ़ाई प्रभावित रही है, जिससे एक पीढ़ी के अनपढ़ रहने का ख़तरा देश में मँडरा रहा है। देश में स्कूल और कॉलेज अभी भी ठीक से नहीं खुले हैं, जिससे अभिभावकों की चिन्ता और भी बढ़ी हुई है। पढ़ाई ठप होने का सबसे ज़्यादा असर ग़रीब, निम्न मध्यम और मध्यम वर्ग पर पड़ रहा है। स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाई ठप होने के चलते बहुत-से लोगों ने अपने बच्चों को कोचिंग संस्थानों के सहारे छोड़ दिया है। कहना होगा कि कोचिंग संस्थानों ने देश में शिक्षा को महँगा करके ठगी का जो धंधा दो-तीन दशक से शुरू किया है, वह बहुत घातक होता जा रहा है। हालत यह है कि निजी स्कूल तो स्कूल फीस में भी कोचिंग फीस जोडक़र लेने लगे हैं। आज देश में पढऩे बच्चों को ज़्यादा अंक (माक्र्स) लाने की होड़ में लगा दिया गया है, जिसके चलते देश में पढऩे वाले कोचिंग कक्षा लेने को मजबूर हैं और क़रीब 70 फ़ीसदी से ज़्यादा बच्चे कोचिंग कक्षाएँ ले रहे हैं।

दिल दहला देने वाली आत्महत्या अभी कुछ दिन पहले राजस्थान के कोटा में एक कृति नाम की छात्रा ने आत्महत्या कर ली। छात्रा कृति ने अपने सुसाइड नोट में लिखा- ‘‘मैं भारत सरकार और मानव संसाधन मंत्रालय (मंत्री) से कहना चाहती हूँ कि अगर वे चाहते हैं कि कोई बच्चा न मरे, तो जितनी जल्दी हो सके इन कोचिंग संस्थानों को बन्द करवा दें। ये कोचिंग संस्थान छात्रों को खोखला कर देते हैं। पढऩे का इतना दबाव होता है कि बच्चे बोझ तले दब जाते हैं।’’

कृति ने आगे लिखा है- ‘वह कोटा में कई छात्रों को डिप्रेशन और स्ट्रेस से बाहर निकालकर सुसाइड करने से रोकने में सफल हुई; लेकिन ख़ुद को नहीं रोक सकी। बहुत लोगों को विश्वास नहीं होगा कि मेरे जैसी लडक़ी जिसके 90+ माक्र्स हों, वह सुसाइड भी कर सकती है। लेकिन मैं आप लोगों को समझा नहीं सकती कि मेरे दिमाग़ और दिल में कितनी नफ़रत भरी है।’

अपनी माँ के लिए कृति ने लिखा- ‘आपने मेरे बचपन और बच्चा होने का फ़ायदा उठाया और मुझे विज्ञान पसन्द करने के लिए मजबूर करती रहीं। मैं भी विज्ञान पढ़ती रही, ताकि आपको ख़ुश रख सकूँ। मैं क्वांटम फिजिक्स और एस्ट्रोफिजिक्स जैसे विषयों को पसन्द करने लगी और उसमें ही बीएससी करना चाहती थी। लेकिन मैं आपको बता दूँ कि मुझे आज भी अंग्रेजी साहित्य और इतिहास बहुत अच्छा लगता है; क्योंकि ये मुझे मेरे अंधकार के वक़्त में मुझे बाहर निकालते हैं।’

कृति अपनी माँ को चेतावनी देती है कि ‘इस तरह की चालाकी और मजबूर करने वाली हरकत 11वीं क्लास में पढऩे वाली छोटी बहन से मत करना, वह जो बनना चाहती है और जो पढऩा चाहती है, उसे वो करने देना। क्योंकि वह उस काम में सबसे अच्छा कर सकती है, जिससे वह प्यार करती है।’

कृति के इस सुसाइड नोट को पढक़र मेरा मन भी विचलित हो गया कि बच्चों को आगे निकालने की इस होड़ में कितने ही माँ-बाप अपने बच्चों के सपनों को छीन रहे हैं। आज लोग अपने बच्चों को इस प्रतिस्पर्धा में धकेलने लगे हैं कि फलाँ के बेटा-बेटी, आईएएस, आईपीएस, डॉक्टर, इंजीनियर बन गये, तो अपने बच्चों को भी आईएएस, आईपीएस, डॉक्टर और इंजीनियर ही बनाना है। फलाँ के बेटी-बेटा जयपुर सीकर और कोटा हॉस्टल में हैं, तो हमारे बच्चों को भी वहीं पढ़ाएँगे, चाहे उस बच्चे के सपने कुछ भी हों; लेकिन हम उन पर अपने सपने थोप रहे हैं।

