लॉकडाउन से याद आया वो ज़माना…

वह महज़ 12 साल की थी। थकान, तेज़ धूप, साँस लेने में उसे परेशानी हो रही थी। लेकिन वह 114 किलोमीटर दूर उसने अपने घर को लौटने की ठानी थी। वह घर तो नहीं पहुँच पायी, लेकिन अखबारों की सुॢखयों में ज़रूर आ गयी। सोशल मीडिया ने हर बार की तरह जमलो की मौत के इस वाकये का ज़िम्मेदार सरकार को ही ठहराया। सरकार ने बिना सलाह-मशविरे के लॉकडाउन जो घोषित कर दिया। फिर ऐसे भी लोग इकट्ठे हो गये, जिन्होंने माँ-बाप को ही कोसना शुरू किया कि उन्होंने क्यों उसे काम पर भेजा? जबकि उसकी उम्र इतनी कम थी।

जमलो से मैं छ: साल ही बड़ा था। काम की तलाश में एर्णाकुलम के मराडू से अहमदाबाद को चला था। घर की व्यवस्थित ज़िन्दगी छोडक़र। अहमदाबाद में मैं कल्याणग्राम सोसायटी में स्थान पा सका। यहीं एक अनुसूचित जाति के इंसान के घर में मुझे पनाह मिली। यहीं मैंने पहली बार समाज में वर्ग चेतना भी जानी-समझी। उस ज़माने में अहमदाबाद को भारत का मांचेस्टर कहा जाता था। आॢथक हालात रंग दिख रहे थे। महात्मा गाँधी ने इस कॉलोनी की स्थापना की थी। यहाँ ज़्यादातर मज़दूर ही रहते थे। पास की दूसरी कॉलोनियों की तुलना में यहाँ किराया भी खासा कम था। यहाँ रहने वाले कई मलयाली अपना उपनाम अपनी जाति बताने के लिए रख लेते थे। लेकिन किराये पर यहाँ जगह देने में कोई हिचकिचाहट नहीं थी।

दूसरी तकलीफदेह बात थी कि कॉलोनी की लड़कियाँ अक्सर मुझे छेड़तीं। युवा महिलाएँ और लड़कियाँ देर रात की फिल्में देखने जातीं। उनके साथ कोई पुरुष नहीं होता था। इस संस्कृति की तो कल्पना एर्णाकुलम में सम्भव नहीं थी।

बात 1980 के शुरू की है। अहमदाबाद में कफ्र्यू लगा था। कफ्र्यू का मेरा यह पहला अनुभव था। उन दिनों मैं प्रार्थना समाज में आ चुका था। पहली मंज़िल पर सीपीआई (एम) की गुजरात राज्य कमेटी का कार्यालय था। प्रार्थना समाज हिन्दू पुनर्जागरण समिति का संगठन था। यह 19वीं सदी के अन्त में बना था। रायखण्ड चार रास्ता पर यह था। इस मंदिर के परिसर में कई संस्थान थे। वहाँ लड़कियों का एक सरकारी हाई स्कूल था। लडक़ों का भी एक स्कूल था; जिसे ईसाई मिशनरी चलाते थे। एक गिरजाघर था। एक कॉलेज था; वह भी आयुर्वेद का। प्राइमरी अध्यापकों का एक प्रशिक्षण केंद्र वहीं था। इतना ही नहीं, अहमदाबाद म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन की ओर से संचालित जयशंकर सुंदरी हॉल वहीं था। मैंने यहीं मुझे ए.बी. वर्धन को ‘वार एंड पीस’ पर बोलते हुए सुना था। यह दौर था, जब सारी दुनिया में सोवियत संघ की तूती बोलती थी। किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि कुछ ही साल में यह इतिहास बन जाएगा।

प्रार्थना समाज के एक किनारे पर है मुसलमानों की बस्ती और दूसरी ओर है हिन्दू बहुल समुदाय, इसमें ओबीसी समुदाय के लोगों की तादाद कहीं ज़्यादा है।

