व्यवसायीकरण की ओर शिक्षा

किसी भी देश की तरक्की में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। कहा भी गया है कि शिक्षित राष्ट्र, समृद्ध राष्ट्र। लेकिन अगर हम भारत की बात करें, तो यहाँ की दोहरी शिक्षा नीति ने लोगों के दो वर्ग बनाने में बड़ी भूमिका निभायी है। यह दो वर्ग हैं- गरीब वर्ग और अमीर वर्ग। वैसे तो हमारे देश में सम्पन्नता के आधार पर और भी वर्ग बने हुए हैं; लेकिन शिक्षा के लिहाज़ से कहा जा सकता है कि यहाँ अच्छे स्तर की शिक्षा अमीरों के लिए है और निम्न स्तर की शिक्षा गरीबों के लिए है।

यही वजह है कि गरीब और निम्न मध्यम वर्गीय लोगों के बच्चे या तो बहुत पढ़-लिख नहीं पाते और अगर पढ़-लिख जाते हैं, तो उनकी पढ़ाई का स्तर वो नहीं होता, जो उन्हें एक हाई क्लास जीवन दे सके। वहीं उच्च मध्यम वर्गीय और अमीर परिवारों के बच्चे उच्च स्तर तक अच्छी शिक्षा पाते हैं; फलस्वरूप उन्हें बेहतर से बेहतर नौकरियाँ मिलती हैं, जिसमें उनका मासिक पैकेज कम-से-कम इतना होता है, जो निम्न मध्य वर्ग या गरीब के बच्चे का अच्छे से अच्छा सालाना पैकेज भी नहीं होता। इस तरह दोहरी शिक्षा गरीबी-अमीरी की खाई को लगातार बढ़ाने का काम कर रही है, जिसके लिए सरकारों समेत कई लोग दोषी हैं। इसी तरह सरकारी स्कूलों में स्थायी अध्यापकों की कमी से शिक्षा की नींव कमज़ोर होती जा रही है। इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों के शिक्षा नीति निर्माताओं को कानूनी और अन्य अड़चनें दूर करके सबसे पहले हर स्तर पर शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की भर्ती का काम प्राथमिकता के साथ पूरा करना होगा, न कि निजीकरण की बात सोचनी होगी।

वैसे भी आज प्राइमरी स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक में अध्यापकों की काफी कमी है, जिसके चलते पढ़ाई से लेकर समूची शिक्षण व्यवस्था पर कई सवाल उठते हैं। सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों को मिल रही अधकचरा शिक्षा उन्हें वह ज्ञान और कौशल नहीं दे पाती, जिसके दम पर वे अपना अच्छा भविष्य बना सकें।

दूरस्थ शिक्षा का अनियंत्रित विस्तार

शिक्षा की सुविधाएँ बढ़ाने के लिए दूरस्थ शिक्षा प्रणाली शुरू की गयी, ताकि दूर-दराज़ के विद्यार्थियों और नौकरीपेशा लोग भी सरलता से शिक्षा प्राप्त कर सकें। दूरस्थ शिक्षा का भी जिस तरह अनियंत्रित विस्तार हुआ है, उससे शिक्षा की गुणवत्ता को ठेस पहुँच रही है। इसी तरह बिना आवश्यक व्यवस्था के सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए विश्वविद्यालयों की स्थापना की जाती रही है; लेकिन मात्र कुलपति नियुक्त कर देने और एक कार्यालय बना देने से विश्वविद्यालय नहीं बनता है।

