वामपंथ पर संकट के बादल

पिछले एक दशक से देश में वामपंथ का सूरज पश्चिम की ओर जाता दिखाई दे रहा है। जब से हरकिशन सिंह सुरजीत, ज्योति बसु और एबी वर्दन जैसे लोग पटल से हटे हैं, तभी से न तो माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और न ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) को कोई संभाल पाया है। वैसे भी देश में कम्युनिस्ट सही वक्त पर ग़लत फैसले लेने के लिए मशहूर हैं। 1996 में ज्योतिबसु को देश का प्रधानमंत्री न बनने देना एक बड़ी ऐतिहासिक भूल थी इतना ही नहीं इस बार सीताराम येचुरी को राज्यसभा में न जाने देना एक और भूल साबित हुई। इसके अलावा 1964 में वैचारिक मतभेद होने के कारण पार्टी का दो फाड़ होना और फिर आज 2019 तक इनका आपस में विलय करने के बारे में न सोचना एक और भूल है। इन दो दलों के अतिरिक्त कम से कम 20 वाम दल ऐसे हंै जो अपने आप को माक्र्स के दर्शन से ओतप्रोत मानते हैं। नक्सलवादी या माओवादी इस वर्ग में आते हैं। ये कभी हथियारबंद क्रांति की बात करते हैं तो कभी लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा बनना चाहते हैं। उन्हें खुद पता नहीं चलता कि वे चाहते क्या हैं।

पश्चिम बंगाल ऐतिहासिक रूप से कम्युनिस्ट विचारधारा का गढ़ रहा है। 1977 से 2011 तक बंगाल पर वाम मोर्चा का शासन रहा लेकिन अब लगता है कि इस दौरान माकपा अपने ‘कैडर’ को पूंजीवादी व्यवस्था की कमज़ोरियों से बचा नहीं पाई। ज़मीन सुधार वाम मोर्चे का सबसे बडा़ कदम था। इसके अलावा पंचायतीराज को मज़बूत करके मोर्चे ने देश के अंतिम आदमी तक सत्ता की बागड़ोर पहुंचा दी। इसके साथ ही ज्योति बसु जैसा व्यक्तित्व और प्रमोद दास गुप्त जैसा ‘लौह पुरुष’ सरकार और पार्टी को संभालने में लगा था। ज्योतिर्मय बसुु ने पार्टी को नई ऊँचाइयों तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान किया इन दोनों के बीच पार्टी ने कभी भी इस बात पर गौर नहीं किया कि उसके कार्यकर्ता किस ओर जा रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि गांवों में ऐसे लोग वामपंथी प्रतिनिधि बन गए जिनका वर्ग चरित्र उन ग्राम वासियों से कहीं अलग था जिनके साथ वे काम कर रहे थे। इसके अलावा ग्रामीण स्तर से जो जानकारी राज्य सरकार और पार्टी को भेजी जा रही थी वह ग़लत थी। 2009 के पंचायत चुनाव में यह बात काफी हर साबित हो गई थी कि तृणमूल कांग्रेस अपने पैर जमा रही है, लेकिन माकपा के नेतृत्व ने इस पर जऱा भी ध्यान नहीं दिया। नतीजा हुआ कि 2011 में सत्ता ममता बनर्जी के हाथ चली गई। उसके बाद लोगों का आक्रोश माकपा के खिलाफ उभरा। पार्टी के दफ्तर जला दिए गए। उसके कार्यकर्ताओं को मारा पीटा गया कुछ की हत्या भी कर दी गई। चुनाव में हार-जीत होती रहती है लेकिन 35 साल से सत्ता में रही पार्टी 10 साल में पूरी तरह बिखर जाए ऐसा कभी नहीं देखा।