छिटपुट हिंसा होती ही रहती। ऐसी ही एक पहली घटना थी, एक ड्राई-क्लीयर की दुकान की। यह दुकान एडवर्ड नाम की ज़रूर थी, लेकिन इसके मालिक ईसाई नहीं थे। तब तक ईसाई लोग उनकी हिटलिस्ट पर आये भी नहीं थे। यह तब शुरू हुआ, जब डांग समुदाय के साथ प्रयोग की शुरुआत हुई। हालाँकि तब तक ईसाइयों के खिलाफ नफरत का भाव हल्का तो था ही। क्योंकि दलित ईसाई बने थे। बहरहाल एडवर्ड के मालिक मुसलमान थे। वह दुकान बार-बार निशाने पर रही। हालाँकि हाल ही में, जब मैं अमदाबाद गया, तो देखा कि एडवर्ड अब नहीं है। उस जगह पर अब जो नयी दुकान खुली है, उस पर महिलाओं के परिधान वगैरह बिकते हैं।

यदि पुलिस और प्रशासन यह महसूस करता है कि हिंसा वाकई खतरनाक हो गयी है, तो पहले कुछ क्षेत्रों में और बाद में शहर के ज़्यादातर उन हिस्सों मे कफ्र्यू लगा दिया जाता है, जहाँ दोनों ही समुदायों के लोग रहते हैं। अफवाहबाज़ी खूब होती है। यह दौर तब का है, जब लैंडलाइन फोन पाना भी बहुत कठिन था। ज़ाहिर है, उस ज़माने में अफवाहें एक मुँह से दूसरे के कान तक पहुँचाने का काम अद्भुत था। ऐसी साम्प्रदायिक प्रयोगशाला में गुजरात अब विशेषज्ञता हासिल कर रहा था।

जब हिंसा कुछ और बढ़ी और लोगों की धरपकड़ शुरू हुई, तो इस हिस्से में स्टेट रिजर्व पुलिस के जवानों को जयशंकर सुंदरी हाल में टिका दिया जाता। चूँकि प्रार्थना समाज की दीवारें ऊँची हैं और गेट भी, इसलिए दोनों समुदायों ने कभी इसे अपना लक्ष्य नहीं माना। हमारे लिए भी डरने की कोई बात नहीं थी। हालाँकि इस परिसर के कर्ताधर्ता महेंद्र भाई ऐसे मौकों पर खिडक़ी से झाँकने से भी मना करते। जब भी मैं बाहर निकलता, तो बगल के जयशंकर सुंदरी हाल के परिसर में झाँकता; खासकर शाम के धुँधलके में। घिरती हुई शाम में युवाओं और बूढ़ों की चीखें और उनका आर्तनाद में सुनता, जब एसआरपी (यूपी की पीएसी की तरह) के जवानों की लाठियाँ उन पर बरसतीं। मैं भीतर तक दहल उठता। वे चीखें और वह आर्तनाद मेरे कानों में बरसों गूँजती रहीं।

विशेषाधिकार होने के नाते मुझे कई किलोमीटर दूर पुलिस से कमिश्नर के दफ्तर से कफ्र्यू पास मिल गया था। उसके सहारे आप बेरोकटोक शहर के उन इलाकों में भी जा सकते, जहाँ कफ्र्यू लगा है। हाँ, यह ज़रूर है कि संदेह होने पर आपको पेंट, नीचे करके अपनी धाॢमक पहचान बतानी पड़ सकती है। खासतौर पर तब, जब पुलिस की मौज़ूदगी कम हो और इलाके में हुड़दंग करने वाले अपना अगला शिकार ढूँढ रहे हों। लेकिन थर्ड डिग्री के ऐसे वाकये कम ही होते। तब हमारे पास आईडी कार्ड के तौर पर न तो मतदाता पहचान पत्र, न आधार और न पैन कार्ड या कोई भी और कार्ड होता था। कफ्र्यू पास बड़े काम आता। खासकर जब मधुबन में जहाँ महेंद्र भाई की बीमार पत्नी मुझसे कुछ घरेलू सामान और सब्ज़ी मँगवाती थीं। मैं उन इलाकों में जाता और सामान ले आता। लौटने के बाद घर पर ताज़ा स्वादिष्ट गर्म मराठी भोजन मिल जाता। जिसे हम 12 ङ्ग 10 के कमरे में बैठकर उनके पति के साथ खाते। उनके तीन बच्चे भी वहीं हमारे पास ही बैठे रहते और सुनते रहते।

