विवाह और बलात्कार!

विवाहित जोड़े के बीच बिना सहमति सम्भोग को अपराध मानने का न्यायालय में है मामला

नारीवादी लम्बे समय से वैवाहिक बलात्कार (पति पत्नी के बीच) को अपराध की श्रेणी में लाने की माँग करते रहे हैं; क्योंकि उनका मत है कि विवाह आजीवन सहमति नहीं है। दरअसल भारत दुनिया के उन 36 देशों में से एक है, जहाँ वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है। हालाँकि नारीवादी और महिला अधिकार कार्यकर्ता लम्बे समय से इसके लिए आवाज़ उठा रहे हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय अब देश में वैवाहिक बलात्कार के अपराधीकरण और बलात्कार के लिए पतियों को प्रदान की जाने वाली सुरक्षा के ख़िलाफ़ कुछ याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है।

दिल्ली उच्च न्यायालय की दो सदस्यीय पीठ ने पाया कि निर्णय पर पहुँचने से पहले यह नाम मात्र की ही खुली चर्चा कर रहा है। पीठ ने कहा कि एक पति पत्नी को मजबूर नहीं कर सकता। लेकिन न्यायालय इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती कि अगर वह इस अपवाद को ख़ारिज़ कर देती है, तो क्या होता है? पीठ ने कहा कि अगर पति एक बार भी ऐसा करता है, तो उसे 10 साल के लिए जेल जाना होगा। हमें इस मुद्दे पर बहुत गहन विचार की ज़रूरत है। चूँकि पत्नी से बलात्कार अपराध की श्रेणी में नहीं आता, इसलिए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) वैवाहिक बलात्कार पर कोई अलग से आँकड़े नहीं रखता है।

सन् 2000 में विधि आयोग ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने का विरोध करते हुए तर्क दिया था कि यह वैवाहिक सम्बन्धों के साथ अत्यधिक हस्तक्षेप करने जैसा हो सकता है। सन् 2013 में जे.एस. वर्मा समिति ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने की सिफ़ारिश की थी। लेकिन चार साल बाद एक संसदीय स्थायी समिति ने इसका इस आधार पर विरोध किया कि अगर इसे अपराध के तहत लाया गया, तो पूरी परिवार व्यवस्था तनावपूर्ण हो जाएगी।

घरेलू हिंसा एक ऐसा अपराध है, जो बड़े पैमाने पर है। लेकिन इसकी रिपोर्ट बहुत कम होती है। इसलिए विवाह में यौन हिंसा की आपराधिकता को स्वीकार किया जाना चाहिए और विवाह को आजीवन सहमति के रूप में नहीं माना जाना चाहिए। नारीवादियों और महिला अधिकार समूहों की लम्बे समय से वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में लाने की माँग रही है। रूढि़वादी सोच यह है कि शादी के बाद महिला का शरीर उसके पति की सम्पत्ति है। दूसरे शब्दों में एक महिला, चाहे वह इसे पसन्द करे या न करे; विवाह के बाद पति को स्थायी सहमति और सहवास (सम्भोग) की अनुमति देती है। कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने कहा था कि एक पति द्वारा अपनी पत्नी के साथ सम्भोग करना बलात्कार नहीं होगा, भले ही वह पत्नी की सहमति के विरुद्ध हो।

सन् 2018 में कांग्रेस सांसद शशि थरूर द्वारा लोकसभा में एक निजी विधेयक पेश किया गया था, जिसमें वैवाहिक बलात्कार को अन्य अधिकारों के साथ अपराध की श्रेणी में लाने की माँग की गयी थी। हालाँकि निर्वाचित सरकार से इसके लिए समर्थन हासिल करने में विफल रहने के कारण यह मसला ठण्डे बस्ते में चला गया। भारत के बलात्कार क़ानूनों में बदलाव की सिफ़ारिश करते हुए निर्भया बलात्कार मामले के बाद गठित न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा समिति ने सन् 2013 में कहा था कि पति-पत्नी के बीच जबरन यौन सम्बन्ध को भी बलात्कार माना जाना चाहिए और इसमें एक अपराध की तरह दण्ड का प्रावधान होना चाहिए।

हालाँकि सरकार ने इस तर्क को इस आधार पर स्वीकार नहीं किया कि इस तरह के क़दम से विवाह नाम की संस्था नष्ट हो जाएगी। महिलाओं के ख़िलाफ़ भेदभाव के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र समिति ने सन् 2007 और सन् 2014 में भारत से वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के लिए कहा था। इसके ख़िलाफ़ इस्तेमाल किये जा रहे तर्कों में से एक यह है कि यदि यह क़ानून लागू होता है, तो महिलाएँ इसका दुरुपयोग कर सकती हैं और वे अपने पतियों के ख़िलाफ़ बलात्कार के झूठे मामले दर्ज करवा सकती हैं।

न्यायपालिका को भारतीय दण्ड संहिता के तहत वैवाहिक बलात्कार को अपराध के रूप में रखने की तत्काल आवश्यकता है। अब दिल्ली उच्च न्यायालय एनजीओ आरआईटी फाउंडेशन, ऑल इंडिया डेमोके्रटिक वीमेन्स एसोसिएशन और दो अन्य लोगों की जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है, जिन्होंने भारतीय क़ानून में अपवाद को ख़त्म करने की माँग करते हुए कहा है कि विवाहित महिलाओं के साथ उनके पतियों द्वारा यौन उत्पीडऩ उनके ख़िलाफ़ भेदभाव के रूप में रखा जाए। दलील यह है कि भारतीय दण्ड संहिता की धारा-375 एक पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ जबरदस्ती सम्भोग की छूट देती है।

