विपक्ष के बौनेपन ने बढ़ाया सत्तापक्ष का क़द

शिवेंद्र राणा

पिछले दिनों भाजपा कार्यकारिणी द्वारा स्वीकृत प्रस्ताव द्वारा जे.पी. नड्डा की अध्यक्षता को 2024 तक विस्तारित करने की पुष्टि करते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने अगले आम चुनावों में पुन: भाजपा के वापस सत्ता में आने की घोषणा की। इसमें कुछ विशेष नहीं था। क्योंकि तमाम राजनीतिक विश्लेषक चाहें दक्षिणपंथी हो या वामपंथ के समर्थक, यह मानकर चल रहे हैं कि वर्ष 2024 के आम चुनाव में सीटों के मामूली फेरबदल के साथ एनडीए सरकार के पुन: सत्ता में लौटने के आसार हैं।

नौ वर्ष से सत्तारूढ़ दल पुन: आम चुनावों के लेकर आश्वस्त दिख रहा है। उसके आत्मविश्वास की क्या वजह है? क्यों उसे पदस्थता विरोध (एंटी इंकम्बेंसी) का भय नहीं है? असल में इसकी मुख्य वजह मृतप्राय विपक्ष है। यह भारतीय राजनीति का ऐसा दौर है, जब विपक्ष होकर भी नहीं है। अर्थात् विपक्ष रीढ़-विहीन, असहाय-सा है, जिसमें सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध संघर्ष का नैतिक बल शेष नहीं रहा है। क्या इस जम्हूरियत में विपक्ष के पास सत्ता के विरोध का कोई आधार ही नहीं बचा हैं? इसकी भी समीक्षा कर लेनी चाहिए।

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में पिछले 14 वर्षों में ग़रीबों की संख्या में बड़ी गिरावट आयी है। रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 15 वर्षों में 41.5 करोड़ (415 मिलियन) लोग ग़रीबी के चंगुल से बाहर निकले हैं। संयुक्त राष्ट्र इसे ऐतिहासिक बदलाव कह रहा है। किन्तु तब भी देश में आज 27 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा से नीचे रहते हैं। दिसंबर, 2022 में ग़रीबों की संख्या बढक़र 8.30 फ़ीसदी पर पहुँच गयी। यह पिछले 16 महीनों में सबसे ज़्यादा रही थी। भारत की ख़ुदरा महँगाई दर अप्रैल, 2022 में पिछले आठ साल के शीर्ष पर पहुँच गयी थी। सन् 2014 की एनडीए सरकार के 66 सदस्यीय मंत्रिमंडल में एक समय क़रीब एक-तिहाई मंत्रियों पर आपराधिक मामले दर्ज थे। इनमें कम-से-कम पाँच मंत्रियों के ख़िलाफ़ रेप और साम्प्रदायिक हिंसा जैसे गम्भीर मामले अदालत में चल रहे थे। तब से स्थिति बहुत नहीं बदली आज भी सबसे ज़्यादा दाग़ी, अपराधी सत्ताधारी दल के संरक्षण में हैं।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स की रिपोर्ट के अनुसार, 2,495 उम्मीदवारों के हलफ़नामों अवलोकन से पता चलता है कि कुल 363 सांसदों और विधायकों ने अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले घोषित किये हैं। इन 363 में 83 सदस्यों (सांसद और विधायक दोनों) के साथ भाजपा सूची में शीर्ष राजनीतिक दल है, जिनके सदस्य ने उनके ख़िलाफ़ आपराधिक आरोप घोषित किये हैं। भाजपा के चार केंद्रीय मंत्रियों पर अपहरण, डकैती और मौत या गम्भीर चोट पहुँचाने के प्रयास जैसे संगीन मामले दर्ज हैं।

दूसरी ओर, आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष भी कमज़ोर पड़ा है। याद रहे, कश्मीर में धर्म आधारित आतंकवाद एवं कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और पलायन का मुद्दा उठाकर भाजपा ने देश भर से समर्थन बटोरा। अब भाजपा ही आतंकवाद एवं कश्मीरी हिन्दुओं की हत्याओं को धार्मिक नज़रिये से न देखने की सलाह दे रही है। इसके दो ही अर्थ हैं- पहला, या तो आप तब झूठ बोल रहे थे या अब झूठ बोल रहे हैं। दूसरा, आप अनैतिक-सिद्धांतविहीन दल हैं, जो सत्ता के लिए कुछ भी कह और कर सकते हैं। सार्वजनिक जीवन में कांग्रेस नेताओं के जिस अहंकारपूर्ण रवैये एवं उसके शीर्ष नेतृत्व के स्वेच्छाचार की सदैव आलोचना होती रही है। आज यही विकृति भाजपा नेतृत्व में है, बल्कि कहीं अधिक असभ्य रूप में है।

