वर्चस्व के लिए जद्दोजहद शिरोमणि अकाली दल विभाजित

पंजाब की राजनीति में हाशिये पर बैठे अकाली दल में हलचल शुरू हो गयी है। वरिष्ठ अकाली नेता सुखदेव सिंह ढींढसा ने मूल पार्टी शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के नाम से ही पार्टी का ऐलान कर दिया है। अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने घोषणा कर दी कि उनका दल असली शिअद है, जहाँ पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था होगी। मूल शिअद को वह बादल परिवार नियंत्रित ऐसा दल बता रहे हैं, जहाँ संगठन और सरकार में उनका ही दबदबा रहेगा।

 अब सवाल यह कि ढींढसा के असली शिअद के दावे में कितना दम है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति और वर्ष 2022 में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव में दल के दम का पता चल जाएगा। अकाली दल में पहले भी विभाजन होते रहे हैं; लेकिन कोई भी दल सफल नहीं हो सका है। मूल पार्टी से अलग हुए नेताओं ने दल ज़रूर बनाये; लेकिन जनाधार बनाने में असफल रहे। रविंदर सिंह के नेतृत्व वाला शिरोमणि अकाली दल (1920) और रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा की अध्यक्षता वाला शिरोमणि अकाली दल (टकसाली) तो इसके ताज़ा उदाहरण है। पार्टी से निष्कासन के बाद ढींढसा की नज़दीकी ब्रह्मपुरा से रही। पहले ढींढसा के उनके साथ जाने की अटकलें थीं; लेकिन उपेक्षित नेताओं के समर्थन के बाद वे अलग दल बनाने को तैयार हो गये।

उनके विद्रोही तेवरों को देखते हुए पार्टी से निष्कासन की अटकले काफी समय से थी; क्योंकि पार्टी अध्यक्ष सुखबीर बादल से उनकी बन नहीं पा रही थी। वह अध्यक्ष के तौर पर उनको मन से स्वीकार नहीं कर पाये। उन्हें ही क्या पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं को यह गवारा नहीं था; लेकिन अनुशासनहीनता के चाबुक के डर से कोई विरोध करने को तैयार नहीं हुए। पर ढींढसा ने हिम्मत की, जिसका नतीजा उन्हें पार्टी से बेदखल होकर चुकाना पड़ा; लेकिन उन्हें इसका कोई अफसोस नहीं है। वह कहते हैं कि बादल नियंत्रित शिअद अब दल नहीं, बल्कि परिवार की जागीर जैसा है। जहाँ राजनीति इतनी संकुचित स्वार्थ वाली हो जाए, वहीं नीतियों और आदर्श की बात करना बेमानी जैसा है।

सवाल यह है कि उन्होंने सुखबीर को उप मुख्यमंत्री या फिर पार्टी अध्यक्ष बनाने के समय कोई विरोध नहीं किया। तब एक मायने में उनकी भी सहमति भी रही होगी। बाद में राजनीति के समीकरण बदलने लगे, वरिष्ठ नेता अपने को उपेक्षित महसूस करने लगे, तो उन्होंने दल में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम करने का प्रयास किया। धीरे-धीरे पार्टी नेतृत्व ने उनकी उपेक्षा शुरू कर दी, जिसका उन्हें काफी कुछ अंदाज़ रहा भी होगा।

चूँकि बादल परिवार की पार्टी पर पूरी पकड़ है। पहले दल पर प्रकाश सिंह बादल का नियंत्रण रहा बाद में उन्होंने बेटे को अध्यक्ष पद सौंप दिया था। प्रकाश सिंह बादल ने मुख्यमंत्री रहते बेटे सुखबीर को आगे बढ़ाने का काम जारी रखा। पिता मुख्यमंत्री और बेटा उप मुख्यमंत्री और बाद में पूरी तरह से पार्टी की कमान उन्हें सौंप दी। दल में सुखबीर सिंह बादल के बढ़ते कद और रुतबे से कई वरिष्ठ अकाली नेता खुश नहीं थे; लेकिन किसी ने खुलेआम विरोध करने का साहस नहीं जुटाया। ढींढसा के मतभेद पार्टी नीतियों और वैचारिक से ज़्यादा बादल परिवार के कब्ज़े को लेकर थे।

पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे और वर्तमान में राज्यसभा के सदस्य ढींढसा पार्टी नेतृत्व के खिलाफ खुलकर आ गये। उन्हें इसके नतीजे का भी पता था, पर वह इसके लिए बिल्कुल तैयार थे। बगावत के सुर बुलंद करने से पहले उन्हें पता था कि ऐसा होगा। उन्हें अपना ही नहीं, बल्कि अपने बेटे परमिंदर सिंह के राजनीतिक भविष्य को भी देखना था। शिअद सरकार में परमिंदर ढींढसा वित्तमंत्री रह चुके हैं। पिता के विद्रोही तेवरों के बावजूद परमिंदर उनके साथ खुले तौर पर सामने नहीं आये। वह दल की बैठकों में आने से भी परहेज़ करने लगे। लगने लगा था कि आिखरकार वह भी पिता के साथ ही जाएँगे।

