लॉकडाउन में महिलाओं पर विकट आॢथक मार

पूरी दुनिया में फैली महामारी कोविड-19 ने महिलाओं को विकट आॢथक संकट में डाल दिया है। अगर हम केवल भारत की बात करें, तो यहाँ अधिकतर कामकाजी महिलाएँ, खासतौर पर निचले तबके की महिलाएँ बहुत परेशान हैं। इनमें अधिकतर वे महिलाएँ हैं, जो कहीं कोई नौकरी करती थीं या घरों से ही छोटा-मोटा काम करती थीं। भारत की मध्यम और निम्न वर्गीय महिलाओं की आॢथक कमर तो करीब साढ़े तीन साल पहले हुई नोटबन्दी ने ही काफी तोड़ दी थी, अब बचे-खुचे सुकून को इस महामारी ने नष्ट कर दिया। इस लॉकडाउन में लाखों महिलाओं का रोज़गार छिन जाने के कारण उनकी परेशानी इतनी बढ़ गयी है कि वे अब किसी भी हाल में नौकरियाँ पाना चाहती हैं। सबसे ज़्यादा परेशान वे महिलाएँ हैं, जिनके घर वालों की न तो बहुत अच्छी नौकरी थी और न बहुत अच्छी कमायी। इनमें अधिकतर ऐसी हैं, जो या तो लोगों के घरों में जाकर काम करती थीं या फिर चार-पाँच हज़ार से लेकर 10 हज़ार महीने तक की ही नौकरी करती थीं।

बेरोज़गार हुई महिलाओं की व्यथा

गुजरात में रहने वाली दीपा सिंह कहती हैं कि वह और उनके पति एक कम्पनी में नौकरी करते थे। जब से लॉकडाउन हुआ है, तबसे दोनों लोग घर पर बैठे हैं। उनके घर में दो ही लोग कमाने वाले हैं। एक बूढ़ी बीमार सास और तीन बच्चों तथा मियाँ-बीवी का खर्च हम दोनों की सेलरी से ही चलता था; लेकिन अब करीब चार महीने से नौकरी न होने के कारण बहुत मुश्किल में फँसे हुए हैं। अगर ऐसा ही रहा, तो एक दिन ऐसा आयेगा कि भूखों रहने की नौबत आ जाएगी। यहीं रहने वाली कुसुम कहती हैं कि उनके पति ऑटो रिक्शा चलाते थे, जिससे उनका गुज़ारा नहीं होता था, इसलिए उन्होंने घर बैठे सिलाई का काम शुरू कर दिया था। जबसे लॉकडाउन हुआ है न तो उनके पति का काम चल रहा है और न ही उनका। दो बच्चे हैं, दोनों प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं। स्कूल वाले हर महीने की फीस वसूल रहे हैं। जो कुछ जमा पूँजी थी, वह भी धीरे-धीरे खत्म हो गयी है। अब घर की आॢथक हालत खराब होने लगी है। दिल्ली में रहने वाली ङ्क्षरकी कहती हैं कि अपने दो बच्चों के साथ वह किराये के मकान में रहती हैं। पाँच साल पहले उनके पति एक दुर्घटना में चल बसे थे। तबसे बच्चों को पालने के लिए वह नौकरी कर रही थीं। मगर लॉकडाउन होते ही उनकी नौकरी चली गयी। अब वह विकट परेशान हैं। कई जगह नौकरी की तलाश में जा चुकी हैं। मगर कम्पनियों से यही जवाब मिल रहा है कि अभी उनके पुराने लोगों के लिए ही काम नहीं है। अगर कहीं कोई नौकरी मिल भी रही है, तो कोई भी छह-सात हज़ार से ज़्यादा वेतन देने को तैयार ही नहीं है।

