वोट फीसद में थोड़ा भी बदलाव बदल देता है नक्शा

त्रिपुरा विधानसभा चुनावों में माकपा को 46 फीसद वोट मिले हैं। यानी 2013 की तुलना में सात फीसद कम। जबकि भाजपा को 2013 में दो फीसद से कम वोट मिले थे। लेकिन आज त्रिपुरा में भाजपा सत्ता में है क्योंकि इसने एक मोर्चा बनाया जिसे कुल 51 फीसद वोट मिले। वोट हिस्सेदारी में पांच फीसद का अंतर सीटों के अनुपात में जबरदस्त उछाल दिखाता है जिसमें भाजपा को 43 और माकपा सिर्फ 16 सीटों पर सिमट जाती है।

भारतीय चुनावी व्यवस्था में मतदान में थोड़ी भी उछाल से एक पार्टी तो जीत जाती है और दूसरी बर्बाद हो जाती है। पश्चिम बंगाल में करीब 32 साल राज करने वाला वाम मोर्चा हमेशा पचास फीसद वोट पाता रहा। बकाया पचास फीसदी मतों का विभाजन दूसरी पार्टियों में होता रहा। लेकिन 2011 मेें इसकी वोट हिस्सेदारी 42 फीसद रही और तृणमूल और सहयोगी पार्टियों पचास फीसद वोट भी हासिल किए तो भी वाम मोर्चा को 294 में 60 सीटें मिलीं। मोर्चा तब भी ज्य़ादा वोट पाने का गान गाता रहा। लेकिन हुआ यह था कि मतों की भागीदारी और सीटों की हिस्सेदारी काफी कम हो गई। त्रिपुरा में भी पश्चिम बंगाल की ही तरह माकपा का सफाया हुआ।

भाजपा ने त्रिपुरा मेें कांग्रेस का एकदम सफाया कर दिया हालांकि मतप्रतिशतता में यह माकपा से एक प्वांइट कम है। भाजपा ने नौकरशाही, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक यानी हर तरह के हथकंडे अपनाते हुए त्रिपुरा के लाल दुर्ग में अंदर तक घुस कर माकपा को नष्ट कर दिया है। माकपा नेता और कार्यकर्ता अभी भी अपने घावों को सहला ही रहे हैं।

अभी भी माकपा राजनीतिक तौर पर मुकाबले में तैयार होती नजर नहीं आती। कांग्रेस के तमाम मतदाताओं का भाजपा की ओर जाना बताता है कि दोनों ही पार्टियों का चाल, चेहरा और चरित्र एक सा ही हैं। जब 1977 में चुनाव हुए तो वोटों की कांगे्रसी हिस्सेदारी 18 फीसद के नीचे चली गई। कांग्रेस ने 30 फीसद का अपना वोट बैंक बरकरार रखा (2013 में यह 37 फीसद हो गया)। लेकिन कांग्रेस का अब 1.5 फीसद पर पहुंच जाना कांग्रेस की कमजोरी और माकपा की राजनीति को साफ करता है।

त्रिपुरा में कानून-व्यवस्था हमेशा दूसरे राज्यों की तुलना में बेहतर रही। यहां की वामपंथी सरकार ने आदिवासी और गैर आदिवासी मसलों को कल्याणकारी कदम उठा कर हल किया मसलन भूमि देना, पुनर्वास और सामाजिक नीतियों मसलन आहार सुरक्षा, रोजगार गारंटी, और सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य को जन-जन तक पहुंचाया। इसके कारण यहां सामाजिक आर्थिक विकास हुआ लेकिन आदिवासी आकांक्षाएं और चाहत वामपंथी सरकार के पतन का कारण भी बना। त्रिपुरा में शिक्षा की उपलब्धि केरल के काफी करीब थीं। शिक्षा के फैलाव के साथ बेहतर रोजगार की आकांक्षा भी बढ़ी हालांकि वामपंथी राज में यह मुमकिन नहीं था इसलिए सरकार व पार्टी ने उस ओर सोचा भी नहीं।

