लोकतंत्र की जीत

दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के आन्दोलन के एक साल पूरा होने से कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक आश्चर्यजनक फ़ैसले में तीन विवादास्पद कृषि क़ानूनों को वापस लेने की घोषणा की। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने कृषि क़ानून वापसी विधेयक-2021 (द फार्म लॉ रिपील बिल-2021) के साथ तीनों कृषि क़ानूनों को वापस ले लिया। निश्चित ही इन क़ानूनों को निरस्त करने का निर्णय लोकतंत्र की जीत है। इस फ़ैसले से यह भी संकेत मिलता है कि राज्य आन्दोलनकारी किसानों की एकता और दृढ़ता को तोडऩे में विफल रहा, जिन्होंने पूरे एक साल से शान्तिपूर्ण तरीक़े से विरोध-प्रदर्शन जारी रखा है। बेहद कठिन मौसम, एक जानलेवा महामारी, सत्ता की ताक़त और क़रीब 750 शहादत देने वाले किसानों के पास विजयी होने का एक कारण है। हालाँकि उनके न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी जैसे कई मुद्दे अभी अनसुलझे हैं।

जब कोई सरकार विपक्ष के मज़बूत विरोध के बावजूद नीतिगत फ़ैसलों को पलटने को राज़ी नहीं होती, तो इसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ होते हैं। ज़ाहिर तौर पर ख़ुफ़िया रिपोर्ट से पता चलता है कि कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर तराई की पट्टी तक फैल रहा था। इस प्रकार किसान आन्दोलन के उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और पंजाब में चुनावी सम्भावनाओं को प्रभावित करने से सत्तारूढ़ दल विचलित हो गया था। हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में उपचुनाव के नतीजों का मतलब है कि सत्ता में बैठी पार्टी के रूप में भाजपा लगातार कमज़ोर होती जा रही है। कृषि क़ानूनों के विरोध में हो रहे आन्दोलन से प्रभावित कई गाँवों में लोगों ने पार्टी नेताओं के प्रवेश पर रोक लगाने के लिए साइन बोर्ड लगा दिये। पार्टी जानती है कि अगर वह उत्तर प्रदेश में पश्चिम हिस्से को खो देती है, तो वह राज्य खो सकती है; क्योंकि उत्तर प्रदेश और दिल्ली का रास्ता पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ही जाता है।

प्रधानमंत्री ने अपनी घोषणा के लिए गुरु पर्व को चुना और किसानों को समझाने में नाकाम रहने के लिए माफ़ी माँगी। इसने उनका न केवल सिखों, किसानों और राष्ट्र के प्रति सम्मान उजागर हुआ, बल्कि उनके लोकतांत्रिक दृष्टिकोण और राजनेता के रूप में उनकी स्थिति को स्थापित किया। प्रधानमंत्री के सम्बोधन से उनकी चतुर व्यावहारिकता प्रदर्शित हुई। क्योंकि उत्तर प्रदेश, जहाँ किसानों के आन्दोलन ने सत्तारूढ़ पार्टी की सम्भावनाओं को धुँधला किया है; भाजपा के 2024 के लोकसभा चुनाव में तीसरे कार्यकाल के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

हालाँकि सन् 2014 के बाद सरकार के इस सबसे महत्त्वपूर्ण यू-टर्न का 2022 में पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनावों में सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष दोनों की राजनीतिक गतिशीलता पर असर डालेगा। सत्तारूढ़ दल भाजपा मोदी के नाम का लाभ उठाएगा। लेकिन आन्दोलन के दौरान मानव जाति की व्यापक क्षति खोयी ज़मीन को फिर हासिल करने के मार्ग में एक बड़ी बाधा बन सकती है। कृषि क़ानूनों को निरस्त करने से आगामी चुनावों में राजनीतिक लाभ हासिल करने की भाजपा की कोशिश से इतिहास में सबसे लम्बे और लोकप्रिय आन्दोलन के बाद उपजी किसानों की नाराज़गी का लाभ उठाने की विपक्ष की योजना पर पानी फिर सकता है। लेकिन प्रतिष्ठान को परिवारों के आँसू पोंछकर उनका दिल जीतना होगा। लेकिन बहुत कहने-सुनने और कृषि क़ानूनों को निरस्त करने के बावजूद कृषि क्षेत्र को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए इसमें सुधारों की तत्काल आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। हालाँकि सुधारों को एक परामर्शी तरीक़े से आगे बढ़ाना होगा, जो हमारे देश के संघीय और एकात्मक स्वरूप को बनाये रखने के लिए भी ज़रूरी है।

 चरणजीत आहुजा