वह शाल

मैं जब अपने सूटकेस संभाल रही थी तभी शम्सशाह घुसा कमरें मेें। उसने धम्म से टोकरा रखा। ‘मैं अपने बच्चों के लिए आम लाया था। आप इसे साथ ले जाएं।’

मैं कुछ कहती इसके पहले ही वह बाहरी बरामदे की ओर बढ़ गया बड़े दरवाज़ों की ओर। टोकरा उसने यहीं छोड़ दिया था। जिस पर एक पता लिखा था। मेरे पास अब कोई और चारा नहीं था सिवा इसके कि मैं आम लेकर ही जाऊं।

जब विमान उड़ा तो मैं बैठी हुई यही सोच रही थी कि : क्यों, इतने लोग घाटी की ओर जा रहे हैं। जब वहां कफ्र्यू लगा होता है और अनिश्चितता रहती है। गिरफ्तारियां और बंदी बनाना तो रोजमर्रा का काम ही है।

हालांकि ज्य़ादातर यात्री कश्मीरी ही हैं। लेकिन कई लोग वर्दी में भी हैं। ‘बाहरी’ लोगों और ‘भीतरी’ लोगों के साथ खड़े दिखते। एक अजीब सा आदमी मेरी बगल की सीट पर बैठा था। वैसे ही बेचैन तरीके से देखता हुआ। बहुत ही गंदे तरीके से खाता, किसी तरह गटकता हुआ। मानो, कई दिनों से उसने खाना खाया नहीं हो।

हल्की सा भी उतार चढ़ाव होता तो कंधे से लटका उसका बैग सरक जाता। पेंट के साथ पेंट ब्रश, मुड़ी तुड़ी ट्यूब, हाथ की बनी कागज

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ट्यूब और ब्रश को उसने लगभग फेंक दिया। इतने पर भी नहीं, तो उसने पेंट की हुई पट्टियां फेंक दी और सीट पर खुद को निढ़ाल कर सीट बेल्ट खोलनी और बांधनी शुरू की।

बड़ी ही बेसब्री से वह इधर-उधर देखता।

श्रीनगर का अभी-अभी बेहतर बना हवाई अड्डा, सुरक्षा के लिहाज से मौकों पर तैनात सुरक्षा सैनिक। पुतलों की तरह भावहीन।

*****

एक इंस्पेक्टर के चेहरे पर भाव उभरते हैं। वह आम की टोकरी की ओर गर्दन घुमाता है। चौसा! ‘ये आम यहां नहीं मिलते। न जाने कितनी दुकानों में तलाशा लेकिन ये मिले नहीं। … चौसा! टोकरा उठाते हुए, खुद जांचते हुए कहा, ‘वाह, वाह ये कहलाते हैं चौसा!’

साथ ही उसने मुझे ‘तलाशी कक्ष’  ओर चलने के लिए उसने इशारा किया। एक हमले सा लगभग अनचाहा, खींच-तान से भरपूर।

इसके बाद बाहर टोकरी पर चिपके शम्सशाह के घर के पते को टैक्सी ड्राइवर को दिखाया बताया।

‘यह है पता… इस जगह जाना है।’

‘यह तो बहुत दूर मीलों पार है। चरार से भी आगे।’

‘यहां से कितनी दूर होगा?’

‘चालीस से भी ज्य़ादा।’

‘क्या’

‘खासा दूर है?’

‘अच्छा’

‘फिर क्या चलें अब?’

‘ये आम तो तब तक नहीं रहेंगे।’

‘आठ सौ लगेंगे। सड़कें टूटी हुई हैं बाइपास तक। बहुत कठिन है ड्राइव करना, कोई और राह भी नहीं।’

‘क्या शाम होने तक पहुंच जाएंगे?’

‘और भी पहले बशर्ते वह सड़के…. अपने तुड़े मुड़े चश्मे को दुरूस्त करते हुए और चिट को ठीक करते हुए उसने कहा। फिर उसने दूसरा वाक्य शुरू कर दिया, मानो वह भावावेश में फूट पडऩे को हो या फिर मेरे तनाव को सहला रहा हो।’

‘ये सड़कें, होती थीं महज खच्चरों के लिए।’

एमएलए जनाब को न तो बिजली, पानी के लिए वक्त है और न हमारी जान के लिए।  कुछ देर रूकता है पर ज्य़ादा देर नहीं। देखिए, वहां उस झाड़ी में जवान क्या कर रहे हैं। उसे उजाड़ रहे हैं। देखिए, सिर्फ देखिए। अचानक रूक जाते हैं सभी। फिर शब्दों का गुबार, ‘दूसरा करावें का दूसरा दस्ता गुजर रहा है। कोई ओवरटेकिंग नहीं। निहायत ही खतरनाक। बेवजह मारे जो सकते हैं। मैं और आप भी। इन आंखों ने बहुत कुछ देखा है।  यहां खतरा है। इस जहन्नुम में। आप यहीं रहिए। आप सब जान जाएंगी। कितने मारे गए। कई सौ तो मुंह अंधेरे अनजान कब्रों में दफना दिए गए। और यह हुकूमत सिर्फ झूठ पर झूठ बोलती है।