जमा पूँजी खत्म, चढ़ रहा कर्ज़

महिलाओं की आदत होती है कि वे कुछ-न-कुछ बचत ज़रूर करती हैं। उनकी यह बचत कई बार घर में ज़रूरत के समय काम आती है। लेकिन लॉकडाउन में घर के कमाऊ लोगों की कमायी कम होने या नौकरी चले जाने के कारण महिलाओं की बचत पर घर के खर्चों का काफी बोझ बढ़ा है। रियाना नाम की एक महिला कहती हैं कि उनके पति उन्हें हर महीने एक हज़ार रुपये बैंक में जमा करने को देते थे। इसके अलावा उन्हें जो घर खर्च मिलता था, उसमें से वह हज़ार-पन्द्रह सौ रुपये हर महीने बचा लेती थीं। इस तरह उनके पास हर महीने करीब डेढ़े से दो हज़ार रुपये जुड़ जाते थे। पहले नोट बन्दी में उन्हें बड़ी मुश्किल हुई और जैसे-तैसे उन्होंने अपने पास घर की गुल्लक में जोड़े हुए 11 हज़ार रुपये बदलवाये। लेकिन इस बार तो उनकी बचत पर सीधा असर पड़ा है। क्योंकि उनके पति तीन महीने से घर पर बैठे हैं, जिससे उन्हें वेतन नहीं मिल रहा है। ऐसे में उन्हें हर महीने मिलने वाला पैसा तो मिलना बन्द हो ही गया, उनकी बचत भी घर में खर्च हुई है। किराये पर रहने वाली संजू कहती हैं कि उनके पास तो कोई बड़ी सम्पत्ति या ज़मीन भी नहीं है। उनके पिता एक गरीब आदमी थे, इसलिए मेरी शादी भी एक ऐसे घर में हुई, जिसमें कमाने-खाने के लिए नौकरी का ही सहारा था। मेरे पति एक कपड़ा फैक्ट्री में कटिंग मास्टर थे, अब वहाँ काम न होने के कारण उनकी नौकरी जा चुकी है। मकान मालिक किराया छोडऩे को राज़ी नहीं है। हम तीन महीने से किराया नहीं दे पाये हैं। मकान मालिक हर रोज़ पैसे माँगता है। मेरे कान के कुण्डल भी गिरबी पड़ चुके हैं। हमारे पास और कोई साधन नहीं है। बहुत परेशानी में हैं, समझ नहीं आ रहा कि क्या करें? मेरी सरकार से विनती है कि हम जैसे लोगों को काम की व्यवस्था करे; ताकि पैसे की तंगी से बचा जा सके और कर्ज़ा उतारा जा सके।

ऐसी अनेक महिलाएँ हैं, जो लॉकडाउन के बाद आॢथक तंगी से गुज़र रही हैं। इनमें अधिकतर वे हैं, जिनके परिवार की माली हालत पहले ही बहुत अच्छी नहीं थी। लेकिन अब और ज़्यादा खराब हो गयी है। मुश्किल यह है कि अभी भी अधिकतर उद्योग धन्धे, कम्पनियाँ और संस्थान बन्द हैं। अगर कुछ खुल भी रहे हैं, उनमें पहले से काम करने वाले सभी लोगों के लिए काम ही नहीं है। उसमें भी महिलाओं के लिए तो काम की पहले से ही कमी है।

एक डर, जो नहीं जा रहा

वहीं घरों में काम करने वाली महिलाओं की समस्या तो और बढ़ गयी है। क्योंकि ज़्यादातर लोग अब घरों में खुद काम करने लगे हैं। इसका कारण उनकी कमायी का घटना भले ही न हो, क्योंकि घरों में काम वाली बाई रखने वाले अधिकतर लोग पैसे वाले ही होते हैं; लेकिन कोरोना वायरस के संक्रमण का डर उनके मन में ज़रूर है। जिसके चलते अनेक लोग अपने घरों में काम करने वाली बाइयों को हटा चुके हैं और अभी काम पर बुलाने से डर रहे हैं। रईस परिवार से आने वाली बबिता शर्मा ने बताया कि उनके घर में काम करने के लिए हमेशा से दो नौकरानी रहीं हैं; एक साफ-सफाई करने वाली और दूसरी खाना बनाने वाली। कोरोना वायरस के चलते उन्होंने पहले दो महीने तो दोनों को ही छुट्टी दे दी और अब दो नौकरानियों में एक को, जो साफ-सफाई करती है; काम पर वापस बुलाया है। मगर अभी खाना बनाने वाली बाई को नहीं बुला रहे हैं; क्योंकि अभी कोरोना वायरस का खतरा टला नहीं है। इसी तरह मधु कौशिक भी कोरोना वायरस के डर से अपने घर में काम करने वाली बाई को छुट्टी दे चुकी हैं। उनका कहना है कि कोरोना वायरस एक छूत की बीमारी है। ईश्वर न करे, अगर रास्ते में आते-जाते उनके घर में काम करने वाली बाई संक्रमित हो जाए, तो वह उनके परिवार में भी संक्रमण फैला सकती है। वैसे भी सरकार और स्वास्थ्य मंत्रालय की गाइडलान यही कहती है कि हमें सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना चाहिए। ऐसे में रिस्क क्यों लेना? काम तो खुद भी कर सकते हैं। लेकिन अगर इस महामारी के चपेट में कोई आ गया, तो लेने के देने पड़ जाएँगे।