बंगाल में आज स्थिति यह है कि ममता के अत्याचारों से बचने के लिए वामपंथी ‘कैडर’ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जैसी दक्षिणपंथी पार्टी की गोद में जा बैठा। माकपा इसे अपनी रणनीति का हिस्सा बता रही है। उन्हें लगता है कि ममता को हारना भाजपा के हारने से ज़्यादा मुश्किल है। इसका नतीजा निश्चित तौर पर वामपंथ के पक्ष में तो कदापि नहीं होगा।

बात सिर्फ बंगाल की नहीं, इसके अलावा बिहार, पंजाब, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु जैसे प्रदेशों में भी कम्युनिस्ट पार्टियां खत्म सी हो गई हैं। पंजाब जैसा जुझारू प्रांत जहां 1972 में कम्युनिस्ट पार्टियों के 11 विधायक  भी रहे हैं। इनमें से 10 भाकपा के और एक माकपा का था।1977 में माकपा ने आठ और भाकपा ने सात सीटें जीतीं। इस प्रकार वाम पंथ के 15 विधायक थे। सत्यपाल डांग ने चौथी बार अपनी सीट जीती। 1980 में भाकपा ने नौ और माकपा ने पांच सीटों पर जीत हासिल की।

पंजाब में 1985 में चुनाव राजीव-लौंगोवाल समझौते के बाद हुए और इसका खामियाजा  कम्युनिस्ट पार्टियों को भोगना पड़ा। भाकपा केवल एक ही सीट जीत सकी। 1992 में खालिस्तान आंदोलन के दौरान अकालियों ने चुनाव का बहिष्कार किया और कांग्रेस को बिना विपक्ष के चुनाव लडऩे का मौका मिल गया। आतंकवादियों के निशाने पर सबसे ज़्यादा कम्युनिस्ट नेता ही रहे। पर फिर भी इन चुनावों में भाकपा को चार  और माकपा को एक सीट मिल गई। इसमें सबसे बढिय़ा प्रदर्शन बहुजन समाज पार्टी का रहा।

वामपंथ के लिए जातिवादी राजनीति का हावी होना और शहरों में ट्रेड यूनियन आंदोलन का कमज़ोर होना काफी हानिकारक रहा। इसी कारण 1990 के बाद पूरे देश में वामपंथ का आधार सिकुड़ा। बिहार में भी जहां के कुछ इलाकों को कम्युनिस्टों का घर कहते थे, वहां जाति और सांप्रदायिकता  ने उन्हें कमजोर कर दिया। आज वहां कम्युनिस्टों की कोई पहचान नहीं। कमोवेश हर राज्य की ऐसी ही हालत है। समय बदल गया है प्रचार माध्यम बदल गए हैं। युवाओं की अपेक्षाएं और आकांक्षाएं बदल गई हैं। मंहगाई का तीव्र गति से बढऩा, किसानों की आत्महत्याएं और बेरोजग़ारी का चरम पर पहुंचने के बावजूद वामपंथी पार्टियां इसे लोगों की लड़ाई बना सकने में असमर्थ रही हैं। लोकतंत्र में चुनाव जीतना भी उतना ही ज़रूरी है, जितना कि आंदोलन को चलाना। वाम दल आज भी प्रदर्शनों के लिए 10 से 15 लाख तक कि अनुशासित भीड़ इक_ी करने में सक्षम हैं पर उसे वोट में बदल नहीं सकते। यही कारण है कि राजस्थान और महाराष्ट्र में बड़े-बड़े किसान आंदोलन चलाने के बाद भी वहां से इनका एक भी प्रतिनिधि लोकसभा में नहीं पहुंच सका।

बंगाल के नंदीग्राम में किसानों पर गोली चलना, उनकी ज़मीनों पर जब्री कब्जे करना किसी भी हालत में कम्युनिस्ट विचारधारा के अनुरूप नहंी था। आज देश के हालत को देखते हुए वामपंथ का जीवित, रहना बहुत ज़रूरी है। कम्युनिस्ट नेताओं को नए सिरे से हर चीज़ पर विचार कर अगले कदम उठाने चाहिए।