साथ ही आज राज्य से लेकर केंद्र तक भाजपा में ऐसे नेताओं की बहुलता है, जो अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण सरकार से लेकर पार्टी पदों पर जमे हुए हैं। ऐसे और भी गम्भीर मसले हैं, जिनके आधार पर विपक्ष सरकार के विरुद्ध गभीर विमर्श और आन्दोलन पैदा कर सकता था। जिन मुद्दों के सहारे आज के विपक्ष और बीते कल के सत्ता पक्ष की कटु आलोचना करके भाजपा ने देश में अपना राजनीतिक रसूख़ पैदा किया, वे सारे दुर्गुण आज ख़ुद उसके अंदर मौज़ूद हैं। फिर भी विपक्ष अगर जनता के समक्ष इसे आन्दोलित रूप में उपस्थित नहीं कर पा रहा है, तो यह उसकी कमज़ोरी है।

वास्तव में विपक्ष की अपनी दुनिया है। उसे सरकार में बढ़ती नौकरशाही की दादागीरी के विरोध से कोई मतलब नहीं। विपक्ष विरोध करेगा, तो हर घर झण्डा अभियान का। वह सेना के अभियानों के दावों पर सवाल उठाएगा। भारतीय संस्कृतिक-आध्यात्मिक विरासत को अपमानित करेगा। उसे यह तक नहीं पता की सरकार का विरोध करते-करते, वह राष्ट्रविरोध की सीमा तक पहुँच जाता है। अगर मदरसों के सर्वे से उनमें व्याप्त अनियमितता दूर की जा सके और आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा मिल सके, तो इसमें किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए? आज बिलकिस बानो मामले में धार्मिक आधार पर पक्ष बन जाने के कारण ही यही है कि विपक्ष को गोधरा के पीडि़तों के परिवारों के दर्द याद नहीं है। ऐसी एक तरफ़ा तक़रीरें समाज में विखंडन पैदा करेंगी और सत्ताधारी दल को लाभ भी पहुँचाएँगी।

विपक्ष जनता से आन्दोलित होने की अपील कर रहा है; लेकिन ख़ुद के स्वार्थानुकूल। जो कांग्रेस गाँधी परिवार के विरुद्ध ईडी की जाँच रुकवाने के लिए सडक़ों पर उतर आया, वह बच्चों द्वारा अग्निपथ योजना के विरोध के समय मात्र ट्वीटर और न्यूज चैनलों पर बयानबाज़ी कर रहा था। असल समस्या ये हैं कि विकास की दौड़ में भारतीय राजनीति विलासी हो गयी है। एक भी दिन विपक्षी ख़ेमे से प्रधानमंत्री पद की महत्त्वकांक्षा पाले बैठा कोई नेता बेरोज़गारी, सरकारी रिक्तियों पर कुंडली मारे बैठी केंद्र एवं राज्य सरकारों, प्रशासनिक अधिकारियों की बेलगाम कार्यशैली, कमीशनख़ोरी जैसे मुद्दों को लेकर सडक़ पर उतरा? कोई धरना-प्रदर्शन या अनशन किया? फिर जनता आपके साथ कैसे खड़ी हो?

बस सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों के पास धर्म-जाति का झुनझुना है। दोनों चाहते हैं कि बस इसे बजाएँ और जनता इसमें उलझी रहे। विपक्ष ने लोकतंत्र के संघर्ष को निजी लड़ाई में तब्दील कर दिया है। यही वजह है कि जनता भी विपक्ष के समर्थन में नहीं आ रही। अगर भ्रष्टाचार के आरोप लगे, तो विपक्ष को जाँच का निर्भीक होकर सामना करना चाहिए। लेकिन इनकी बेचैनी जनता के अंदर संदेह उत्पन्न करती है। हालाँकि सरकार निरंतर शुचिता स्थापित करने का दावा करती रही है और ऐसा करती हुई दिखना भी चाहती है। इसीलिए ईडी और सीबीआई के छापे तथा धर-पकड़ अभियान जारी हैं। लगातार नेताओं एवं नौकरशाहों के भ्रष्टाचारों की जाँच हो रही है।

एक तरफ़ मोदी-शाह जैसे ज़मीनी राजनीति एवं सांगठनिक अनुभव में तपे-परखे लोग हैं और दूसरी तरफ़ राहुल गाँधी से लेकर अखिलेश यादव तक की वंशवाद-परिवारवाद से उपजे नेताओं की फ़ोज है। चूँकि इन्हें बिना संघर्ष के, बिना ज़मीनी हक़ीक़त के पार्टी की सत्ता मिली है। अपरिपक्वता से भरे, पीडि़त ये नेता कब क्या बोल देंगे? किसके बारे में बयान दे देंगे? ये बता पाना बड़ा मुश्किल है। इससे भाजपा नेताओं को उपहास करने और गम्भीर मुद्दों को हल्के स्तर की परिचर्चा में तब्दील कर देने का अवसर मिल जाता है। और उन्हें यह ग़लतफ़हमी हों जाती है कि इसी से जनता सतही बातों में उलझकर रह जाएगी। परन्तु अब इससे काम चलने वाला नहीं है।