लेकिन यदि हालात बिगड़े और सेना बुला ली गयी, तो कफ्र्यू बेमतलब भी पास हो जाता। सेना यूँ भी स्थानीय पुलिस को टके के भाव नहीं गिनती। पुलिस इसलिए सेना को बुलाने का पक्ष नहीं लेती। एक बार मैं किसी काम से सुबह का निकला हुआ था। पास लगे बैरिकेट पर मुझे रोक लिया गया। एक सैनिक ने मेरा कफ्र्यू पास फाड़ डाला। मेरी साइकिल का पहिया पंक्चर कर दिया। मातृभाषा मलयाली का प्रभाव मेरी हिन्दी में था। तब उस सैनिक ने मुझे जाने दिया। बड़ी कठिनाई से साइकिल सँभाले हुए दो किलोमीटर मैं अपने घर पहुँचा। कई दिन  कफ्र्यू लगा रहा। बाहर निकलने की कोई वजह भी नहीं थी। हालाँकि बीच-बीच में कुछ समय के लिए कफ्र्यू में ढील दी जाती। हम उसमें ही बाहर का काम करते।

दिल्ली में लॉकडाउन के पहले दिन घर पर बैठे हुए मुझे अपने साथ घटा एक पुराना वाकया याद आया। दिल्ली में विट्ठल भाई पटेल हाउस के बाहर आकर मैंने देखा यह हमेशा व्यस्त रहने वाला रफी मार्ग कितना सुनसान है। यहाँ है वह मशहूर आईएनएस बिल्डिंग, जहाँ ढेरों समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के प्रबन्धक और पत्रकार बैठते हैं। पास ही है यूएनआई, समाचार एजेंसी का सूना पड़ा परिसर। कहीं कोई आता-जाता नहीं दिख रहा है। डीटीसी की एक खाली बस पूरे शान्त माहौल को अचानक शोर में बदलती है। यूएनआई परिसर के बाहर एक चाय वाला एक अस्थाई छाँव में अपने दो सहायकों के साथ बेवश बैठा दिखता है।

यह चाय वाला मूलत: सुपौल, बिहार का निवासी है। बरसों से चाय और बिस्किट आदि बेचकर अपनी इस दुकान से सहयोगियों का, अपना और घर का खर्च चलाता रहा है। सुपौल (बिहार) हमेशा बाढ़ के कारण बरसों अखबारों में सुॢखयों में बनता रहा है। दिल्ली में उसका यह छोटा-सा ठीया आज उसकी मदद नहीं कर पा रहा है। लॉकडाउन में न घर लौट सकते हैं और न कहीं कुछ कर सकते हैं। अब तो कमायी भी नहीं के बराबर है। उसे उस साथी की अच्छी याद है, जो बरसों यूएनआई परिसर की कैंटीन चलाता था। उसमें बाहर के लोग भी आते थे। भूख को अजीब-सा नाम दिया है दिल्ली सरकार ने। इन केंद्रों पर पका-पकाया भोजन वितरित होता है। यह सभी केंद्रों में बाँटा जाता है, ऐसा दावा है सरकार का। लेकिन यह भोजन कैसा होगा? जब दिल्ली की कड़ी ठण्ड, भीषण गर्मी और अचानक बारिश याद आती है, तब सुपौल से आकर दिल्ली में 20 साल से भी अधिक समय तक लोगों को चाय-नाश्ता देने वाला यह अतिथि मज़दूर और उसके साथी भी दिल्ली सरकार का वह आहार कभी नहीं खा पाते। जो उप मुख्यमंत्री 10 लाख लोगों को रोज़ खिलाने का दावा करते थे।