फिर चलते है। लंबी सड़क पर। गैर उपजाऊ टुकड़े से होते हुए एक नाले से हम गुज़रते हैं। मुझे वह मुट्ठी भर जंगली घास देता है। साथ हैं स्फटिक और रंगीन पत्थर। यह है सुंदरता। ‘दुनिया में और कही नहीं मिलेगी यह नेमत। आप इनका आकार और रंगत देखिए। देखिए इस नीले को जिसकी हरियाली आभा है…. इन्हें रख लीजिए।’

सोचती रही इन्हें कहां सजाऊंगी उस टीक टेबल पर या आलमरी पर। मेरे हाथ उन्हेें अब देर तक थामे नहीं रह पाते। वे स्फटिक और घास की पंत्तियां गिरने लगती हैं। ‘अरे, यह तो वही आदमी है जो मेरी बगल में बैठा था विमान में।’ कुबड़ा सा वहां बैठा था बेहद बेचैन भी। उसी विमान में जिसमें मैं थी। उसे देख कर, खुद से फुसफुसाती हुई। ड्राइवर से नहीं कहा, वह… वह आदमी वहां, यह वही है जो…

‘आप जानती हैं?’

‘मेरे साथ ही बैठा था विमान में’

‘पागल है। वह चित्र बनाता हैं और बनाता ही रहता है कोई ब्रिकी नहीं , कहीं ले जाना नहीं।’

‘लेकिन वह मेरे साथ विमान में था?’

‘मुख्यमंत्री उसे आपकी दिल्ली में ले जाती हैं। कोई फार्म हाउस वहां वह पेंट करता है। यहां अखबारों में उसकी बड़ी खबर छपी थी। मैंने श्रीनगर साइट में इसे पढ़ा।’

‘क्या वह बेचता है।’

‘नहीं कोई बेचना नहीं। वह जो बनाता है उससे दूर होना ही नहीं चाहता।’

‘फिर मुख्यमंत्री के यहां कैसे?’

‘सरकारी जोर-जबर्दस्ती से जो न करा दें। उनकी हुकूमत। उनका रूतबा। कौन नहीं डरता पुलिसवालों से।

‘हम भी तो उनके ताबे में रहते हैं।’

ड्राइवर अपनी धुन में कमेंटरी दिए जा रहा था।

जिसमें उस आदमी को पागलपन पर खासा फोकस था। तभी हम जोडऩे वाले लकड़ी के पुल पर पहुंचे। अपनी मोटी गर्दन और पूरी भाव-भंगिमा चेहरे पर लिए हुए वह मुड़ा और उसने देखा। ‘कुछ लोग बताते हैं कि उसने अपने स्टूडियो को खुले वार्ड में पेंट कर रहा था तभी पुलिसवालों ने उसे धर-दबोचा। उसके बाद से वह थोड़ा पगला सा गया… वह लोगों पर हमले करने लगा। उस पर आरोप हैं। यह नहीं पता कि वे जाली हैं या असली। अचानक वे सारे आरोप खारिज हो गए। उसने कुछ मंत्रियों के घरों में पेटिंग की। लेकिन उसका बेटा लापता है… चला गया शायद।

‘उसका बेटा कहीं गया है या गुमशुदा है।’

‘गायब है। सरकारी रजिस्टरों में कहीं फेंक दिया गया है।’

‘गुमशुदा?’

‘और क्या संभव है? यह तकलीफदेह बात उसे पागल सा बनाए हुए है। वह पेंट करता है और बस पेंट ही करता है। फिर सब फाड़ देता है।’

‘उसका बेटा क्या फिर मिला?’

‘यहां कई गुमशुदा हैं। गायब है?’

‘उसका बेटा भी क्या पेंटर था?’

‘नहीं पता कि वह पेंटर था कि प्लंबर। लेकिन वह थोड़ा विकलांग था। खुदा जाने क्या बीमारी थी। वह ठीक से चल नहीं पाता था। उसे एक बार ,,,,,, करते देखा था। फिर तो वह लापता ही हो गया।’

‘उसका बेटा बड़ा था या बच्चा?’