पार्टियों में अक्सर विभिन्न मुद्दों पर विभाजन होते रहते हैं। इनमें निजी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा से लेकर पार्टी नीतियों का कारण रहता है। उम्र के आठवें दशक में चल रहे ढींढसा की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा अगर अब उबाल मार रही है, तो इसे क्या कहें? वे पार्टी में लोकतंत्र व्यवस्था के ज़बरदस्त हिमायती के तौर पर आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। उन्हें जितना समर्थन मिलना चाहिए था, फिलहाल तो नज़र नहीं आता। उनकी नयी पार्टी की नीतियाँ भी कमोबेश मूल शिअद जैसी ही हैं। वह पंजाब और पंजाबियों के हितों की बात करते हैं और यही नीति कमोबेश मूल शिअद की भी है।

ढींढसा अब जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटाने, राज्य का दर्जा खत्म करने और नागरिकता संशोधन कानून को पार्टी नीतियों से अलग बता रहे हैं। शिअद का इन मुद्दों पर केंद्र सरकार को मूक समर्थन उन्हें ठीक नहीं लग रहा। वह इसे पार्टी नीति के बिल्कुल खिलाफ बताते हैं।

सवाल यह कि यह सब तो केंद्र में भाजपा सरकार के एजेंडे में रहे थे, जिन्हें समय आने पर पूरा करना था। ढींढसा केंद्र में वाजपेयी सरकार के दौरान मंत्री रह चुके हैं, तो क्या उन्हें तब अपनी भावनाओं से अवगत नहीं कराना चाहिए था।

ढींढसा पक्के अकाली नेता के तौर पर जाने जाते हैं। वे संगरूर से लोकसभा सदस्य भी रह चुके हैं, इस नाते क्षेत्र में उनका कुछ आधार माना जा सकता है। इससे मूल अकाली दल को कितना राजनीतिक नुकसान होगा यह कहना फिलहाल मुश्किल है, क्योंकि विस चुनाव से पहले बहुत कुछ उलटफेर होने वाला है। सम्भव है कि कई अकाली नेता ढींढसा के साथ चले जाएँ। फिलहाल पूर्व केंद्रीय मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया, दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के पूर्व अध्यक्ष मनजीत सिंह जीके, हरियाणा सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के अध्यक्ष दीदार सिंह नलवी और बीर देविंदर सिंह ही प्रमुख समर्थकों में है।

मूल शिअद में कोई बड़ा विभाजन होगा, इसकी सम्भावना बहुत कम जान पड़ती है। विगत में पार्टी विभाजन इसके उदाहरण के तौर पर सामने है। राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके अकाली नेता सुरजीत सिंह बरनाला का पार्टी से अलग होने के बाद राजनीतिक अस्तित्व खत्म हो गया था।

ढींढसा समर्थकों के असली शिरोमणि अकाली दल के दावे को मूल शिअद के प्रवक्ता दलजीत सिंह चीमा बचकाना कहते हैं। उनकी राय में शिअद लगभग 100 साल पुरानी पार्टी है। क्या कोई भी व्यक्ति मोहल्ला समिति जैसी बैठक करके इस पर हक जमा सकता है? यह सम्भव नहीं है, पार्टी का अलग नाम रखा जा सकता है। आपको जिस पार्टी ने पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण निष्कासित कर दिया गया है ।आप उसे ही चुनौती देने लगते हैं। यह दावा कानूनी तौर पर भी कहीं नहीं ठहरता। चुनाव आयोग में शिअद पंजीकृत दल है, इसका अपना चुनाव निशान है। संवैधानिक तौर पर असली शिअद होने का भ्रम पाले हुए नेताओं को जल्द ही पता चल जाएगा कि असली कौन है और नकली कौन?