नगालैंड

नगालैंड विधानसभा में एनपीएफ-एनपीपी गठबंधन को मिलीं 29 सीटें। जबकि एनडीपीपी-भाजपा की हैं 27 सीटेें। लेकिन कांगे्रस को इस बार कोई सीट नहीं मिली जबकि 2013 में इसे यहीं आठ सीटें हासिल हुई थीं।

नगा पीपुल्स फं्रट और नए बने नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी और भाजपा गठबंधन को 27 सीटें और इसकी सहयोगी नेशनल पीपुल्स पार्टी को दो सीटें मिली हैं।

भाजपा-एनडीपीपी मोर्चा को 11 सीटें और दो सीटें मिली हैं। शनिवार तीन मार्च को आए नतीजों के अनुसार चुनाव आयोग ने जनता दल (युनाइटेड) के एक विधायक और एक निर्दलीय को जिसे भाजपा-एनडीपीपी मोर्चा का समर्थन हासिल था उसे जीत का प्रमाणपत्र दिया। इससे कुल संख्या 29 तो हो जाती है लेकिन विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए ज़रूरत 31 सीटों की है।

फिलहाल नगा पीपुल्स फ्रंट सबसे बड़ी पार्टी है। एनडीपीपी पंद्रह निर्वाचन क्षेत्रों में जीती जबकि इसकी सहयोगी भाजपा 11 पर। चुनावों के पहले भाजपा ने अपना पंद्रह साल पहले का नगा पीपुल्स फं्रंट के साथ चला आ रहा समझौता तोड़ दिया था और एनडीपीपी का साथ ले लिया था। जिसका नेतृत्व नगालैंड के पूर्व मुख्यमंत्री कर रहे थे। इस मोर्चे से उन्हें अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार भी घोषित किया था।

कांग्रेस को 2013 की विधानसभा में आठ सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार उसे एक भी सीट नहीं मिली। किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला है फिर भी भाजपा-एनडीपीपी मोर्चाे ने दो उम्मीदवारों जनता दल (युनाइटेड) के एक जीते उम्मीदवार और निर्दलीय उम्मीदवार तोंग्पोंड ओजुकुम को अपनी सूची में गिन लिया है।

नगालैंड की 39.1 फीसद मतदाताओं ने नगा पीपुल्स फं्रट के पक्ष में मतदान किया। एनडीपीपी का वोट हिस्सेदारी 25.5 फीसद जबकि भाजपा को मात्र 14.4 फीसद वोट हासिल हुए। कांग्रेस का मत फीसद सिर्फ 2.1 फीसद रहा।

मेघालय

मेघालय में कांग्रेस की ज्य़ादा सीटें हैं। लेकिन चुनाव बाद की रणनीतिक चालें खासी चलीं। कांग्रेस के बड़े नेता अहमद पटेल, कमल नाथ, मुकुल वासनिक और उत्तरपूर्व के ईंचार्ज व कांग्रेस के महासचिव सीपी जोशी शिलांग में शनिवार दोपहर से ही जमा रहे। उधर भाजपा ने भी अपने उत्तरपूर्व विशेषज्ञ हेमंत विश्वशर्मा को शिलांग भेजा है जिससे कांग्रेस की सरकार न बन सके। इस काम में सफलता भाजपा को ही मिली हालांकि कांग्रेस को इस बार 21 सीटें मिली हैं यानी बहुमत से दस कम हैं। कोनराड संगम की नेशनल पीपुल्स पार्टी 19 सीटों के इंतजाम में जुटी है। उन्होंने कांग्रेस और एनपीपी जैसी छोटी पार्टियों और निर्दलीयों को जोड़ लिया।

एनपीपी नेता संगमा को उम्मीद है कि वे अगली सरकार बना ले जाएंगे। मेघालय जनता कांग्रेस की भ्रष्ट सरकार से ऊब चुकी थी इसलिए बदलाव की राह ली। भाजपा ने यहां 47 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन सिर्फ दो सीटें ही जीत सकी। मणिपुर और गोवा में भी कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर विजयी हुई थी लेकिन वहां भी सरकारें भाजपा की ही बनीं।

