लॉकडाउन से संकट में फँसे मज़दूरों पर तनातनी

पूरी दुनिया में लगभग सभी देशों पर कोरोना वायरस यानी कोविड-19 का खासा सन्नाटा पसरा दिख रहा है। तकरीबन पाँच-छ: महीनों से हर कहीं फैली इस लाइलाज बीमारी में लाखों की जानें जा चुकी हैं। लाखों लोग अभी भी अस्पताल में हैं और अंदेशा है कि करोड़ों लोग इससे संक्रमित हैं। अभी भी डॉक्टर इस बीमारी से निपटने के लिए वाजिब दवा ढूँढ नहीं पाये हैं। दुनिया के कई देशों में शोध कार्य चल रहा है। इस बीमारी के चलते हर देश मेें अर्थ-व्यवस्था चरमरा गयी है।

इस महामारी पर काबू पाने के विभिन्न तरीकों में लॉकडाउन सबसे मुफीद तरीका माना गया। विभिन्न देशों में अपने-अपने देश में विभिन्न चरणों लॉकडाउन रखा। लॉकडाउन के चलते उत्पादन ठप हुआ। माँग थम गयी। ठहराव हुआ। उद्योग के पहियों के ठहर जाने से प्रगति का सारा काम ठप हो गया। बड़े अमीर देश भी तेज़ी से आॢथक बदहाली की ओर बढऩे लगे। इसकी विभिन्न वजहों में पर्यटन, यातायात और उद्योगों में उत्पादन का ठप होना बताया गया। एशियाई देशों पर ज़्यादा असर पड़ा।

भारत में इस महामारी के चलते चार चरणों में लॉकडाउन हुआ। कई प्रदेशों में यह अभी भी है। यानी दो महीने से ज़्यादा की अवधि हो गयी उद्योग-धंधों के बन्द हुए। रोज़ी-रोटी के अभाव में असंगठिन क्षेत्रों के हज़ारों श्रमिक परिवारों के साथ अपने-अपने मूल प्रदेशों के गाँवों-कस्बों की ओर बिना सुविधा के लौट चले। इनमें हज़ारों को फरवरी महीने की पगार नहीं मिली थी। ठेकेदारों ने तो बहुतों के पैसे आज-कल करते हुए उन्हें घर लौटने के फैसले पर भी नहीं दिये। कोविड-19 के नाम पर तमाम प्रशासनिक जलालत झेलने के बाद ये मज़दूर क्या फिर काम पर लौटेंगे? यह एक बड़ा सवाल है।

चूँकि लॉकडाउन चरणों में बढ़ा, इसलिए इसकी बढ़ोतरी के दिनों को देखते हुए हज़ारों की संख्या में घर लौटने पर परिवार के परिवार चले। इनके न लौटने का असर परिधान, वस्त्र, हीरा उद्योगों और छोटे धंधों पर पड़ेगा। हालाँकि प्रधानमंत्री का आग्रह था कि इन्हें पूरा पैसा दिया जाए। किसी का पैसा न काटा जाए। किसी भी उद्यमी ने प्रधानमंत्री की बात पर कोई एतराज़ नहीं जताया। पर मज़दूरों को कोई ऐसा भरोसा नहीं दिया, जिससे वे घर न लौटने पर भी सोच पाते।

प्रधानमंत्री की अपील पर बड़े ही तरीके से कई छोटे-बड़े उद्योगपतियों ने कई नौकरशाहों के ज़रिये केंद्रीय मंत्रियों तक अपनी गुहार पहुँचायी। फिर अचानक मंत्रिमंडलीय बैठक ने बिना उत्पाद के मज़दूरी देने के अपने ही पुराने फैसले को ताक पर रख दिया। नये आदेश में कोई बात ही नहीं थी। इससे उद्योग जगत में खासी खलवली मची।