लिहाज़ा बलात्कार के अपराध को उत्पीडऩ के ज़रिये के रूप में देखा जाना चाहिए। आईपीसी की धारा-375 वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी से बाहर करती है और यह अनिवार्य करती है कि एक पुरुष का अपनी पत्नी, जिसकी उम्र 15 वर्ष से कम नहीं है; के साथ सम्भोग बलात्कार नहीं है। न्यायमूर्ति राजीव शकधर और न्यायमूर्ति सी. हरि शंकर की पीठ के समक्ष बहस करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन ने कहा कि न्यायालय महिलाओं की शारीरिक अखण्डता को महत्त्व देते हुए लोगों को यह सन्देश दे कि वैवाहिक साथी की सहमति का सम्मान किया जाना चाहिए। जॉन ने तर्क दिया कि खण्ड-2 में जो लिखा गया है, जो 200 साल पहले हमारे औपनिवेशिक आकाओं का प्रतिपादित सिद्धांत है, जो हम पर थोप दिया गया है। यह न भारतीय पुरुष और न ही भारतीय महिला को दर्शाता है, निश्चित रूप से भारतीय विवाह को तो बिल्कुल भी नहीं। औपनिवेशिक आकाओं ने इसे शुरू किया और हम इस विरासत को ढोये जा रहे हैं।

उन्होंने तर्क दिया कि यह धारा विवाह में पति या पुरुष को प्रभुत्व देती है, जबकि पत्नी द्वारा नहीं कहने की पूरी तरह अवहेलना करते हुए उसे गठबन्धन में एक अधीनस्थ भागीदार बना दिया जाता है। उन्होंने आगे कहा कि यदि न्यायालय इसे असंवैधानिक मान लेती है, तो ऐसा करके वह कोई नयी आपराधिक धारा नहीं बनाएगी। क्योंकि यह पहले से ही मौज़ूद है। हाँ, व्यक्तियों का एक वर्ग, जो वर्तमान में अभियोजन से क़ानूनी प्रतिरक्षा का आनन्द लेता है; वह ज़रूर इसे खो देगा।

उन्होंने तर्क दिया कि विवाह के भीतर सम्भोग या सार्थक वैवाहिक सम्बन्ध की अपेक्षा उचित है और किसी दिये गये मामले में सम्भोग के लिए एकतरफ़ा अपेक्षा भी हो सकती है। जॉन ने कहा कि यदि वह अपेक्षा पूरी नहीं होती है, तो पति या पत्नी को नागरिक उपायों का सहारा लेने का पूरा अधिकार है। हालाँकि जब शादी के रिश्ते में इच्छा जबरदस्ती और बल के आधार पर ज़ोर-जबरदस्ती वाली गतिविधि में बदलकर ग़ैर-सहमति के कारण नुक़सान या चोट पहुँचाती है, तो निश्चित ही लैंगिक गतिविधि को अपराध के दायरे में लाया जाना चाहिए।

जॉन ने इसके परिणामों का ज़िक्र करते हुए पूछा कि क्या न्यायालय एक पति, जो एक यौन रोग से पीडि़त है; को ऐसा दावा करने की अनुमति देगी और ऐसे मामले में भी अनुमति देगी, जहाँ एक महिला बीमार है और यौन सम्बन्ध उस पर हानिकारक प्रभाव डाल सकता है?

पीठ के समक्ष बहस करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता राजशेखर राव ने तर्क दिया कि बलात्कारी रिश्ते के बावजूद बलात्कारी रहता है। जैसा कि उन्होंने वर्मा समिति की रिपोर्ट में पढ़ा था, जिसमें वैवाहिक बलात्कार को अपराध के दायरे में लाने की सिफ़ारिश की गयी थी। इस प्रकार वैवाहिक बलात्कार एक क़ानूनी कल्पना पैदा करता है, भले ही इसमें बलात्कार के तहत आने वाली तमाम आपराधिक गतिविधि वाली गतिविधि हुई हों। क़ानून इसे इसलिए बलात्कार नहीं मानता है; क्योंकि एक पक्ष विवाहित हैं और महिला की आयु भी 15 वर्ष से ऊपर है।

दिल्ली के एक वकील और उच्च न्यायालय के समक्ष एक याचिका का मसौदा तैयार करने वाले गौतम भाटिया ने कहा कि अगर शादी की औपचारिकता से पाँच मिनट पहले यौन हमला होता है, तो यह बलात्कार है। लेकिन पाँच मिनट बाद वही गतिविधि ऐसी (बलात्कार) नहीं है। निर्विवाद तथ्य यह है कि वैवाहिक बलात्कार का अर्थ है कि इसमें सवाल उठा सकने वाली सहमति अप्रासंगिक है। केवल इसी कारण से न्यायालय, जिसका कार्य सभी के समान व्यवहार और ग़ैर-भेदभाव के अधिकार को बनाये रखना और उसकी पुष्टि करना है; को इसे रद्द कर देना चाहिए।