अत्यधिक घातक साबित होगा शिक्षा का निजीकरण

दरअसल अधिकांश सरकारी शिक्षा केंद्र निरंतर उपेक्षा के कारण शिक्षा व्यवस्था एक चक्रव्यूह में फँसी हुई है; जिसका मोटा फायदा गैर-सरकारी शिक्षण संस्थानों को मिल रहा है। शिक्षा माफिया सरकारों की मिलीभगत से सरकारी शिक्षा व्यवस्था में मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखा जा रहा है, जिससे शिक्षा का निजीकरण विस्तार पाता जा रहा है। अब केंद्र सरकार ने सरकारी स्कूलों के निजीकरण की मंशा बना ली है। वैसे तो यह बात उड़ती-उड़ती 2016-17 में ही सामने आने लगी थी, लेकिन उसके दो-ढाई साल बाद लोकसभा चुनाव होने के चलते शायद इस कदम पर चर्चा भी नहीं की गयी। 2019 में लोकसभा चुनावों में जीत के बाद फिर से यह मुद्दा उठा, लेकिन तब एनआरसी, सीएए और दिल्ली विधानसभा चुनाव आदि के चलते में मामला दबा रहा। और अब खुलकर स्कूलों के निजीकरण का विषय चर्चा में है। अर्थात् अब यह लगभग साफ ही लग रहा है कि सरकार सरकारी शिक्षण संस्थानों को भी फिजूल खर्च का बोझ जैसा समझकर उसका निजीकरण करने की जुगत में है। ज़ाहिर है कि अगर सरकारी स्कूलों का निजीकरण हुआ, तो इन स्कूलों के अधिकांश मालिक चंद प्रतिष्ठित अमीर लोग और राजनीतिक रूप से रसूखदार लोग इनका अधिग्रहण करेंगे, जैसा कि प्राइवेट शिक्षण संस्थानों पर उनका कब्ज़ा है। फिर वही होगा रेलवे की तरह, सरकार खुद कह देगी कि शिक्षा शुल्क (फीस) पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है और इतना कहते ही रसूखदार लोगों के हाथ में आये स्कूलों में अनाप-शनाप फीस वसूली जाएगी। शिक्षा को इस बाज़ारीकरण से बचाने के लिए सरकार को शिक्षा के निजीकरण की नीति पर ध्यान देना होगा।

गरीब बच्चों से छिन जाएगी शिक्षा

पूरे देश में सरकारी स्कूलों में बड़ी संख्या में गरीबों के बच्चे पढऩे जाते हैं। देश की शिक्षा व्यवस्था पहले ही व्यावहारिक सोच से पैदा हुई समस्याओं से जूझ रही है; क्योंकि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर काफी गिरता जा रहा है। कहीं पढ़ाने के लिए अध्यापक नहीं हैं, तो कहीं पढऩे का सही स्थान। व्यवस्थाओं का अभाव तो सरकारी स्कूल काफी समय से झेलते आ रहे हैं। उस पर अगर बचे-खुचे सरकारी स्कूलों को निजी हाथों में सौंप दिया, तो व्यापारिक सोच वाले स्कूलों के मालिक मनमाने तरीके से फीस वसूलेंगे और उन्हें कोई रोक नहीं सकेगा। पब्लिक स्कूलों में वसूली जा रही अनाप-शनाप फीस पर रोक न लग पाना इसका सबसे सही उदाहरण माना जा सकता है। ऐसा ही तब होगा, जब सरकारी स्कूलों पर शिक्षा माफिया का कब्ज़ा होगा और ऐसा होने पर गरीबों के बच्चे ही नहीं, निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों के बच्चे भी शिक्षा से वंचित रहने लगेंगे। शिक्षा माफिया जिस तरह इस क्षेत्र पर लगातार अधिकार जमाते जा रहे हैं, वैसे-वैसे सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था को कमज़ोर किया जा रहा है। निजी तौर पर शिक्षा का बाज़ारीकरण करने वाले माफिया दाखिले से लेकर परीक्षा परिणाम तक मिली छूट का फायदा उठाकर शिक्षा के क्षेत्र में वर्ग-भेद और विषमताएँ पैदा करने से संकोच नहीं करेंगे।

तो पूरे देश में होगा स्कूलों का निजीकरण?

