विषम-काल में पत्रकारिता

समाचार पत्र और पत्रिकाएँ इस कठिन दौर में भी जनता को नवीनतम घटनाओं और सूचनाओं से रू-ब-रू रखे हुए हैं। ‘तहलका’ राजनीतिक प्रचार और निहित स्वार्थ से इतर लोगों को स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता उपलब्ध करवा रही है। वह भी ऐसे समय में, जब कई मामलों में मीडिया ने कायरता दिखायी है और खुद को सच्चाई दबाने के एक माध्यम के रूप में बदल जाने दिया है। ऐसी खबरें थीं कि चीन ने महामारी के प्रकोप की जानकारी को दबाने की कोशिश की और एक वीडियो पत्रकार चेन िकऊशी, जो वुहान में चीन सरकार के प्रकोप से निपटने के बारे में रिपोर्ट करने वाले पहले पत्रकार थे; फरवरी के बाद से लापता हैं। यह एक तथ्य है कि कोविड-19 जैसे संकट के दौरान जब अधिकारी तथ्यों को छिपाने की कोशिश करते हैं, तो समाचार पत्र-पत्रिकाएँ ही सबसे प्रामाणिक और गहराई से जानकारी देने वाला वास्तविक स्रोत होते हैं।

कोरोना वायरस के संक्रमणकाल में जान के जोखिम के बावजूद पत्रकारों ने फील्ड में उतरकर हज़ारों ईमानदार और गरीब श्रमिकों, जो भारतीय अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ हैं; की असंख्य दु:ख झेलते हुए अपने काम के स्थानों से हज़ारों किलोमीटर दूर पैदल या साइकलों पर अपने छोटे बच्चों और महिलाओं के साथ घर जाने की कहानियों को उजागर किया है। इनमें से कइयों ने भूख, थकावट, हादसों या भीषण गर्मी के कारण अपनी ज़िन्दगी रास्ते में ही गँवा दी। नि:संदेह पत्रकार उस महीन रेखा को लाँघने का जोखिम उठाते हैं, जो पत्रकारिता को एक्टिविज्म से अलग करती है। न्यूज रूम ने महामारी की कवरेज को प्राथमिकता दी है। लेकिन मीडिया घरानों को परोसा जा रहा असत्यापित डाटा पत्रकारों के काम को और कठिन बना देता है। दरअसल, कोविड-19 महामारी ने प्रिंट मीडिया के लिए एक नयी चुनौती पेश की है, जो खुद के अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है।

लॉकडाउन और कफ्र्यू से समाचार पत्र-पत्रिकाओं के वितरण में बाधा आयी है, जिससे ये पाठकों तक नहीं पहुँच रहे। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के जीडीपी के 10 फीसदी के बराबर के 20 लाख करोड़ रुपये के प्रोत्साहन पैकेज की घोषणा की, तो मीडिया के लिए भी राहत पैकेज में उनका हस्तक्षेप अपेक्षित था। इंडियन न्यूज पेपर सोसायटी ने सरकार से अखबार उद्योग की मदद के लिए अन्य राहत उपायों के साथ एक मज़बूत प्रोत्साहन पैकेज जारी करने का आग्रह किया भी है। क्योंकि धन के अभाव में मीडिया संस्थान पत्रकारों को छुट्टी पर भेज रहे हैं। उनके वेतन में कटौती कर रहे हैं और कई संस्थान  तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं। वास्तव में यह पत्रकारों के लिए दोहरी मार है। क्योंकि महामारी के दौरान असुविधाजनक रिपोर्टों को दबाने के लिए फर्ज़ी रिपोर्ट के नाम पर राजद्रोह कानून के तहत पत्रकारों की गिरफ्तारी के मामले बढ़े हैं। इसकी शुरुआत पंजाब के होशियारपुर के मॉडल टाउन में घर से पत्रकार भूपिंदर सिंह सज्जन की गिरफ्तारी से हुई; जो 12 अप्रैल को पटियाला में निहंगों की हिंसा को कथित तौर पर सही ठहराने की कोशिश कर रहे थे। इसके एक महीने बाद 12 मई को गुजरात में एक समाचार पोर्टल के संपादक धवल पटेल को आपदा प्रबन्धन अधिनियम की धारा-54 के तहत गिरफ्तार किया गया। पटेल ने एक लेख में लिखा था कि मुख्यमंत्री विजय रूपाणी को महामारी से निपटने में नाकामी के चलते उनके पद से हटा देना चाहिए। अंडमान में एक रिपोर्टर की गिरफ्तारी के बाद कोयंबटूर में भी एक पत्रकार को गिरफ्तार किया गया। जबकि दिल्ली में एक रिपोर्टर को अधिकारियों ने तलब किया, जिसने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया था कि तबलीगी जमात के मुखिया के भाषण की ऑडियो क्लिप में छेड़छाड़ की गयी थी। निश्चित ही पत्रकारों के लिए यह एक मुश्किल काल है।