शायद वे यह नहीं कह पाए!

आरएसएस के सर संघचालक मोहन भागवत ने यह तो कहा कि बिना मुसलमानों के भारत नहीं। लेकिन इसमें नया क्या है? हमारे संवैधानिक लोकतंत्र में सभी धर्मों के लोगों को चाहे वे किसी भी जाति, लिंग और धर्म के हों नागरिकता का समान अधिकार हासिल है।

समस्या तब होती है जब धर्म के आधार पर समुदायों से भेदभाव किया जाता है। देश में मुसलमान लगातार हिंदुत्व के प्रचारकों के निशाने पर हैं। वे धार्मिक ध्रुवीकरण के शिकार बनाए जा रहे हैं। ‘घर वापसी’, फिर ऐसे विशेषण जैसे ‘रामजादे – हरामजादे’, ‘पाकिस्तान चले जाओ’, ‘लव जिहाद’ और गौरक्षकों द्वारा लिंचिंग की घटनाएं इतनी ज्य़ादा होने लगी हैं कि एक समुदाय एक दम ही हाशिए पर पहुंच गया है। पहले से ही वे गरीबी और पिछड़ेपन के शिकार हैं। यह समुदाय आखिरकार जब दंगों की भेंट चढ़ जाता है तो इसके पास कुछ भी नहीं होता। भागवत वह मौका चूक गए जब वे साफ बता सकते थे कि आरएसएस के भारत में सभी समुदायों के लिए संवैधानिक ढांचे में ही न्याय और समानता होगी।

पूरे देश में आरएसएस ढेरों कार्यक्रम कर रहा है यह जागरूकता फैलाने के लिए कि उनका लक्ष्य क्या है। उसमें वे समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को बुलाते हैं। इसमें उन्होंने मुसलमानों को भी साथ लेने की कोशिश की है, हालांकि उन्हें खास कामयाबी नहीं मिली। मुसलमान आज भी उनकी विचारधारा से खौफ खाते हैं। अभी हाल के दौर में आरएसएस ने एक बार फिर हिंदुत्व के विचार को हिंदूवाद से घालमेल कर दिया है। आरएसएस समर्थित भाजपा केंद्र में राज कर रही है। कई दूसरे राज्यों में भी इसकी सरकारें हैं। अब देश के कुछ हिस्सों में तो वे कई साल से राजकाज संभाल रहे हंै।

मोहन भागवत के लिए यह एक मौका था जब वे एक शुरूआत यह कहते हुए कर सकते थे कि मुस्लिम, ईसाई और दूसरे तमाम अल्प संख्यक भारत में बराबरी के नागरिक हैं और इस में कोई अपवाद नहीं है। वे कह सकते थे कि गौ रक्षकों द्वारा की जा रही हत्याएं तत्काल रोकी जाएं। वे भाजपा को यह याद दिला सकते थे कि 2014 के आम चुनावों में प्रचारित किया गया कि सबका साथ सबका विकास यह उन्हीं का नारा था। भाजपा सरकार के दौर में मुसलमानों को राजनीतिक तौर पर अलग कर दिया। गरीबी हटाओ कार्यक्रमों और सरकारी समाज कल्याण की सूची से मुसलमान अर्से से बाहर हैं।

हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्षता का नियम लिखा हुआ है। यह राज्य और धर्म के विभाजन की बात करता है। यानी राजनीति से धर्म का कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए लेकिन यह सभी जानते हैं दुर्भाग्य से यह संभव नहीं है। पड़ोसी राज्य पाकिस्तान में राजनीति और धर्म का जो मेल हुआ। उसका नतीजा सभी के सामने है। राजनीतिक लाभ हासिल करने के लिए भाजपा ही नहीं, कांग्रेस और तमाम दूसरी क्षेत्रीय पार्टियां धर्म का इस्तेमाल राजनीतिक लाभ कमाने के लिए करती हैं।

हिंदुत्व एक धर्म है जिसे भारत में करोड़ों लोग देश और विदेश में मानते हैं। हिंदू राष्ट्र में से बाकी दूसरे तमाम धर्मों के लोगों को हटा देने की बात ज्य़ादातर हिंदू खुद नहीं मानते। फिर दूसरी ओर ऐसे भी लोग है जो हिंदुत्व में विविधता देख कर इसे जानने में रु चि लेते हैं। यह कुछ हद तक इस्लामिक है जिसमें कई रूप हैं कई चेहरे हैं। सूफी इस्लाम, बहा इस्लाम शायद दो धु्रव हैं जो विविधता जताते हैं। विविधता लिए हुए जो लोकतांत्रिक समाज है वहां उग्रवादी विचारधाराएं कामयाब नहीं हुआ करती।

शायद आरएसएस को यह अहसास हो गया है कि कामयाबी के लिए किसी भी राजनीतिक विचारधारा को समाज के सभी वर्गों का सहयोग चाहिए। उन्हें यह मानना चाहिए कि तभी संवैधानिक दायरे में उन्हें कामयाबी मिलेगी। साथ ही उन्हें बदलते दौर के साथ उन लोगों की इच्छाओं का भी ध्यान रखना चाहिए जो समर्थकों के तौर जुडऩा चाहते हैं। आज भारत कई मोर्चों मसलन रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, किसानों की आत्महत्याएं, औरतों के खिलाफ हिंसा आदि से जूझ रहा है। ऐसे में अल्पसंख्यकों की सोच को उनके धर्म के आधार पर नहीं देखना चाहिए। आरएसएस को शायद कायदे से कुछ करना है, यानी यदि इसे अपने समर्थकों का दायरा बढ़ाना है तो इसे समाज के सभी वर्गों से जुडऩा ही होगा।

(लेखक महिला अधिकारों के लिए

सक्रिय कार्यकर्ता हैं और भारतीय

मुस्लिम महिला आंदोलन की

संस्थापक सदस्य हैं)

साभार : इंडियन एक्सपे्रस