बड़े उद्योगों यानी कॉरपोरेट कम्पनियों के मालिकों को यह काफी नागवार गुज़रा। कुछ बड़े उद्योगपति जो देश-विदेश घूमते हुए यह मानते रहे हैं कि उद्योग कम्पनियों की अपनी कॉरपोरेट सामाजिक ज़िम्मेदारी भी होती है। उन्होंने इस सम्बन्ध में कॉरपोरेट के लिए देश मेें 2014 में सामाजिक ज़िम्मेदारी को विधेयक का हवाला भी दिया। यह अप्रैल महीने से ही लागू है। अभी हाल दावोस में हुए वल्र्ड इकोनॉनिक फोरम में भारतीय कॉरपोरेट प्रमुखों ने मिलकर एक विशेष फण्ड बनाने पर सहमति जतायी थी। इसके तहत जलवायु परिवर्तनों को ध्यान में रखते हुए शोध-विकास, श्रमिक-प्रबन्धन सहयोग और सामाजिक विकास के विभिन्न पहलुओं पर काम करते हुए धन की कमी के बाधा न बनने के लिहाज़ से इंडियन चैंबर्स ऑफ  कॉमर्स के साथ मिलकर यह योजना बनायी थी, जिन्हें खासी सराहना मिली।

भारतीय कॉरपोरेट के प्रमुख हस्ताक्षर यह मानते हैं कि प्रधानमंत्री की अपील के बाद समुचित जवाब में पाने के लिए सडक़ पर पहुँच गये प्रशिक्षित श्रमिकों और अनपढ़ मज़दूरों को तीन महीने का पैसा देकर वापस काम पर लिया जाना चाहिए था। इन्हें दूसरे बकाया पैसे भी दिये जाने थे, क्योंकि हाल-फिलहाल ज़रूरत है कि कम्पनियों को देश में ज़ीरो से उत्पादन शुरू करने की। परेशान और आॢथक-शारीरिक तौर पर यदि उनके पैसों को देकर रोक लिया जाता, तो लम्बे समय में कम्पनियों को लाभ ही होता। उत्पाद बने बाज़ार में पहुँचें, तभी पैसा भी आयेगा। श्रमिकों और मज़दूरों के उद्योग के प्रति अपना और अनुराग भी जगेगा। यह कहते हैं अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज। उनका कहना है कि उनकी पूरी देनदारी दी जानी चाहिए, जिससे वे अपना घर-बार सँभाल सकें और अपने दु:ख को दूर कर नये लक्ष्य के लिए खुद में फिर से हिम्मत जुटा सकें।

हालाँकि राजीव बजाज इस मुद्दे पर कहते हैं कि असल बात यह है कि कई व्यवसायी और उद्योगकर्मी, जो काफी छोटे स्तर पर स्टील, रबर, होटल आदि चलाते हैं; उनके लिए हो सकता है कि तीन महीने के लॉकडाउन की अवधि का पैसा देना कठिन हो। उन्होंने जापान, सिंगापुर, वियतनाम का उदाहरण दिया, जहाँ सरकार ने खुद आगे आकर मदद की पहल ली।

वहीं विप्रो कम्पनी के अज़ीम प्रेम जी ने कहा कि उद्योगपतियों को देशज मज़दूरों का भरोसा जीतना चाहिए। देश में कृषि और उद्योग को साथ-साथ लेकर चलना ज़रूरी है। दोनों के विकास से ही देश का विकास होगा और अर्थ-व्यवस्था मज़बूत होगी। मज़दूर को असंतुष्ट रखकर उद्योगों में उत्पादन नहीं बढ़ाया जा सकता।

