वक्त के साथ सपनों का यूँ बिखर जाना

आज अचानक याद आ रही है पंजाबी के महान कवि अवतार सिंह पाश की ये लाइनें ‘सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना।’ दुनिया के सबसे बड़े शोमैन राजकपूर के सपनों की मौत सामने दिख रही है। पूर्वी मुंबई के पॉश इलाके चेंबूर में दो एकड़ में फैला हिंदी फिल्म-जगत के महानतम शोमैन राजकपूर के रुपहले परदे के सपनों का महल आरके स्टूडियो एक बार फिर सुर्खियों में है। राजकपूर के परिवार ने आपसी सहमति से अब इस ऐतिहासिक फिल्मी विरासत को बेचने का फैसला कर लिया है। परिवर्तन संसार का नियम है, पर कुछ बदलाव यादों और सपनों के पिटारे भी हमेशा के लिए अपने साथ ले जाते है। राजकपूर ने जागती आँखों से जो सपने बुने और दर्शकों की पीढिय़ां जिन्हें देख कर बड़ी हुई है, वे सपने टूटने जा रहे हैं। राज ने अपनी फिल्मों के जरिये रुपहले परदे पर जो संसार रचा था वह ज़्यादातर इसी स्टूडियो में शूट हुआ था। हिंदी सिने जगत के जो ऐतिहासिक स्टूडियो समय के साथ बिक चुके है उनमें अब 68 साल पुराने आरके स्टूडियो का नाम भी जुडऩे वाला है।

24 साल की कम उम्र में अभिनेता रणबीर राज कपूर यानी राज कपूर निर्माता-निर्देशक भी बन गए थे। पर आम धारणा के विपरीत राज कपूर ने आरके स्टूडियो अपनी पहली फिल्म ‘आग (1948)’ बनाने से पहले नहीं बल्कि अपनी दूसरी फिल्म ‘बरसात (1949)’ की जबरदस्त सफलता के बाद 1950 में खरीदा था। ‘बरसात’ एक करोड़ की कमाई के साथ तब तक के इतिहास की सफलतम भारतीय फिल्म थी। उसके बाद एक के बाद एक लीक से हटकर अलग-अलग विषयों पर बनी समसामयिक और हिट फिल्में आर.के. फिल्म्स के बैनर तले राज ने बनाई जो आरके. स्टूडियो में शूट हुई । इनमें ‘आवारा (1951), बूटपालिश (1954), श्री 420 (1955), जागते रहो (1956), अनाड़ी (1959), जिस देश में गंगा बहती है (1960), तीसरी कसम (1966) और मेरा नाम जोकर (1970) जैसी कालजयी फिल्में भी शमिल हैं। ‘आवारा’ के लिए हिंदी फिल्मों का पहला ड्रीम सीक्वेंस गाना ‘घर आया मेरा परदेसी’ भी आरके स्टूडियो में ही शूट हुआ था।

‘आवारा’ राजकपूर के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण फिल्म थी जिसने न सिर्फ देश-विदेश में जबरदस्त कमाई की बल्कि राजकपूर को एक अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई। फिल्म की पृष्ठभूमि में सामाजिक समरसता और साम्यवादी संदेश छुपा होने के कारण यह फिल्म विदेशों में, खासतौर पर रूस और चीन में बहुत पसंद की गई। इस फिल्म का गीत ‘आवारा हूँ’ हिंदी भाषा समझ में नहीं आने पर भी उस समय रूसियों की जुबान पर था। फिल्म को पूर्वी एशिया, मध्य एशिया, अफ्रीका और मध्य-पूर्व से लेकर यूरोप तक जबरदस्त प्रतिसाद मिला। 1951 में आई ‘आवारा’ की भारत और दुनिया-भर में कमाई करीब पौने छह करोड़ थी जो आज के हिसाब से 750 करोड़ होती है।

