शहर में आकर भी राहत नहीं

अदिति चहार

बहुत साल पहले शेख इब्राहिम ज़ौक की ग़जल का यह शेर पढ़ा था-

‘अब तो घबरा कर यह कहते है कि मर जाएंगे,

मर कर भी अगर चैन न पाया, तो किधर जाएंगे’

कमोवेश यही हालत हमारी भी हुई, जब हमने शहर जाने की ठान ली।

गावों के बारे में शुरू से अच्छा-अच्छा लिखा जाता रहा है। कहते थे वहां की हवा शुद्ध है, ताजी सब्जियां मिल जाती है, दूध-घी की नदियां बहती हैं, आपसी  भाई-चारा बहुत है वगैरा-वगैरा। हम गांव में धोबी का सामान ढोते उसके डंडे खाते अपनी उम्र गुज़ार रहे थे। हमारी तरह ही गांव में कई बुजुर्ग भी बस जीवन जी रहे थे। मतलब यह कि हमारी और गांव के बाकी लोगों की ज़िंदगी में कोई ज़्यादा फर्क नहीं था। हम सबका जीवन एक ढर्रे पर चल रहा था। कहा जाता कि देश की 80 फीसद जनसंख्या गांवों में रहती है, पर मुश्किल यह थी कि गांव का जो आदमी शहर जाता वह अव्वल तो लौटता नहीं था यदि आ भी जाता तो शहरों की इतनी तारीफ करता कि हमें लगता कि गांव में भी कोई जीवन है। सोचा हो न हो हम भी अब शहर ही जाएंगे। यहां धोबी का माल कब तक ढोते रहेंगे। कुछ ने डराया भी कि शहर बहुत बड़े होते हैं। वहां भीड़ बहुत होती है। हमने सोचा कि जब देश के 80 फीसद लोग गांवों में रहते हैं तो शहर में ज़्यादा भीड़ कैसे हो सकती है? बात हमारे लिए ‘लाॅजिकल’ थी।

खैर हम भी शहर पहंुच गए। चैड़ी सड़कें, ऊँची -ऊँची इमारतें आधुनिक परिधान में नर-नरी। कभी-कभी तो हमें पुरुष और नारी में फर्क ही पता नहीं चलता था। दोनों के परिधान एक जैसे। खैर हम खुश थे। सोचा यहां काम करेंगे तो पैसा ज़्यादा मिलेगा। वहां धोबी तो बस दो वक्त का खाना देता था  और रहने को तबेला पर शहर में तो अधिक सुविधा होगी, ऐसा हमारा ख्याल था। अब लगे काम तलाशने । लोग हमारी तरफ ऐसे देखते जैसे हम कोई अजीब चीज़ हैं।  फिर हमने एक से पूछ ही लिया-‘‘क्यों भाई आप हमें अजीब नज़रों से क्यों देख रहे है, क्या कभी ‘गधा’ नहीं देखा’’? वह बोला,‘‘यहां तो बहुत है, पर तुम्हारे जैसे ज़रा कभी -कभी दिखते हैं। यहां के ‘गधे’ चरित्र से ‘गधे’ हैं पर वैसे आदमी जैसे दिखते हैं’’। हमने काम और मज़दूरी के बारे में पूछा तो वह बोला-‘‘बोझा ही ढोना है, तो गधों को तो मज़दूरी हम देते ही नही क्योंकि गधे तो न्यूनतम वेतन की श्रेणी में भी नहीं आते। ये कानून तो उन पर लागू होता है जो  ‘कोट-पेंट’ पहन कर तुम्हारी तरह दिन रात मेहनत करते हैं पर अपने हक के लिए नहीं लड़ते।’’

हम हैरान थे। लोग अपने अधिकारों के लिए क्यों नहीं लड़ते? जवाब मिला क्योंकि वे ‘गधे’ हैं। पर हमने तो गांव में सुना था कि शहर में तो आंदोलन, मार-काट, दंगे बहुत होते हैं। वह व्यक्ति मुस्कुराया और बोला ,‘‘ तुम रहे गधे के गधे। अरे वे दंगे तो प्रायोजित होते हंै। धर्म, मज़हब और बिरादरी के नाम पर नेता लोग लोगों को भड़काते और लड़ाते हैं। कभी मामला एक इमारत को बनाने का होता है तो कभी किसी इमारत को गिराने का।  कभी किसी पशु की पूजा का तो कभी किसी को ‘देशद्रोही’ बतलाने का। लोग इन्हीं मसलों में उलझे एक दूसरे से उलझते रहते हैं। कभी व्हट्स ऐप पर गाली गलौज करते हंै तो कभी इस शुभ कार्य के लिए ‘फेसबुक अकाउंट’ का प्रयोग होता है। इस तरह लोगों के लिए वे लोग मुद्दा नहीं  बनते जो देश छोड़ कर विदेशों में जा बसते हैं। यही कारण है कि मंहगाई, भुखमरी, शिक्षा, बेरोज़गारी, लूट-घसूट और सेहत से जुड़े मामलों के प्रति लोगों का ध्यान नहीं जाता। टेलीविजन पर घंटों ऐसी बातों पर बहस होती रहती है जिनका कोई अर्थ नहीं होता। हम यह सब सुन कर हैरान और परेशान थे। सोच रहे थे कि शहर में तो हमसे भी बड़े -बड़े बैठे हैं।

तभी एक सज्जन आए और हमारी तरफ इशारा कर बोले-‘लो ये भी आ गए। जिसे देखो चला आता है शहर में मरने के लिए’। हमारे लिए यह स्थिति अत्यंत नाजुक थी। हम तो आए थे यहां बेहतर जीवन और रोटी की तलाश में, पर यहां पर तो चारे के नाम पर कूड़ादान में पड़ा कूड़ा और लोगों की दुत्तकार मिलती है। रात को सोने के लिए फुटपाथ पर पहंुचे तो पता चला कि फुटपाथ पर सो रहे लोगों से वहां सोने की फीस वसूल की जाती है। जो पैसा देने से थोड़ी भी आनाकानी करे उसी की पिटाई हो जाती है। बहुत बढ़िया धंधा चल रहा था। बाद में पता चला कि हर फुटपाथ पर छुट भैया नेताओं का कब्जा है। बाद में ये नेता बड़े-बड़े नेताओं तक यह पैसा  पहंुचाते हैं।

 हम तो यहां की व्यवस्था में किसी भी रूप में फिट नहीं हो पा रहे थे। सोच रहे थे कि इससे अच्छा तो गांव ही था। धोबी के डंडों और बोझा ढोने के बाद कम से कम हरा चारा तो मिल जाता था। शहर में तो अपमानित होने के बाद खाने के लिए भी कूड़ा ही मिल रहा था। क्या करें, यही सोच रहे थे, जाएं तो जाएं कहां ? तभी मन ने कहा – ‘मेरा नाम जोकर’ के गाने -‘जीना यहां मरना यहां और इसके सिवा जाना कहां’ इस सोच को छोड़ क्योंकि इस गाने के लेखक शैलेंद्र के पास कोई और च्वायस नहीं होगी । उसे वहीं रहना था । पर तेरे पास विकल्प है तू राजकूपर की राघू कर्माकर द्वारा निर्देशित एक दूसरी फिल्म – ‘जिस देश  में गंगा बहती है’ के इस गाने पर ध्यान दे – ‘‘आ अब लौट चलें, नैन बिछाए, बाहें पसारे, तुझको पुकारे देश तेरा’’। हालांकि लिखा यह भी शैलेंद्र ने है पर फर्क हालात का है। हमने इस पर गौर किया और लौट आए अपने गांव।