एक दिन कोलकाता से मेरे एक सहयोगी ने फोन किया। वह चाहते थे कि उनकी बेटी को नोएडा के पी.जी. एकोमोडेशन से हवाई अड्डे भिजवाने की व्यवस्था की जाए। एमिटी यूनिवॢसटी की इस छात्रा की तडक़े ही कोलकाता की उड़ान थी। लॉकडाउन से पहले लोगों को समय ही नहीं मिला कि वे अपनी कुछ व्यवस्था कर लें। किसी तरह मयूर बिहार में दो पत्रकारों से बातचीत हुई। उसके पास पीआईपी कार्ड थे। जवानी के दिनों के मेरे मित्र जयन ने मेरी मदद की। मुहिम जयन के कार्ड के सहारे नोएडा से उस लडक़ी को साथ लिया। उसे हवाई अड्डे पर छोड़ा। उसकी माँ के पास जयन का आभार व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं थे। लॉकडाउन के कुछ ही दिनों बाद खबरें आने लगीं कि बड़ी तादाद में भारतीय मज़दूर अब अपने अपने देश को पैदल चल चुके हैं। झुण्ड-के-झुण्ड अपना सामान सिर पर लिए छोटे बच्चों को गोद में लिए अपने अस्थायी घरों से बस अड्डों पह पहुँच रहे हैं। बसें न मिलने पर भी उनका इरादा पैदल ही जाने का रहा। प्रशासन को इस भीड़ की कोई सुगुगाहट नहीं थी। भीड़ बढ़ती गयी, तो पुलिस भी पहुँची। उसने उन परेशान गरीबों-मज़दूरों पर लाठियाँ चलायीं, जो घर लौटने का मन बना चुके थे। इनकी तकलीफों की यह शुरुआत थी। इन्हें बसों में बैठाकर शिविरों में रख दिया गया। पानी की बौछार से उन्हें ‘डिस इन्फेक्ट’ किया गया। यह सिलसिला चलता रहा। देश में सडक़ भवन निर्माण कार्य को गति देने वाले मज़दूरों की यह व्यथा गाथा का पहला अध्याय था। मई की पहली तारीख के केंद्र सरकार ने पाँच ट्रेनें हैदराबाद, तिरुअनंतपुरम, भुवेनश्वर, दिल्ली और तमिलनाडु से चलायीं। हर ट्रेन में 1,200 यात्री बैठे होते। उनसे किराया लेकर उन्हें उनकी मंज़िल के एक छोर तक पहुँचाने की शुरुआत हुई।

देश के सफेद कॉलर वाले मध्य वर्ग के लिए घर से दफ्तर का काम नीति शुरू की गयी। लॉकडाउन के तय दैनिक समय में कुछ ढील दी गयी। सत्ता चलाने वाले प्रशासक वीडियो कॉन्फ्रेंस, स्काइप वगैरह से अपनी बैठकें करके हालात का जायज़ा ले रहे हैं। पूरा देश लगभग ठहर गया है। जबकि ज़रूरत है कि प्रशासन और पुलिस ज़्यादा-से-ज़्यादा संवेदनशील हो। अनपढ़, गरीब और परेशान लोगों को सम्मान करते हुए ये समझाएँ। लेकिन विकसित हो रहे देश की अपनी प्राथमिकताएँ होती हैं। पूरा देश ठहरते ही विकलांग-सा हो गया है।

सरकारी नुमाइंदे गैर-सरकारी संगठनों से व्हाट्स एप, स्काइप से बातचीत कर रहे हैं कि कैसे सूखे राशन के वितरण हो? मुझे लगा शायद सरकारी नुमाइंदे वितरण के काम में सभ्य समाज के लोगों की मदद चाह रहे हों। लेकिन नहीं, यह बैठक तो यह जानने के लिए बुलायी गयी थी कि वे कौन लोग हैं, जो उत्तर-पूर्व दिल्ली के शिव बिहार, करावल नगर में राशन बाँट रहे थे, जहाँ साम्प्रदायिका हिंसा हुई थी। अब लॉकडाउन को पौने दो महीने से अधिक समय हो चला है। लोगों की परेशानियाँ, भूख, बीमारियों के प्रति सरकारी अनदेखी की कहानियाँ बढ़ती ही जा रही हैं। कोई नहीं जानता, सच क्या है?