सन् 2017 में मध्य प्रदेश सरकार ने सरकारी स्कूलों के निजीकरण की योजना तैयार की थी, जिसका वहाँ के अध्यापकों, समाजसेवियों और विपक्ष ने जमकर विरोध किया था। अब केंद्र सरकार भी पूरे देश में सरकारी स्कूलों के निजीकरण की तैयारी में है। भाजपा सरकार तो वैसे भी हर सरकारी विभाग को निजीकरण की ओर ले जा रही है। लेकिन शिक्षा के निजीकरण के मामले में नीति आयोग भी सरकार के साथ है। नीति आयोग ने हाल ही में जारी की एक रिपोर्ट में यह सिफारिश की है। इसमें उसने अपने तीन साल के कार्य एजेंडा में दलील दी है कि खराब शैक्षणिक स्तर वाले सरकारी स्कूलों को निजी हाथों को सौंप दिया जाना चाहिए, जिसमें सार्वजनिक-निजी भागीदारी हो। रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी स्कूलों के निजीकरण में पीपीपी मॉडल की सम्भावना भी तलाशी जा सकती है। इसके तहत निजी क्षेत्र सरकारी स्कूलों को अपनाएँ और प्रति बच्चे के आधार पर उन्हें सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित किया जाए। नीति आयोग ने कहा है कि निजीकरण से उन स्कूलों की समस्या का समाधान होगा, जो काफी खोखले हो गये हैं और उनकी हालत ठीक करने के लिए काफी खर्च होगा।

रिपोर्ट के अनुसार, समय के साथ सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ी है, मगर इनमें प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या घटी है; जबकि निजी स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि साल 2010-2014 में 13,500 सरकारी स्कूल बढ़े, जबकि इनमें प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या में 1.13 करोड़ की कमी आयी। वहीं निजी स्कूलों में प्रवेश लेने वालों की संख्या में 1.85 करोड़ बढ़ोतरी हुई। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि साल 2014-15 में लगभग 3.7 लाख (36 फीसदी) सरकारी स्कूलों में 50-50 से भी कम छात्र थे। इससे साफ है कि सरकारी स्कूलों की स्थिति खराब हुई है।

सरकारी स्कूलों में सुधार क्यों नहीं करती सरकार

इस मामले में हमने कई अध्यापकों से बातचीत करने की कोशिश की, लेकिन सभी कुछ भी कहने से बचते नज़र आये। नाम न बताने की शर्त पर एक प्रोफेसर ने कहा कि शिक्षा को लेकर सरकार की नीयत में खोंट दिखता है, अन्यथा सरकार सरकारी स्कूलों की चरमराती शिक्षा व्यवस्था को सुधारकर अच्छा कर सकती है। उन्होंने कहा कि जिस देश में बड़े-बड़े अधिकारी, बड़े-बड़े विद्वान, वैज्ञानिक, बड़े-बड़े गणितज्ञ और बड़े-बड़े खगोल शास्त्री, भू-विज्ञानी सरकारी स्कूलों में शिक्षा हासिल करके निकले हैं, उस देश की शिक्षा व्यवस्था कैसे चौपट हो सकती है? इसके पीछे का सीधा-सा कारण है- लालच का। यह लालच शिक्षा माफिया सरकार और सरकारी लोगों को मलाई खिलाकर बढ़ा रहे हैं। प्रोफेसर कहते हैं कि क्या आज केंद्र सरकार को दिल्ली के सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था में हो रहे सुधारों से सीख नहीं लेनी चाहिए? सभी जानते हैं कि प्राइवेट स्कूलों में गरीबों के बच्चे किसी हाल में नहीं पढ़ सकते, तो फिर यह तो गरीब बच्चों के हाथ से किताबें छीनने की साज़िश ही हुई न! उन्होंने कहा कि आज भी देश में लाखों गरीबों के पास दो वक्त की रोटी का साधन भी नहीं, तो फिर वे अपने बच्चों को कैसे पढ़ा सकते हैं? इसी को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस सरकार ने आँगनबाड़ी केंद्र खोले थे और स्कूलों में मध्याह्न भोजन की व्यवस्था की थी; ताकि गरीबों के बच्चे भी शिक्षा ग्रहण कर सकें। प्रोफेसर ने दावे के साथ कहा कि उस समय सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या तेज़ी से बढ़ी थी; लेकिन मौज़ूदा दौर में स्कूलों में बच्चों को कहीं पानी के साथ रूखी रोटी दी जा रही है, तो कहीं नमक के साथ! क्या ऐसे ही शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त होगी?