राजीव का कहना है कि उनकी कम्पनी की किसी मज़दूर की पगार काटने में रुचि नहीं है। आपने देखा होगा इस कम्पनी की यूनियन ने अपनी ओर से वेतन मेें कटौती का प्रस्ताव दिया। बजाज कम्पनी को ऐसे मामलों पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है। मेरा मानना है कि अमीर देश अपने यहाँ लम्बे लॉकडाउन रख सकते हैं। लेकिन भारत के लिए यह तर्क सम्भव नहीं है। कोरोना वायरस पूरे तौर पर चिकित्सा सम्बन्धी मामला है। इसमे एक साथ सब कुछ ठीक होने की उम्मीद नहीं है। लेकिन लम्बे समय तक बन्द रखने से बड़ा नुकसान होगा। हमारे यहाँ ऐसा सम्भव नहीं है कि हम एक साल में पिछले उत्पादन की सीमा पर पहुँच जाएँ। हमारे यहाँ ज़रूरी है कि मजदूर-उद्योगपति-प्रबन्धकों में समान सहयोग कायम रहे, जिससे प्रगति का पहिया थमे नहीं।

उधर, श्रम पर गठित संसदीय समिति (पैनेल) ने औदयौगिक सम्बन्ध कोड, 2019 पर अपनी रिपोर्ट भेज दी है। इस रिपोर्ट के अनुसार, किसी महामारी के कारण हुए लॉकडाउन, भूकम्प, तूफान, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के दौरान अपने कर्मचारियों को कम्पनी की बन्दी के दौरान का पैसा देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इस पैनल की अध्यक्षता ओम बिरला ने की थी।

अज़ीम प्रेम जी का कहना है कि पिछले कुछ दशकों से श्रम कानूनों को इस तरह बदला गया है, मानो इनके कारण उद्योग चल नहीं पाते। जबकि यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या सामाजिक सुरक्षा हमने मज़दूरों को दी है? काम के दौरान सारी दुनिया में विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे मज़दूरों को वह उपयुक्त सुरक्षा पहनावा दिया जाता है, जिससे वे हादसों मेें बचे रहें। हम उसकी ज़रूरत ही नहीं समझते। टैक्स सम्बन्धी कानूनों में कटौती करने भर से देश में आॢथक सक्रियता नहीं आयेगी, बल्कि इससे न्यूनतम वेतन पाने वाले गरीब की हताशा और बढ़ेगी।

उन्होंने कहा कि जब आॢथक संकट की बात होती है, तो ग्रामीण कृषि क्षेत्र पर पड़ रहे प्रभाव की बात होती है और बेतकल्लुफी से अर्थ-व्यवस्था की चर्चा होती है। यह गलत है। एक महामारी पर काबू पाने के लिए आॢथक गतिविधि बढ़ाने की बात होती है। यह मुद्दों को गड्ड-मड्ड करना ही है। महामारी को स्वास्थ्य के मोर्चे पर निपटना चाहिए। पीडि़त व्यक्ति की मदद करनी चाहिए। केंद्र और राज्य सरकारों को यह करना चाहिए।

अभी हाल के लॉकडाउन के दौरान मेहनताना दिया जाना चाहिए या नहीं, इस पर एक कम्पनी द्वारा विभिन्न क्षेत्रों की कुछ कम्पनियों का एक सर्वे किया गया। इसमें यह बात साफ हुई कि हर 10 उद्योगपतियों में से आठ इस पक्ष में थे कि लॉकडाउन की अवधि का पूरा पैसा मज़दूरों को मिलना चाहिए। बहरहाल भारत सरकार ने लॉकडाउन के दौरान पैसा देने की  अपनी ही घोषणा वापस ले ली है। इसका अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन ने भी विरोध किया है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मंच पर भी भारतीय उद्योगपतियों के रुख को दर्ज किया गया होगा। देश की आज़ादी के 73 साल बाद भी देश के मज़दूरों के लिए काम के घंटों, श्रम कानूनों को खत्म करने और मज़दूरों को उनके पारिश्रमिक में कटौती करने पर असहमतियों के रुख एशियाई और यूरोपीय देशों में मज़दूरों और उद्योगपतियों में क्षमता, योग्यता और परिश्रम के लिहाज़ से करारनामा बनता है। अमूमन उसे कोई भी पक्ष तोडऩा नहीं चाहता।