रिसर्च पेपर लिखने वाली केवल 34 फीसदी महिलाएँ

कोविड-19 के तेज़ी से फैलने के कारण विश्व भर में उच्च शिक्षा में विभिन्न यूनिवॢसटीज में रिसर्च करने वाली छात्राओं की संख्या में तेज़ी से गिरावट आयी है। बीएमजे ग्लोबल हेल्थ द्वारा रिसर्चर पर किये गये एक अध्ययन के मुताबिक, कोरोना वायरस के संक्रमण फैलने के बाद जनवरी, 2020 से जून के पहले सप्ताह तक कोविड-19 को लेकर 1,445 पेपर्स पर रिसर्च करने वालों पर अध्ययन किया गया; जिसमें पाया गया कि रिसर्च पेपर लिखने वाली छात्राओं/महिला लेखकों में से केवल 34 फीसदी ने ही भाग लिया। इसकी वजह जानने के लिए पिन्हो गोम्स और उनकी टीम ने कुछ कारण भी बताये हैं।

उनका मानना है कि कोविड-19 एक ऐसा विषय है, जिसके बारे में महिलाओं के मुकाबले पुरुषों का अध्ययन ज़्यादा है। इसका एक कारण महिलाओं पर परिवार के बोझ का बढऩा भी है। क्योंकि बाहर रहने वाले पुरुष से लेकर बच्चे तक घरों में कैद हैं, जिसके चलते महिलाओं पर घरेलू काम का बोझ बढ़ा है। यह इस वजह से भी हुआ है, क्योंकि अधिकतर लोगों को उनके घरों में काम करने वाले लोगों को महामारी के चलते छुट्टी देनी पड़ी है। इसी के चलते महिलाओं को रिसर्च पेपर लिखने के लिए समय कम मिला। रिसर्च संस्थानों पर हाल ही में किये गये इस अध्ययन के मुताबिक, कोरोना वायरस के चलते बीते कुछ महीनों के दौरान रिसर्च पेपर लिखने वाली छात्राओं की संख्या में तेज़ी से कमी आयी है और कोरोना वायरस के संक्रमण के फैलने के बाद अब तक केवल एक-तिहाई छात्राओं ने रिसर्च पेपर लिखे हैं, जिनकी संख्या महज़ 34 फीसदी है। अध्ययन में यह भी कहा गया है कि रिसर्च पेपर न लिखने वाली इन छात्राओं में वरिष्ठ मानी जाने वाली अनेक महिला लेखक भी हैं। रिसर्च प्रोफेशनल न्यूज में यूनिवॢसटी ऑफ ऑक्सफोर्ड की रिसर्चर छात्राओं की मौज़ूदगी के बिना रिसर्च पेपर लिखे जाने में निश्चित तौर से कमी मानते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अगर इसे देखें, तो महिलाओं द्वारा लिखे रिसर्च पेपर को यूनिक मानकर खास महत्त्व दिया जाता है। क्योंकि महिलाओं की उपस्थिति की वजह से रिसर्च का डाटा बेस हाई रहता है। इसके अलावा रिसर्च पेपर में महिलाओं की भारीदारी भी पुरुषों की तरह ही ज़रूरी है। महिलाओं का रिसर्च पेपर न लिखना एक चिन्ता का विषय है, जिसे सरकारों और रिसर्च संस्थानों को गम्भीरता से लेना चाहिए और महिलाओं को इसके लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।