एनपीपी और भाजपा ने अलग-अलग चुनाव लड़ा हालांकि एनपीपी केंद्र में और मणिपुर में भाजपा के साथ है। यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी को छह सीटें मिली है यह भी भाजपा की उत्तर पूर्व नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलाएंस में है। एनपीपी की ही तरह यूडीपी ने चुनाव अपने दम पर लड़ा और हिलस्टेट पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी से सहयोग रखा जिसे दो सीटों पर जीत मिलीं। यदि ये एनपीपी के साथ हो तीं तो विधायकों की कुल संख्या 29 हो जाती है।

एक और पार्टी पीपुल्स डेमोक्रेटिक फं्रट है जिसे चार सीटें मिली है। यह पार्टी पिछले साल ही बनी थी जिसे कांग्रेस के पूर्व विधायक पिन्शेन्गेन एन सिएम ने बनाया था। मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे सीएम बहुत कम अंतर से मासिनराम सीट पर हारे। कांगे्रस छोडऩे के बाद वे मुख्यमंत्री मुकुल संगमा के तगड़े आलोचक हो गए थे। उनकी पार्टी शायद ही संगमा को समर्थन दे। कांग्रेस का किसी भी पार्टी से चुनाव से पहले कोई तालमेल नहीं था।

मुख्यमंत्री संगमा ने आरपति और सांगसांक निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था। हालांकि नतीजे उनकी आशा के अनुरूप नहीं थे। उनकी पत्नी डिकोची डी शिरा महेंद्रगंज सीट से जीतीं। मेघालय विधानसभा के अध्यक्ष और कांग्रेस उम्मीदवार अब बाहर मंडल हार गए। इसी तरह गृहमंत्री एचडीकुपट आर लिंग्दोह और शहरी मामलों के मंत्री रोमी वी लिंग्दोह भी पराजित हुए।

कोनराड संगमा के भाई और एनपीपी प्रवक्ता जेम्स के संगमा दादे नग्रे सीट पर जीते। एनसीपी के प्रदेश अध्यक्ष सप्लेंगए संगमा भी गाम्बेगे्र सीट से जीते जबकि एडेलबर्ट नानग्रम जो खुन हैनीट्रैप नेशनल अवेकनिंग मूवमेंट (केएचएनएएम) के हैं वे उत्तरी शिलांग से विजयी रहे। भाजपा को जीत दिलाने वाला प्रचारक मराठी सुनील देवधर पूर्वोन्तर में भाजपा था वह चेहरा है जिससे न कभी खबरों में खुद को रखा और न चुनाव ही लड़ा। लेकिन संगठन की रणनीति, चुनाव-प्रचार,कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता को बनाए रखने में उन्होंने खासी कूटनीति अपनाई।

विधानसभा 2013 में माकपा की 49 सीटें आई थीं। दस सीटों के साथ कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल थी। माकपा को एक सीट मिली थी। देवधर न सिर्फ मेघालय और त्रिपुरा बल्कि सभी राज्यों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक के रूप में सक्रिय रहे। वे मेघालय में खासी और गारों जनजाति के लोगों से उन्हीं की भाषा में और बंगालियों से बांग्ला में बात करते हैं।

देवधर ने पिछले पांच साल में वाम दलों, तृणमूल कांगे्रस और कांग्रेस से पहले भाजपा कई नेताओं और विधायकों को चुनाव के पहले भाजपा में शामिल कराया। इनके साथ ही निचले स्तर पर सक्रिय कार्यकर्ताओं को जोड़ा और बूथ स्तर पर संगठन को मजबूत किया। देवधर ने वामदलों की ही तरह अपने कैडर बनाए।

कांगे्रस के ऐसे अच्छे नेताओं को उन्होंने भाजपा से जोड़ा जो वाममोर्चे के चुनौती देते रहे। फिर माक्र्सवादी और असंतुष्ट लेकिन मंजे हुए नेताओं को भी संगठन से जोड़ा। उन्होंने कार्यकर्ताओं को उचित प्रशिक्षण दिया और उन्हेें संतुष्ट रखा।

क्या है तिपरालैंड विवाद?