राहुल गाँधी ने भारत जोड़ो यात्रा पूरी कर ली। भाजपा विरोधी राजनीतिक-सामाजिक एवं मीडिया वर्ग ने इसे $खासी तरजीह दी। किन्तु यह यात्रा भी धार्मिक एकता, सद्भावना, भाईचारे के वही पुराने मुद्दे पर आधारित थी। केवल आज़ादी के संघर्ष में कांग्रेस की भागीदारी, नानाजी-दादीजी ने देश को आज़ाद कराया और उसके लिए जान दी। ‘हमारे पिताजी लोहिया के उत्तराधिकारी थे;’ और असली समाजवादी हमारी ही पार्टी है। ‘हमारे पिताजी अगड़ा के ख़िलाफ़ पिछड़ा-दलित का लड़ाई लड़े और सामाजिक न्याय के मसीहा थे।’ इत्यादि रटी हुई बातें; बस। विपक्ष के कर्णधारों को ये समझना ही होगा कि पुराने प्रतीकों-नारों से आधुनिक लोकतंत्र का संघर्ष नहीं किया जा सकता।

ऊपर से विपक्ष में उम्मीदों को पलीता लगाने वाले नेताओं की कमी नहीं है। कभी रामचरित मानस का अपमान, तो कभी जातिवाद के आश्रय से 21वीं सदी के लोकतंत्र के सिरमौर बनने का ख़्वाब मूर्खतापूर्ण है। विपक्ष अपने मनुवाद-सामंतवाद के पुरातन नारे से निकल ही नहीं पा रहा है। और ऐसी तक़रीरें स्वयंभू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की उन्नायक सत्तारूढ़ दल के समर्थन में और इज़ाफ़ा करती हैं तथा उसकी चुनावी रणनीति के भी अनुकूल है। सत्ता में टिकने की इच्छुक कोई भी सरकार राष्ट्रवाद या धर्म के आधार पर लामबंदी करने का प्रयास करेगी ही करेगी। विपक्ष को चाहिए कि वह सत्तापक्ष इस लामबंदी को ध्वस्त करने का प्रयास करे। लेकिन विपक्षी ख़ेमों को अपना घर बचाने के लाले पड़े हैं। वे अपने आतंरिक संकट से ही नहीं उबर पा रहे हैं, तो सत्तारूढ़ दल को क्या चुनौती देंगे? अभी सपा में चाचा-भतीजे की लड़ाई थमी नहीं कि उधर जेडीयू में कुशवाहा ने नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया। मायावती ने कांशीराम के दौर के अपने साथियों को निपटाते-निपटाते पार्टी को ही निपटाने के कगार पर पहुँचा दिया है। शिवसेना अपना बड़ा काडर गँवा चुकी है। कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व की नाकामी एवं लगातार अपने सिपहसालारों का पलायन के कारण अस्तित्व के संकट से जूझ रही है।

ऊपर से विपक्षी गोलबंदी के नेतृत्व का संकट ही सुलझ नहीं पा रहा। रोज़ एक नया दावेदार सामने आ जाता है। और यह लड़ाई तब तक नहीं रुकने वाली, जब तक ‘किसकी नाक ज़्यादा ऊँची’ और ‘किसकी कॉलर ज़्यादा सफ़ेद’ के विवाद का पूर्ण समाधान नहीं होगा। समझने की आवश्यकता है कि विपक्ष को अगर जीवंत जनतंत्र का प्रतिभागी बनना है, तो उसे सरकार के आगे बड़ी लकीर खीचनी पड़ेगी। वर्तमान सत्तारूढ़ दल का एकछत्र प्रभाव-प्रसार उसकी विजय से अधिक विपक्ष की पराजय है। और उससे बड़ी बात यह है कि ऐसे नैतिकरूप से पतित विपक्ष के कारण सरकार से नाराज मतदाता भी विकल्पहीन हैं। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए भी पुर्नमूल्यांकन का समय है। अब उसे अपने अनुत्पादकता के विषय में गम्भीर विवेचना करनी चाहिए।

नोबेल एवं पुलित्जर पुरस्कार विजेता अमेरिकी लेखिका टोनी मॉरिसन लिखती हैं- ‘अगर तुम सि$र्फ तभी ऊँचे क़द के लगते हो, क्योंकि कोई अपने घुटनों के बल खड़ा है, तो तुम्हारी समस्या गम्भीर है।’ वर्तमान सत्ताधारी दल को अपने वर्तमान एकाधिकार के युग में अपनी श्रेष्ठता का भान है, किन्तु यह उसका अल्पकालिक भ्रम है। जिस दिन भी जनता को अपनी समस्याओं के केंद्र से कोई सशक्त ईमानदार आन्दोलन उभरता दिखेगा और वो साथ खड़ी हो जाएगी, तब सत्तारूढ़ दल का अहंकार भी अतीत का हिस्सा बन जाएगा।

(लेखक राजनीति व इतिहास के जानकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)