1970 में आई ‘मेरा नाम जोकर’ भले ही व्यावसायिक रूप से असफल रही हो, ये फिल्म राजकपूर के दिल के सबसे करीब थी। इस फिल्म की असफलता ने राजकपूर को व्यथित कर दिया था। उनकी फिल्म के वितरकों ने उन्हें इस फिल्म के लिए पहले आगाह किया था। एक निर्माता-निर्देशक के रूप में राजकपूर का आत्मविश्वास इस फिल्म के बाद कुछ कम हो गया था। उसके बाद की उनकी बड़ी फिल्म ‘बॉबी’ (1973) से राज अपनी फिल्मों के एक से अधिक क्लाइमेक्स शूट करने लगे थे। वो सभी क्लाइमेक्स फिल्म की रिलीज से पहले अपने वितरकों को दिखाते थे, फिर वितरकों की सलाह से ही वह फिल्म का क्लाइमेक्स तय करते थे।

आरके फिल्म्स की बनाई फिल्मों में इस्तेमाल किये गए ज्यादातर परिधान अब भी आरके.स्टूडियो में सहेज कर रखे गए हैं। इस स्टूडियो की चारदीवारी के अंदर आरके फिल्म्स के अलावा भी हिंदी फिल्म जगत का बहुत कुछ इतिहास रचा गया है। राजकपूर के अलावा मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और ऋषिकेश मुखर्जी ने अपनी कई फिल्मों की शूटिंग यहाँ की है। कई और फिल्में, टीवी सीरियल और रियलिटी शो भी यहाँ शूट हुए हैं।

आरके स्टूडियो अपनी होली और गणेशोत्सव समारोहों के लिए भी बहुत प्रसिद्ध था। जब तक राज कपूर थे, इन त्योहारों पर पूरा फिल्म जगत आरके स्टूडियो आता था। आरके स्टूडियो की होली विशेषकर प्रसिद्ध थी। होली पर जब फिल्मी दुनिया की हस्तियां आरके स्टूडियो आती थी तो उनका स्वागत उन्हें पानी में फेंककर किया जाता था। मस्ती और उल्लास के माहौल में घंटों गाना-बजाना, होली खेलना और खाना-पीना चलता था।

1988 में राज कपूर के निधन के बाद आरके फिल्म्स के बैनर तले पिछले तीस सालों में उनके बेटों ने वैसे भी बहुत कम फिल्में बनाई हंै और उनमें से राजकपूर की फिल्मों जैसी सफलता तो किसी को भी नहीं मिली है। ऐसे में स्टूडियो का व्यावसायिक उपयोग बहुत सीमित हो रहा था। शूटिंग के लिए बाहर के निर्माता-निर्देशकों की बुकिंग भी कम होती थी क्योंकि अब शूटिंग के लिए पश्चिमी मुंबई में अँधेरी और गोरेगाँव ज्यादा मुफीद हैं। ऐसे में इतनी बड़ी जगह के रखरखाव का खर्च भी उसकी कमाई की तुलना में बहुत ज़्यादा था। फिर सितम्बर 16, 2017 को स्टूडियो में लगी भीषण आग ने स्टूडियो को जीवित रखने की आखिरी उम्मीद भी खत्म कर दी। उस आग में स्टूडियो में सहेजी हुई कई पुरानी बेशकीमती चीजें जल गई थी। पहले से धन की कमी से जूझ रहे आरके स्टूडियो को अब पुराने स्वरूप में लाने के लिए और बड़ी रकम की आवश्यकता थी। आखिर में परिवार ने भारी मन से वक्त के मुताबिक फैसला लिया और स्टूडियो को बेचने का मन बना लिया।

जिस इलाके में ये स्टूडियो स्थित है वहाँ की वर्तमान दर के हिसाब से इस जमीन का बाजार मूल्य 500 करोड़ रूपए है। जाहिर है कि राजकपूर की पत्नी कृष्णा कपूर सहित राजकपूर के तीनों बेटों रणधीर, ऋषि और राजीव, और दोनों बेटियां रीतू नंदा और रीमा जैन की सहमति से लिया गया इस स्टूडियो को बेचने का फैसला मूर्त रूप लेगा, पर जाते-जाते वह राजकपूर और उनकी फिल्मों के लाखों प्रशंसकों के लिए बस पुरानी यादें बन कर रह जाएगा और उसके साथ राजकपूर की फिल्मों से जुड़ी अनगिनत यादें भी हमेशा के लिए गुम हो जाएंगी। उसके साथ ही हिंदी फिल्मों के इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय भी समाप्त हो जाएगा।

 

अमरीश सरकानगो

(लेखक फिल्म समीक्षक है)