 

देश 1947 में आजाद हुआ। त्रिपुरा का संघ गणराज्य में नौ सितंबर 1949 मेे विलय हुआ। इससे पहल यह एक रियासत थी। इसे यूनियन टेरिटरी का दर्जा 1963 में दिया गया फिर 21 जनवरी 1972 मेें त्रिपुरा को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला।

त्रिपुरा के पड़ोस में पूर्व पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) था। वहां से बंगाली हिंंदू त्रिपुरा आ रहे थे। यह बात त्रिपुरा के लोगों को नहीं भा रही थी। वहां भी छिटपुट संघर्ष होता रहा। वामपंथियों के राज में हिंसा पर रोक लगी।

जनगणना के अनुसार 2001 में पाया गया कि त्रिपुरा में 70 फीसद बंगाली हैं यानी आदिवासी सिर्फ तीस फीसद। एक लंबे आंदोलन के बाद देश का 29वां राज्य तेलंगाना दो जून 2014 में बना। तबसे यहां तिपरालैंड की आवाज ने फिर जोर पकड़ा। भाजपा ने यहां के आदिवासियों में लोकप्रिय संगठन इंडीजीनिय पीपुल्स फं्रट ऑफ त्रिपुरा के साथ तालमेल किया। इस फ्रंट ने नौ सीटों पर चुनाव लड़ा जिनमें आठ पर विजय पाई। अब उनका कहना है कि 35 सीटों को पाने वाला भाजपा पहले उनकी मांग स्वीकार करे या तो राज्य में आदिवासी मुख्यमंत्री बनाए या फिर अलग तिपरालैंड की घोषणा करें। हालांकि अब राज्य में भाजपा सरकार है पर विवाद पर बहस जारी है। एनसी देव वर्मा ने कहा कि भाजपा को आदिवासियों के वोटों की बदौलत जीत हासिल हुई। वे सभी एसटी सीटों पर जीते हैं। ऐसे में एसटी सीट से जीते प्रत्याशी को ही मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए।

कांग्रेस

देश में वामपंथ को बचाए रखने के लिए कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टियों के साथ तालमेल बहुत ज़रूरी नहीं है।

केरल में वाम मोर्चा के साथ दूसरे दल भी गठबंधन में हैं। इसे लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट कहत हैं। केरल में कांग्रेस के नेतृत्व में एक मोर्चा है जिसे युनाइटेठ डेमोक्रेटिक फ्रंट कहते हैं। यहां बड़े मोर्च की संभावना ही नहीं है।

बंगाल में वाम मोर्चा हाल ही में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ चुका है। उसमें उसे बड़ा नुकसान हुआ और कांग्रेस दूसरे नंबर की पार्टी बन गई। वहां तृणमूल से गठबंधन की संभावना नहीं है।

त्रिपुरा में कांग्रेस और तृणमूल का पूरा संगटन और नेतृत्व भाजपा में जा चुका था। वहां कोई भी गुंजायश नहीं थी।

आंध्र में राजशेखर रेड्डी के समय में कांग्रेस के साथ रणनीतिक समझदारी बनी थी। वाम मोर्चे ने वहां कांग्रेस के साथ तत्कालीन सरकार के खिलाफ बड़ा आंदोलन चलाया। इसका चुनावी लाभ भी हुआ। जीत के बाद कांग्रेस की सरकार अपने एजेंडे पर चलने लगी। घाटा वाम मोर्चे को हुआ। इसका ज़मीनी संघर्ष कमज़ोर हो गया।

बिहार में वामपंथी दलों को लालू प्रसाद ने खत्म कर दिया। पहले उन्होंने माले फिर माकपा के विधायकों को साथ लिया फिर माकपा पर डोरे डाले और उसकी धार कुंद कर दी। वाम मोर्चे ने सामाजिक न्याय की सियासत के आगे अपने एजंडे को भुला दिया। वहां अब माले और माकपा के थोड़े बहुत अवशेष बचे हैं।

उत्तरप्रदेश में अब छिटपुट वामपंथी हैं। जहां समर्थन विरोध का कोई मतलब नहीं। सामाजिक न्याय के एजंडे पर सक्रिय दलों से वामपंथी न्यूनतम कार्यक्रम आधारित साझेदारी रख सकते हैं।