‘यह सब दो साल पहले हुआ था। वह किशोर उम्र में था। आपने देखा होगा। यह आदमी भी अपनी उम्र से कहीं ज्य़ादा का जान पड़ता है। बहुत सारे लोग उसे मुर्ख  बनाते रहते हैं। उसे समझाते हैं कि वे उसके बच्चे की तलाश कर रहे हैं। उससे वे कुछ भी ले लेते हैं, उसका काम चुरा लेते हैं।’

‘फिर’

‘फिर क्या। कुछ भी नहीं।’

काठ के पुल से गाड़ी चला कर निकलते हुए चौड़ी जगह पर एक किनारे वह आदमी उकडूं होकर बैठा था। मुड़, कर फुसफुसाहट से तेज ड्राइवर की आवाज सुनी, ‘यह मैडम आम के साथ आगे जा रही है।’

वह अचानक खड़ा हो गया। उसने मुझे देखा कुछ उसी तरह जैसे विमान में देखा था।

‘यह तो वही महिला हैं… वही।’

‘हां, वे तुम्हारे साथ ही हवाई जहाज़ में थी। वे अब मेरी टैक्सी में हैं… मैं उन्हें ले जा रहा हूं। और साथ में आम।

‘उन्हें बताओ, वे सारे आम गायब हो चुके हैं। उस टोकरी में नहीं हैं। या जो भी तुम उस बड़े बाक्स को कहते हो के्रट या बड़ा डिब्बा।’

‘क्या’

‘उसे बाहर निकालो। बॉक्स को खोल कर देखो, पूरा खाली होगा।’

‘क्या! आप कह क्या रहे हैं?’

‘कुछ भी नहीं है उस बाक्स में। मैं दिखाता हूं। वह टोकरी खींचता है। टोकरी को खोलता है। देखो, टोकरी तो बड़ी है लेकिन अंदर कुछ नहीं है। अपना हाथ नचाते हुए वह मुझ पर आरोप लगाते हुए कहता है, ‘आपने सिक्यूरिटी वालों को आम खिला दिए। या उन्होंने आपसे सारे आम झटक लिए। या आपने उन्हें चोरी करने का मौका दिया। आपने यह शाल उन पर क्यों नहीं फेंक दी। यह शाल जो आप पर है, वह आपकी नहीं है। मेरे बेटे की शाल आप पर है। यह वही शाल है।

‘मेरे कंधों से सरकती शाल घास के ढेर पर गिर जाती है।’

मेरे हाथ कांपने लगाते हैं। नहीं, बढ़ते भी नहीं। उसकी ओर।

स्तब्ध माहौल। ड्राइवर गुस्से में बोलता है। धमकी देता है कि मैं सिपाहियों को बुलाता हूं। लेकिन वह कुबड़ा पेंटर, टूटी हुई टोकरी एक किनारे रखता है और कहता है कोई पुलिस यहां नहीं है। क्या तुम चाहते हो कि वे आदमी इस औरत का बलात्कार करें। आम तो उनके गले से पेट में गए और अब तुम इस औरत को उनके कमरों में ठूंसना चाहते हो? ‘तुम्हारा बेटा उसके साथ था!’

मेरी तरफ देखते हुए, शाल की तरफ देखते हुए, ‘ऐसी ही थी वह शाल। अशरफ ने खुद ओढ़ रखी थी। इस शाल में उसकी सुगंध है। उसके पसीने की सुगंध है। मेरे बेटे की गंध…।’ वह सुबकने लगा। ‘उसकी शाल, उसी करघे की बनी है। वही एम्ब्रायडरी, वे ही धागे, वही रंग। तुमने मेरे अशरफ को निगल लिया। वह फिर आएगा और उसका क्या रूप रंग होगा। जो चला गया वह चला गया, वह गया।

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किसी तरह नई दिल्ली की फ्लाइट बुक कराई। घर की ओर जाते हुए एक गैरेज के पास नौजवान लड़कों को बैठे देखा। सभी एक कतार मेें थे। उन्हीं में पोलियोग्रस्त एक बच्चा भी था। उपेक्षित सा दिख रहा था। उकडूं बैठा उसका भी बैठने का तरीका वही था। मैं उसके दुखी चेहरे को देखती रही।

उसकी कूबड़ थोड़ी बिगड़ रही थी। दूसरे बच्चे फुसफुसा रहे थे, ‘अशरफ, अशरफ। अशरफ।’

उसकी आंखो में भी भरा था अविश्वास। उसमें आशा नहीं थी, जैसी मैंने उसके पिता की आंखों में देखी थीं।

था जो शाम्सशाह की आंखेां में थी। वह आदमी जिसने उसे मुझे बेच दिया था, तकरीबन दो साल पहले।

उस गैरेज में बैठे दूसरे बच्चों को भी देखा मैंने। आश्चर्य से सोचती रही मैं, क्या मुझे उन्हें वापस उन थाम के मैदानों के हवाले कर देना चाहिए। जहां से इनका अपहरण किया गया। या जहां इन्हेंं बाध्य किया गया कि वे कठिन पैटर्न की बुनावट करे उन औरतों और मर्दों के लिए जो शासन या फिर कुशासन चलाते हैं।