शिक्षक! तुम चेतना का सृजन करो…

शिक्षा का सीधा-सीधा सम्बन्ध चेतना से है। चेतन होकर जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह ज़िन्दगी को समान से भर देता है और ताउम्र याद रहता है। अन्यथा शिक्षा केवल कोरा कागज़ बनकर रह जाती है। इस संदर्भ में ओशो ने शिक्षक को बड़े अच्छे अर्थों में सम्बोधित किया है। वे कहते हैं कि शिक्षक तुम गम्भीर मत बनो, यह मत सोचो कि तुम एक शिक्षक हो तो कोई गम्भीर कार्य कर रहे हो। जीवन को खेलपूर्ण दृष्टि से देखो, यह सचमुच आनन्दपूर्ण है। उन्होंने माना है कि एक बेहतर चेतना का सृजन करना ही शिक्षक का मूल कार्य है। शिक्षक को सम्बोधित करते हुए वे कहते हैं कि यही तुम्हारा प्रेम हो, यही तुम्हारी करुणा, और यही वह कसौटी हो जिस पर तुम कार्य को सही या गलत होना तौल सको। एक बार अब्राहम लिंकन ने अपने पुत्र के शिक्षक के नाम एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अपने उद्गार इस तरह व्यक्त किये :-

‘‘अगर आप कर सकते हैं

तो उसे यह सीखने दें कि

गुण्डई करने वाले बहुत जल्दी

चरण स्पर्श करते हैं…,

लेकिन उसे इतना समय भी दें कि

वह आसमान में उड़ती चिडिय़ा के

धूप में उड़ती मधुमक्खियों के

और हरे पर्वतों पर खिले फूलों के

शाश्वत् रहस्य के बारे में सोच सके…

उसे स्कूल मेें यह भी सिखाओ कि

नकल करने से कहीं ज़्यादा

सम्मानजनक फेल हो जाना है…

उसे अपने विचारों में विश्वास

करना सिखाओ तब भी जब

सब उसे गलत बताएँ…

उसे विनम्र लोगों से विनम्र रहना

और कठोर व्यक्ति से कठोर

व्यवहार करना सिखाओ…

मेरे बेटे को ऐसी ताकत दो

कि वह उस भीड़ का हिस्सा

न बने, जहाँ हर कोई

खेमे में शामिल होने में लगा हो…’’

हमारी शिक्षा का ढाँचा ऐसा है, जिसमें आधारभूत और आवश्यक बातों के हाशिये पर पहुँचा दिया गया है। साफ-सफाई, सद्व्यवहार, सद्विचार, जागरूकता, नवीनता और कद्दावर सोच के पाठ थ्योरी में ही धरे रह गये प्रतीत होते हैं। वहीं तो जिस नयी सदी में भारत जैसे देश को विकसित राष्ट्रों में अग्रणी पंक्ति में होना चाहिए था, वो अभी विकसित होने के रास्ते पर संघर्ष कर रहा है। नहीं तो आज स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत, कुशल भारत कौशल भारत, स्टैंड अप स्टार्ट अब इंडिया के नारे देने की ज़्यादा ज़रूरत न पड़ती।

बच्चों की दुनिया बड़ी खालिस होती है और प्राकृतिक भी। उनके खजाने में बहुत-सी ऐसी बातें शामिल होती हैं, जिनसे कई कुछ सीखा जा सकता है। महात्मा गाँधी ने कहा है कि जो शिक्षक अपने छात्रों से अन्तरंग हो जाता है। वह उन्हें जितना सिखाता है, उससे कहीं अधिक सीखता है। रवीन्द्रनाथ टैगौर ने शिक्षक को नदी की उपमा दी है। वे कहते हैं कि जब एक दिमाग दूसरे दिमाग में पूर्ण संगति में मिलता है, तो परिणाम स्वत: स्फूर्त आनन्द होता है। यह आनन्द सृजनात्मक ऊर्जा का सहजात है। अरविन्द घोष कहते हैं कि शिक्षक के जीवन में शिक्षा वह है, जो बच्चों के लिए भविष्य की राह खोल दे।

हमारे महान् पुरुष अपने समय में सूचना-तकनीक के दायरे में नहीं थे; लेकिन उन्होंने ऐसे कार्य किये, जो उन्हें महानता की श्रेणी में ले आये। हमें छोटे-छोटे कामों से ही अपने आसपास का कायाकल्प करना चाहिए। वास्तविक शिक्षा कैसी होनी चाहिए? वरिष्ठ पत्रकार एन. रघुरामन ने एक लेख में इसका सार्थक उदाहरण दिया। वे लिखते हैं कि भूटान के एक शहर त्राशिमांगत्से के स्कूल में भूटान नरेश स्वयं ध्यान देते हैं। स्कूल में ऐसी व्यवस्था है कि बच्चे हर रोज़ एक घंटा खेती-किसानी सीखते हैं। बच्चे जो सब्ज़ियाँ उगाते हैं, वह स्कूल कैंटीन में इस्तेमाल की जाती हैं। प्रत्येक बच्चा जानता है कि जो सब्ज़ी वह खा रहा है, कैसे उगायी जाती है? उसकी देखभाल कैसे की जाती है? वे मौसम के अनुसार सब्ज़ियों की माँग और आपूर्ति का रिकॉर्ड भी रखते हैं। यह उदाहरण इस बात की गवाही है कि बचपन में जो चीज़ें सीख ली जाती हैं, वे दृष्टिकोण और व्यक्तित्व की नींव बनती हैं। इससे बच्चों का अनुभव परिपक्व होता है।

शिक्षित होने का मतलब है- समझदारी, गम्भीरता, नैतिकता, सहनशीलता, दूरदर्शिता। जब शिक्षा के अर्थ समझ आने लगते हैं, जो ज़िन्दगी के पन्ने सुनहरे होते चले जाते हैं। संघर्ष और समस्याएँ पीछे छूटने लगते हैं। वे रास्ते में अवरोध पैदा नहीं करते। गुलाब ज़्यादा खिलते हैं और काँटे कम होते चले जाते हैं। शिक्षित होने का मतलब है- हम अपने घर-परिवार, आस-पड़ोस, समाज और राष्ट्र की समस्याओं के हम खोजें। ऐसे में एक शिक्षक की ज़िम्मेदारी बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इस संदर्भ में मुझे वरिष्ठ पत्रकार स्व. कल्पेश याग्निक की शिक्षक दिवस के मौके पर लिखी गयी कुछ पंक्तियाँ बेहतरीन लगती हैं :-

अंधकार, अँधेरे, अंधेर से मुक्ति दे, ऐसा होता है शिक्षक।

अहंकार, अहं, असत्य से मुक्त कर दे, ऐसा होता है शिक्षक।।