तनाव बढ़ाते कोचिंग संस्थान

आज हमारे स्कूल और कोचिंग संस्थान बच्चों को पारिवारिक रिश्तों का महत्त्व नहीं सिखा पा रहे हैं; उन्हें असफलताओं या समस्याओं से लडऩा नहीं सिखा पा रहे हैं। उनके ज़ेहन में सिर्फ़ एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा के भाव भरे जा रहे हैं, जो जहर बनकर उनकी ज़िन्दगियाँ निगल रहा है। क्योंकि जो कमज़ोर हैं या जिनका मन उस जबरदस्ती थमाये विषय में नहीं लग रहा है, वे आत्महत्या कर रहे हैं। कृति ने भी यही किया। जो थोड़े मज़बूत हैं, वो तनाव से बचने के चक्कर में नशे की ओर बढ़ रहे हैं।

अभिभावकों से अपील

जब हमारे बच्चे असफलताओं से टूट जाते हैं, तो वे तनाव के चलते यह भी नहीं समझ पाते कि इससे कैसे निपटा जाए? माँ-बाप से इसलिए बात नहीं कर पाते; क्योंकि वे उनकी बात समझने के बजाय उन्हें डाँटने लगते हैं। इसीलिए कहा गया है कि बच्चे जब छोटे हों, तो उनकी हर गतिविधि पर नज़र रखनी चाहिए और उन्हें यह बताना चाहिए कि कौन-सा रास्ता उनके लिए सही है और कौन-सा ग़लत। लेकिन जब बच्चे बड़े हो जाएँ, तो माँ-बाप को उनका दोस्त बन जाना चाहिए, ताकि वे किसी भी तरह की परेशानी आने पर अपने मन की बात सहजता से माँ-बाप से कह सकें। ऐसा न होने पर उनका कोमल हृदय नाकामी और परेशानी से बहुत जल्दी टूट जाता है, जिसके चलते वे आत्महत्या कर बैठते हैं। अभिभावकों से निवेदन है कि आप अपने बच्चों की असफलता को उनकी कमज़ोरी न बनने दें। ज़िन्दगी बहुत क़ीमती हैं, जिसमें पढ़ाई-लिखाई जीविकोपार्जन के लिए मात्र कुछ फ़ीसदी भूमिका निभाती हैं।

विद्यार्थियों की आत्महत्या के आँकड़े

संसद में पिछले साल पेश किये गये राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों से पता चलता है कि साल 2017 से 2019 के बीच 14-18 आयु वर्ग के क़रीब 24,568 बच्चों ने आत्महत्या की थी, जिनमें 13,325 लड़कियाँ शामिल थीं। एनसीआरबी के यह आँकड़े बताते हैं कि साल 2017 में 14-18 आयु वर्ग के कऱीब 8,000 से ज़्यादा बच्चों ने आत्महत्या की। साल 2018 में 8,162 बच्चों ने आत्महत्या की। साल 2019 में 8,377 बच्चों ने आत्महत्या की। आत्महत्या के पीछे पढ़ाई का तनाव, फेल होना, प्रेम प्रसंग, नशा, प्रियजन की मौत, अच्छे नंबर न ला पाना, सामाजिक प्रतिष्ठा धूमिल होना, बेरोज़गारी, ग़रीबी के चलते पढ़ाई न कर पाना, स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ होना, माँ-बाप को क़र्ज़ करके पढ़ाने से उपजी समस्याओं से दु:खी होना, शौक़ पूरे न होना आदि वजहें रहीं।

एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में हर साल क़रीब आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, जिनमें तक़रीबन 17 फ़ीसदी यानी 1,35,000 भारतीय होते हैं। इनमें से क़रीब 35 फ़ीसदी विद्यार्थी होते हैं, जबकि सबसे ज़्यादा 45 फ़ीसदी किसान होते हैं। हालाँकि सरकार को आजकल देश में आत्महत्या के आँकड़े प्रदर्शित करने से गुरेज़ है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़े बताते हैं कि भारत में महिलाओं की अपेक्षा पुरुष ज़्यादा आत्महत्या करते हैं। अभी हाल ही में एक जवान ने अपने पाँच साथियों की गोली मारकर हत्या कर दी, यह भी तनाव का ही एक कारण है। मेरा मानना यह है कि चाहे वो आत्महत्या का मामला हो, या हत्या का, उसके पीछे कहीं-न-कहीं हम, हमारा समाज, हमारी सरकारें और आसपास के लोग ज़िम्मेदार होते हैं। यहाँ तक कि अपराधी बनाने में भी इन्हीं में से कोई-न-कोई वजह होती है। क्योंकि अपराधी माँ की कोख से नहीं, समाज में फैले वातावरण से पैदा होते हैं।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)