यह परम्परा-सी बनी हुई है कि मूल पार्टी से छिटके हुए लोगों ने अलग नाम से पहचान बनायी; लेकिन यहाँ बात बिल्कुल उलटी ही है। वह कहते हैं कि ढींढसा उनके लिए आज भी सम्मानित व्यक्ति हैं। चाहे वह अब पार्टी में नहीं है; लेकिन असली पार्टी का बचकाना-सा दावा उनके कद को छोटा करता है। ढींढसा के समर्थकों में कोई बड़े जनाधार वाला नेता नहीं है। उनके साथ आने वाले कई नेताओं के अपने-अपने गुट हैं। ऐसे अवसरवादी लोगों के सहारे कहाँ तक सफल हो पाएँगे, यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।

ढींढसा समर्थक नये दल को लेकर काफी उम्मीद लगाये बैठे हैं। उनकी राय मे सुखबीर के नेतृत्व में संगठन कमज़ोर है। कई वरिष्ठ अकाली नेता जिन्होंने दल के लिए पूरी निष्ठा से काम किया; लेकिन परिवारवाद के चलते वे आगे नहीं बढ़ पाये। ऐसे कई नेता हमारे साथ जुडऩे वाले हैं। वे पार्टी नीतियों से ज़्यादा नाखुश एक ही परिवार के दबदबे से हैं। वे कांग्रेस में गाँधी परिवार के कब्ज़े की खुलेआम निंदा करते हैं; लेकिन अपनी पार्टी में यह सब होता देख रहे हैं। बादल परिवार से इतर भी दल में नेता हैं, जिन्हें संगठन और सरकार का पूरा अनुभव है। लेकिन उन्हें मौका नहीं मिल रहा है। ऐसे उपेक्षित लोग आने वाले समय में बागी हो सकते हैं। अभी विभाजन की शुरुआत है, एक बार कारवाँ बन गया, तो लोग अपने आप ही जुड़ते जाएँगे।

आने वाले दौर में असली शिअद को लेकर कानूनी दाँव-पेच की लड़ाई शुरू होने वाली है। ढींढसा समर्थकों के इस दावे में कितना दम है? यह आने वाला समय ही बतायेगा। विधान सभा चुनाव से पहले प्रदेश में कांग्रेस सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में दल अध्यक्ष सुखबीर बादल को पहले अपने िकले को और मज़बूत करना होगा। पिता प्रकाश सिंह बादल राजनीति में सक्रिय ज़रूर है; लेकिन उम्र के इस दौर में वह बहुत कुछ करने की स्थिति में नहीं होंगे। शिअद की मज़बूती के लिए उन्हें ही यह लड़ाई अपने बलबूते पर लडऩे होगी; क्योंकि आने वाले समय में उन्हें उनके ही दल में चुनौती देने वाले चेहरे सामने आएँगे।

अकाली दल का अतीत

अकाली दल का इतिहास बहुत पुराना है। एक मायने में तो यह कांग्रेस के बाद देश की दूसरी सबसे पुरानी पार्टी है। इसकी स्थापना 14 दिसंबर, 1920 को हुई थी। तब इसे सिखों की सबसे बड़ी धाॢमक संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति की टास्क फोर्स के तौर पर बनाया गया था। इसके पहले अध्यक्ष सरमुख सिंह थे। देश आज़ाद होने के बाद राजनीतिक तौर पर अकाली दल की पैठ बनी। इसके अध्यक्षों में मास्टर तारा सिंह, फतेह सिंह और खडग़ सिंह प्रमुख तौर पर जाने और माने गये। अकाली दल को सबसे बड़ी पहचान मास्टर तारा सिंह ने दी। सिखों के हितों के लिए इस पार्टी के बिना पंजाब में राजनीति की कल्पना नहीं की जा सकती। यह बात मशहूर हो गयी कि अकाली जब भी सत्ता आते हैं, इनके नेता आपस में लड़ते हैं और जब विपक्ष में होते हैं, तो सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते हैं। लगातार दो बार सत्ता में रहकर यह मिथ भी तोड़ दिया। हर पार्टी की तरह यहाँ भी मनभेद और मतभेदों का सिलसिला चलता रहता है; लिहाज़ा विभाजन से यह दल भी अछूता नहीं रहा है। कई बार विभाजन हुए बड़े नेता अलग हुए नया दल बनाया; लेकिन सफलता नहीं मिल सकी। दल के अध्यक्ष रहे सुरजीत सिंह बरनाला और सिमरनजीत सिंह मान अलग होकर अस्तित्व ही नहीं बचा सके। इनमें बरनाला तो केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और राज्यपाल भी रहे।

कितने अकाली दल

शिरोमणि अकाली दल (शिअद) में विभाजन का इतिहास भी लम्बा है। शिअद (डेमोक्रेटिक) शिअद (लोंगोवाल) शिअद (यूनाइटेड) शिअद (अमृतसर) शिअद (पंथक), शिअद (1920) और शिअद (टकसाली) प्रमुख तौर पर है। विभाजन के बाद इनमें से कोई भी पार्टी सफल नहीं रही। इतिहास यही बताता है कि मूल पार्टी ही मुख्य धारा के तौर पर चलती है। सुखदेव सिंह ढींढसा के नेतृत्व में बना शिअद क्या इस परम्परा को तोड़ पायेगा, यह देखने वाली बात होगी।